आगि जो लगी समुद्र में । टूटि टूटि षसे झोल ।
रोवै कबिरा डांफिया । मोर हीरा जरै अमोला ।
छौ दर्सन में जो परमाना । तासु नाम बनवारी ।
कहैं कबीर सब षलक सयाना । यामें हमहि अनारी ।
सांचै स्राप न लागै । सांचे काल न षाए ।
सांचहि साँचा जो चलै । ताको काह नसाए ।
पूरा साहेब सेइये । सब बिधि पूरा होए ।
वोछहि नेह लगाय के । मूलहु आयो षोए ।
जाहु बैद घर आपने । बात न पूछै कोए ।
जिन्ह यह भार लदाइया । निरवाहेगा सोए ।
औरन के सिषलावते । मोहडन पर गई रेत ।
रास बिरानी राषते । षाइनि घर का षेत ।
मैं चितवत हौं तोहि कौ । तू चितवत है वोहि ।
कहैं कबीर कैसे बनै । मोहिं तोहिं औ ओहि ।
ताकत तब तक तकि रहा । सको न बेझामार ।
सबै तीर षाली परै । चला कमानहिं डार ।
जस कथनी तस करनी । जस चुंबक तस ग्यान ।
कहैं कबीर चुंबक बिना । को जीते संग्राम ।
अपनी कहै मेरी सुनै । सुनि मिलि एकै होए ।
हमरे देषत जग गया । ऐसा मिला न कोए ।
देस विदेसै हौं फिरा । गाँव गाँव की षोर ।
ऐसा जियरा ना मिला । लेवें फटकि पछोर ।
मैं चितवत हौं तोहि को । तू चितवत कछु और ।
लानत ऐसे चित्त की । एक चित्त दुइ ठौर ।
चुंबक लोहे प्रीति है । लोहे लेत उठाए ।
ऐसा सब्द कबीर का । काल से लेहि छुडाए ।
भूला तो भूला, बहुरि के चेतना
।
बिस्मय की छुरी, संसय को रेतना ।
दोहरा कथित है कबीर, प्रतिदिन समय जो देषि ।
मुये गये नहिं बाहुरे, बहुरि न आये फेरि ।
गुरु बिचारा क्या करै सिष्यहि माहै चूक ।
भावै त्यों परमोधिये बांस बजावै फूक ।
दादा भाई बाप कै लेषो चरनन होइ हौ बंदा ।
अबकी पुरिया जो निरुवारे सो जन सदा अनंदा ।
सबसे लघुताई भली लघुता से सब होए ।
जस दुतिया को चन्द्रमा सीस नावै सब कोए ।
मरते मरते जग मुआ मरन न जाना कोय ।
ऐसा होके ना मुआ बहुरि न मरना होय ।
मरते मरते जग मुआ बहुरि न किया बिचार ।
एक सयानी आपनी परबस मुआ संसार ।
सब्द अहै गाहक नहीं वस्तुहि महँगे मोल ।
बिना दाम सो काम न आवै फिरै सो डामाडोल ।
गृही तजि के भये जोगी जोगी के गृह नाहि ।
बिना बिबेक भटकत फिरे पकरि सब्द की छाहिं ।
सिंह अकेला बन रमै पलक पलक करे दौर ।
जैसा बन है आपना वैसा बन है और ।
पैठा है घट भीतरे बैठा है साचेत ।
जब जैसी गति चाहै तब तैसी मति देत ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें