कबीर
साहब बोले - इस मनुष्य को कौवे की चाल, स्वभाव (जो साधारण मनुष्य की होती है) आदि दुर्गुणों को त्यागकर हंस स्वभाव को अपनाना चाहिये । सदगुरू के शब्द
उपदेश को ग्रहण कर मन, वचन, वाणी,
कर्म से सदाचार आदि सदगुणों से हंस के समान होना चाहिये ।
धर्मदास, जीवित रहते हुये यह मृतक स्वभाव का अनुपम ज्ञान तुम ध्यान से सुनो । इसे
ग्रहण करके ही कोई बिरला मनुष्य जीव ही परमात्मा की कृपा को प्राप्त कर साधना
मार्ग पर चल सकता है । तुम मुझसे उस मृतक भाव का गहन रहस्य सुनो ।
शिष्य
मृतक भाव होकर सत्यज्ञान का उपदेश करने वाले सदगुरू के श्रीचरणों की पूरे भाव से
सेवा करे । मृतक भाव को प्राप्त होने वाला कल्याण की इच्छा रखने वाला जिज्ञासु
अपने ह्रदय में क्षमा, दया, प्रेम आदि गुणों को
अच्छी प्रकार से ग्रहण करे, और जीवन में इन गुणों के व्रत
नियम का निर्वाह करते हुये स्वयं को संसार के इस आवागमन के चक्र से मुक्त करे ।
जैसे
प्रथ्वी को तोङा, खोदा जाने पर भी वह विचलित नहीं होती, क्रोधित नहीं होती ।
बल्कि
और अधिक फ़ल, फ़ूल, अन्न आदि प्रदान
करती है । अपने अपने स्वभाव के अनुसार कोई मनुष्य चन्दन के समान प्रथ्वी पर फ़ूल,
फ़ुलवारी आदि लगाता हुआ सुन्दर बनाता है तो कोई विष्ठा, मल आदि डालकर गन्दा करता है । कोई कोई उस पर कृषि, खेती
आदि करने के लिये जुताई खुदाई आदि करता है ।
लेकिन
प्रथ्वी उससे कभी विचलित न होकर शांत भाव से सभी दुख सहन करती हुयी सभी के गुण
अवगुण को समान मानती है, और इस तरह के कष्ट को और अच्छा मानते हुये
अच्छी फ़सल आदि देती है ।
धर्मदास, अब और भी मृतक भाव सुनो, ये अत्यन्त दुरूह कठिन बात
है । मृतक भाव में स्थित संत गन्ने की भांति होता है । जैसे किसान गन्ने को पहले
काट, छाँटकर खेत में बोकर उगाता है । फ़िर नये सिरे से पैदा
हुआ गन्ना किसान के हाथ में पङकर पोरी पोरी से छिलकर स्वयं को कटवाता है, ऐसे ही मृतक भाव का संत सभी दुख सहन करता है ।
फ़िर
वह कटा छिला हुआ गन्ना अपने आपको कोल्हू में पिरवाता है । जिसमें वह पूरी तरह से
कुचल दिया जाता है, और फ़िर उसमें से सारा रस निकल जाने के बाद
उसका शेष भाग खो बन जाता है । फ़िर आप स्वरूप उस रस को कङाहे में उबाला जाता है । उसके
अपने शरीर के रस को आग पर तपाने से गुङ बनता है, और फ़िर उसे
और अधिक आँच देकर तपा तपाकर रगङ रगङ कर खांड बनायी जाती है । खांड बन जाने पर फ़िर
से उसमें ताप दिया जाता है, और फ़िर तब उसमें से जो दाना
बनता है, उसे चीनी कहते हैं । चीनी हो जाने पर फ़िर से उसे
तपाकर कष्ट देकर मिश्री बनाते हैं ।
धर्मदास, मिश्री से पककर ‘कंद’ कहलाया तो सबके मन को अच्छा लगा । इस विधि से गन्ने
की भांति जो शिष्य गुरू की आज्ञा अनुसार आचरण व्यवहार करता हुआ सभी प्रकार के कष्ट
दुख सहन करता है । वह सदगुरू की कृपा से सहज ही भवसागर को पार कर लेता है ।
धर्मदास, जीवित रहते हुये मृतक भाव अपनाना बेहद कठिन है, इसे
लाखों करोङों में कोई सूरमा संत ही अपना पाता है । जबकि इसे सुनकर ही सांसारिक
विषय विकारों में डूबा कायर व्यक्ति तो भय के मारे तन-मन से जलने लगता है । स्वीकारना
अपनाना तो बहुत दूर की बात है, और वह डर के मारे भागा हुआ इस
ओर (भक्ति की तरफ़) मुङकर भी नहीं
देखता ।
जैसे
गन्ना सभी प्रकार के दुख सहन करता है । ठीक ऐसे ही शरण में आया हुआ शिष्य गुरू की
कसौटी पर दुख सहन करता हुआ सबको संवारे और सदा सबको सुख प्रदान करने वाले सर्वहित के
कार्य करे ।
वह
मृतक भाव को प्राप्त गुरू के ज्ञान भेद को जानने वाला मर्मज्ञ साधक शिष्य निश्चय
ही सत्यलोक को जाता है । वह साधु सांसारिक कलेशों और निज मन इन्द्रियों के विषय
विकारों को समाप्त कर देता है । ऐसी उत्तम वैराग्य स्थिति को प्राप्त अविचल साधु
से सामान्य मनुष्य तो क्या देवता तक अपने कल्याण की आशा करते हैं ।
धर्मदास, साधु का मार्ग बहुत ही कठिन है । जो साधुता की उत्तम सत्यता, पवित्रता, निष्काम भाव में स्थित होकर साधना करता है, वही सच्चा साधु है । वही सच्चे अर्थों में साधु है । जो अपनी पाँचों इन्द्रियों आँख, कान, नाक,
जीभ, कामेंद्री को वश में रखता है, और सदगुरू द्वारा दिये सत्यनाम अमृत के दिन रात चखता है ।
2 टिप्पणियां:
JAY GURU DEV
Muje NURAT SURAT KI SADHANA SHIKHANI HE KYA AAP MUJE YE SADHNA SHIKHAYENGE.
I AM FROM SURAT CITY 9275018293
SURESH
JAY GURU DEV
Muje NURAT SURAT KI SADHANA SHIKHANI HE KYA AAP MUJE YE SADHNA SHIKHAYENGE.
I AM FROM SURAT CITY 9275018293
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