॥अक्षर
खण्ड रमैनी॥
प्रथम शब्द है शून्याकार, परा अव्यक्त सो कहै
विचार ।
अंतःकरण उदय जब होय, पश्यन्ति अर्धमात्रा सोय
।
स्वर सो कंठ मध्यमा जान, चौंतिस अक्षर मुख स्थान
।
अनवनि बानी तेहि के माहि, बिन जाने नर भटका खाहिं
।
बानी अक्षर स्वर समुदाय, अर्ध पश्यन्ति जात नसाय
।
शुन्याकार सो प्रथमा रहै, अक्षर ब्रह्म सनातन कहै
।
निवृति प्रवृति है शब्दाकार, प्रणव जाने इहे विचार ।
अंकुलाहट के शब्द जो, भई चार सो भेष ।
बहुबानी बहुरूप के, प्रथक प्रथक सब देश । 1
अनवनि बानी चार प्रकार, काल संधि झांई औ सार ।
हेतु शब्द बूझिये जोय, जानिय यथारथ द्वारा सोय
।
भ्रमिक झांई संधिक औ काल, सार शब्द काटे भ्रम जाल
।
द्वारा चार अर्थ परमान, पदारथ व्यंगाथ पहिचान ।
भावार्थ ध्वन्यार्थ चार, द्वारा शब्द कोई लखे
विचार ।
परा पराइति मुख सो जान, मोरे सोरह कला निदान ।
बिन जानै सोरह कला, शब्द ही शब्द कौ आय ।
शब्द सुधार पहिचानिये, कौन कहा वौ आय । 2
अक्षर वेद पुराण बखान, धरम करम तीरथ अनुमान ।
अक्षर पूजा सेवा जाप, और महातम जेते थाप ।
यही कहावत अक्षर काल, जाए गडी उर होय के भाल ।
ओंऽहं सोंऽहं आतमराम, माया मन्त्रादिक सब काम
।
ये सब अक्षर संधि कहै, जेहि मा निसवासर जिव रहै
।
निर्गुण अलख अकह निर्वाण, मन बुद्धि इन्द्री जाय न
जान ।
विधि निषेध जहँ बनिता दोय, कहैं कबीर पद झांईं सोय
।
प्रथमे झांईं झांकते, पैठा संधिक काल ।
पुनि झांईं की झांईं रही, गुरु बिन सके को टाल । 3
प्रथम ही संभव शब्द अमान, शब्द ही शब्द कियो
अनुमान ।
मान महातम मान भुलान, मानत मानत बाबन ठान ।
फ़ेरा फ़िरत भयो भ्रमजाल, देहादिक जग भये विशाल ।
देह भई ते देहिक होय, जगत भई ते कर्ता कोय ।
कर्ता कारण कर्महि लाग, घर घर लोग कियो अनुराग ।
छौ दरशन वर्णश्रम चार, नौ छौ भये पाखंड बेकार ।
कोई त्यागी अनुरागी कोय, विधि निषेध मा बधिया दोय
।
कल्पेउ ग्रन्थ पुराण अनेक, भरमि रहै सब बिना विवेक
।
भरमि रहा सब शब्द में, सब्दी शब्द न जान ।
गुरु कृपा निज पर्ख बल, परखो धोखा ज्ञान । 4
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