बुधवार, जून 30, 2010

सिद्ध भया तो क्या भया


मुवा है मरि जाहुगे । बिन सिर थोथे भाल ।
परेहु करायल बृक्षतर । आज मरहु की काल ।

बोल हमारा पूर्व का । हम को लषै न कोए ।
हम को तो सोई लषै । जो धूर्त पूरब का होय ।

जा चलते रौदे परा । धरती होय बेहाल ।
सो सावत घामे जरे । पंडित करो बिचार ।

पाहन पुहुमी नापते । दरिया करते फाल ।
हाँथन पर्वत तौलते । तेहि धरि षायो काल ।

नव मन दूध बटोरि के । टिपके किया विनास ।
दूध फाटि काँजी भया । भया घृत्त का नास ।

केतना मनावों पाँव परि । कितनो मनावों रोए ।
हिंदू पूजै देवता । तुरुक न काहू होए ।

मानुस तेरा गुन बडा । मासु न आवैं काज ।
हाड न होते आभरन । त्वचा न बाजन बाज ।

जो मोहिं जानै ताहि मैं जानो । लोक बेद का कहा न मानो ।

सबकी उत्पति धरती में । सब जीवन प्रतिपाल ।
धरती न जानती आप गुन । ऐसा गुरु बिचार ।

धरती न जानती आप गुन । कभी न होती डोल ।
तिलतिल होती गरुआ । हती टिकोकी मोल ।

जहिया किरतम ना हता । धरती हती न नीर ।
उत्पति परलय ना हती । तबकी कही कबीर ।

जहाँ बोलत तहँ अक्षर आया । जहँ अक्षर तहँ मनहिं दृढाया ।
बोल अबोल एक है सोई । जिन्ह यह लषा सो बिरला होई ।

तौ लों तारा जगमगै । जोलैं उगै न सूर ।
तौ लौं जीव कर्म बस डोलै । जौ लैं ग्यान न पूर ।

नाम न जानै गाँव का । भूला मारग जाए ।
काल पडेगा काँटवा । अगमन कसन कराए ।

संगत कीजै साधु की । हरै और का ब्याध ।
ओछी संगत कूर की । आठौ पहर उपाध ।

संगति से सुष ऊपजै । कुसंगति से दुष होए ।
कहैं कबीर तहँ जाइये । जहँ संगति अपनी होए ।

जैसी लागी ओर की । वैसी निवहै छोर ।
कौडी कौडी जोर के । पूंजी लाष करोर ।

आज काल दिन एक में । अस्थिर नहीँ सरीर ।
कहैं कबीर कस राषिहो । जस काचे बासन नीर ।

वह बंधन से बाँधिया । एक बिचारा जीव ।
की बल छूटे आपने । किया छुडावै पीव ।

जिव मति मारहु बापुरा । सबका एकै प्रान ।
हत्या कबहुँ न छूटि है । जो कोटिन सुनो पुरान ।

जीव घात न कीजिये । बहुरि लेत वह कान ।
तीरथ गये न बांचिहो । कोटि हीरा देव दान ।

तीरथ गये तीन जना । चित चंचल मन चोर ।
एको पाप न काटिया । लादिन दस मन और ।

तीर्थ गये ते वहि मुए । जूडे पानी नहाए ।
कहैं कबीर सुनो हो संतो । राक्षस होय पछिताय ।

तीर्थ भई बिस बेलरी । रही जुगन जुग छाए ।
कबिरन मूल निकंदिया । कौन हलाहल षाए ।

हे गुनवंती बेलरी । तव गुन बरनि न जाए ।
जर काटे ते हरियरी । सीचे ते कुम्हिलाय ।

बेल कुढंगी फल बुरो । फुलवा कुबुधि बसाए ।
वो विनस्टी तू मरी । सरोपात करुवाए ।

पानी ते अति पातला धूआं ते अति झीन ।
पवनहु ते उतावला दोस्त कबीरा कीन्ह ।

सतगुरु वचन सुनो हो संतो । मत लीजे सिर भार ।
हौं हजूर ठाढ कहत हों । अब तैं समर संभार ।

