धोखा प्रथम परखिये भाई, नाम जाति कुल कर्म बङाई
।
क्षिति जल पावक मरुत अकाश, ता महं पंच विषय परकाश ।
तत्व पांच में श्वासा सार, प्राण अपान समान उदार ।
और व्यान बाबन संचार, निजनिज थल निज कारज कार
।
इंगला पिंगला औ सुखमनी, इकइस सहस छौ सत सो गनी ।
निगम अगम औ सदा बतावे, श्वासा सार सरोदा गावे ।
धोखा अंधेरी पाय के, या विधि भया शरीर ।
कल्पेउ कारता एक पुनि, बढी कर्म की पीर । 5
योग्य जप तप ध्यान अलेख, तीरथ फ़िरत धरे बहु भेख ।
योगी जंगम सिद्ध उदास, घर को त्यागि फ़िरे बनबास
।
कन्दमूल फ़ल करत अहार, कोइ कोई जटा धरे शिर भार
।
मन मलीन मुख लाये धूर, आगे पीछे अग्नि औ सूर ।
नग्न होय नर खोरि न फ़िरे, पीतर पाथर में शिर धरे ।
काल शब्द के सोर ते, होर परी संसार ।
देखा देखी भागिया, कोई न करे विचार । 6
जब पुनि आय खसी यह बानि । तब पुनि चित्त
मा कियो अनुमान ।
महीं ब्रह्म कर्ता जग केर, परे सो जाल जगत के फ़ेर ।
पांच तीन गुण जग उपजाया, सो माया मैं ब्रह्म
निकाया ।
उपजे खपे जग विस्तारा, मैं साक्षी सब जाननिहारा
।
मो कह जानि सके नहि कोय, जौ पै विधि हरि शंकर होय
।
अस सन्धिक की परी बिकार, बिनु गुरु कृपा न होय
उवार ।
मग्न ब्रह्म सन्धिक के ज्ञान, अस जानि अब भया भ्रम हान
।
संधि शब्द है भर्म मो, भूलि रहा कित लोग ।
परखेउ धोखा भेव नहि, अन्त होत बङ सोग । 7
जो कोई संधिक धोखा जान, सो पुनि उलटि कियो
अनुमान ।
मन बुद्धि इन्द्रिय जाय न जान, निरबचनी सो सदा अमान ।
अकल अनीह अबाध अभेद, नेति नेति कै गावे बेद ।
सोऽहं वृत्ति अखंडित रहै, एक दोय अब को तहाँ कहै ।
जानि परी तब नित्याकार, झांईं सो भ्रम महा बेकार
।
संभव शब्द अमान जो, झांई प्रथम बेकार ।
परखेउ धोखा भेव निज, गुरु की दया उवार । 8
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