सदा अस्ति भासे निज भास, सोई कहिये परम प्रकाश ।
परम प्रकाश ले झांईं होय, महद अकाश होय बरते सोय ।
बरते बर्त मान परचंड, भासक तुरीयातीत अखंड ।
काल संधि होये उश्वास, आगे पीछे अनवनि भास ।
विविध भावना कल्पित रूप, परकाशी सो साक्षि अनूप ।
शून्य अज्ञान सुषुप्ति होय, अकुलाहट ते नादै सोय ।
(शून्य ज्ञान सुषुप्ति होय,
अकुलाहट ते नादी सोय)
नाद वेद अकर्षण जान, तेज नीर प्रगटे तेहि आन
।
पानी पवन गांठि परि जाय, देही देह धरे जग आय ।
सो कौआर शब्द परचंड, बहु व्यवहार खंड
ब्रह्मंड ।
जतन भये निज अर्थ को, जेहि छूटे दुख भूरि ।
धूरि परी जब आँख में, सूझे किमि निज मूर । 23
पांजी परख जबै फ़रि आवै, तुरतहि सबै विकार नसावै
।
शब्द सुधार के रहे अकरम, स्वाति भक्ति के खोटे
भरम ।
काल जाल जो लखि नहि आवै, तौलौ निज पद नहीं पावै ।
झाईं सन्धि काल पहिचान, सार शब्द बिन गुरु नहि
जान ।
परखे रूप अवस्था जाए, आन विचार न ताहि समाए ।
झांईं सन्धि शब्द ले परखे जोय, संशय वाके रहि न कोय ।
धन्य धन्य तरण तरण, जिन परखा संसार ।
बन्दीछोर कबीर सों, परगट गुरु विचार । 24
शब्द सन्धि ले ज्ञानी मूढ़, देह करम जगत आरूढ़ ।
नाद संधि लै सपना होय, झांई शून्य सुषोपित सोय
।
ज्ञान प्रकाशक साक्षी संधि, तुरीयातीत अभास अवंधि ।
झांई ले वरते वर्तमान, सो जो तहाँ परे पहिचान ।
काल अस्थिति के भास नसाए, परख प्रकाश लक्ष बिलगाए
।
बिलगै लक्ष अपन पौ जान, आपु अपन पौ भेद न आन ।
आप अपुन पौ भेद बिनु, उलटि पलटि अरुझाय ।
गुरु बिन मिटे न दुगदुगी, अनवनि यतन नसाय । 25
निज प्रकाश झांई जो जान, महा संधि माकाश बखान ।
सोई पांजी ल बुद्धि विशेष, प्रकाशक तुरीयातीत अरु
शेष ।
विविध भावना बुद्धि अनुरूप, विद्या माया सोई स्वरूप
।
सो संकल्प बसे जिव आप, फ़ुरी अविद्या बहु संताप
।
त्रीगुण पाँच तत्व विस्तार, तीन लोक तेहि के मंझार ।
अदबुद कला बरनि नहि जाई, उपजे खपे तेहि माहि समाई
।
निज झांई जो जानी जाए, सोच मोह सन्देह नसाए ।
अनजाने को ऐही रीत, नाना भांति करे परतीत ।
सकल जगत जाल अरुझान, बिरला और कियो अनुमान ।
कर्ता ब्रह्म भजे दुख जाये, कोई आपै आप कहाये ।
पूरण सम्भव दूसर नाहि, बंधन मोक्ष न एको आहि ।
फ़ल आश्रित स्वर्गहि के भोग, कर्म सुकर्म लहै संयोग ।
करम हीन वाना भगवान, सूत कुसूत लियो पहिचान ।
भांतिन भांतिन पहिरे चीर, युग युग नाचे दास कबीर ।
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1 टिप्पणी:
बढ़िया जानकारी ।
आभार।
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