वो करुवाई बेलरी । औ करुवा फल तोर ।
सिंधु नाम जब पाइये । बेलि बिछोहा होर ।

सिद्ध भया तो क्या भया । चहुँ दिस फूटी बास ।
अंतर वाके बीज है । फिर जामन की आस ।

परदे पानी ढारिया । संतो करो बिचार ।
सरमा सरमी पचि मुआ । काल घसीटन हार ।

आस्तिक हों तो कोई न पतीजै । बिना अस्तिका सिद्ध ।
कहैं कबीर सुनो हो संतो । हिरहि हीरी बिद्ध ।

सोना सज्जन साधुजन । टूटि जुटहिं सौ बार ।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार का । एकै धका दरार ।

जिन समझा सब ठौर


लोग भरोसे कवन के बैठ रहे अरगाए ।
ऐसे जियरा जम लुटै जस मेंडहि लुटै कमाए ।

समुझि बूझि जड हो रहै बल तजि निर्बल होए ।
कहैं कबीर ता संग को पला न पकडे कोए ।

हीरा सोइ सराहियो । सहै घनन की चोट ।
कपट कुरंगी मानवा । परषत निकरा षोट ।

हरि हीरा जन जौहरी । सबन पसारी हाट ।
जब आवे मन जौहरी । तब हीरों की साट ।

हीरा तहाँ न षोलिये । जहँ कुँजरों की हाट ।
सहजहिं गांठी बांधिये । लगिये अपनी बाट ।

हीरा परा बजार में । रहा छार लपटाय ।
बहुतक मूरष पचि मुये । कोइ पारषी लिया उठाय ।

हीरा की ओवरि नहीं । मलयागिर नहिं पांत ।
सिंहों के लेहँडा नहीं । साधु न चलैं जमात ।

अपने अपने सिरों का । सबन कीन्ह है मान ।
हरि की बात दुरंतरी । परी न काहू जान ।

हाड जरै जस लाकडी । बार जरै जस घास ।
कबिरा जरै राम रस । जस काठि न जरै कपास ।

घाट भुलान बाट बिनु । भेस भुलाना कान ।
जाको माडी जगत में । सो न परा पहिचान ।

मूरष से क्या बोलिये । सठ से कहा बसाय ।
पाहन में क्यों मारिये । चोषा तीर नसाए ।

जैसी गोली गुमज की । नीच परे ढहराय ।
तैसे हृदया मूर्ष का । सब्द नहीं ठहराय ।

ऊपर की दोऊ गई । हियहु की गई हेराए ।
कहैं कबीर जाकी चारों गई । ताको कौन उपाए ?

केते दिन ऐसे गया । अनरूचे का नेह ।
ऊसर बोय न ऊपजै । जो घन बरसै मेह ।

मैं रोवों यह जगत को । मोको रोवै न कोए ।
मोको रोवै सो जना । जो सब्द विवेकी होए ।

साहेब साहेब सब कहैं । मोहि अंदेसा और ।
साहेब से परिचय नहीं । बैठेंगे केहि ठौर ।

जीव बिना जीव ना जीय । जीव का जीव आधार ।
जीव दया करि पालिये पंडित करहु बिचार ।

हम तो सबही की कही । मोको कोइ न जान ।
तब भी अच्छा अब भी अच्छा । जुगजुग होउँ न आन ।

प्रगट कहौं तो मारिया । परदे लषै न कोय ।
सुनहा छिपा पयार तर । को कहि बैरी होए ।

देस विदेसै हौं फिरा । मनही भरा सुकाल ।
जाको ढूँढत हौं फिरा । ताको परा दुकाल ।

कलि षोटा जग आंधरा । सब्द न मानै कोय ।
जाहि कहौं हित आपना । सो उठि बैरी होय ।

मसि कागद छूवों नहीं । कलम गहों नहिं हाथ ।
चारिउ जुग के महात्मा । कबीर मुष ही जनाई बात ।

फहम आगे फहम पाछे । फहम दहिने डेरी ।
फहम पर जो फहम करै । सो फहम है मेरी ।

हद चले सों मानवा । बेहद चलै सो साध ।
हद बेहद दोऊ तजै । ताकर मता अगाध ।

समुझे की गति एक है । जिन समझा सब ठौर ।
कहैं कबीर ये बीच के । बलकहिं औरहि और ।

राह बिचारी क्या करै । पंथि न चलै बिचार ।
अपना मारग छोड के । फिरै उजार उजार ।

मूवा है मरि जाहुगे । मुये की बाजी ढोल ।
स्वप्न सनेही जग भया । सहिदानी रहिगौ बोल ।

WELCOME

मेरी फ़ोटो
Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।