पण्डित और मशालची, दोनों सूझे नाहिं।
औरन करें चाँदना, आप अँधेरे माँहि।
करनी तज कथनी कथें, अज्ञानी दिन रात ।
कूकर ज्यों भूँकत फ़िरे, सुनी सुनाई बात।
कथनी के शूरे घने, कथे अडम्बर ज्ञान।
बाहर जवाब आवे नहीं, लीद करें मैदान।
चण्डाली के चौक में, सतगुरू बैठे जाये।
चौंसठ लाख गारत गये, दो रहे सतगुरू पाये।
भङवा भङवा सब कहें, जानत नाहीं खोज।
गरीब कबीर करम से, बाँटत सर का बोझ।
नाम बिना सूना नगर, पङया सकल में शोर।
लूट न लूटी बन्दगी, हो गया हँसा भोर।
अदली आरती अदल अजूनी, नाम बिना सब काया सूनी।
झूठी काया खाल लुहारा, इङा पिंगला सुषमना द्वारा।
कृतघ्नी भूले नर लोई, जा घट निश्चय नाम न होई।
सो नर कीट पतंग भुजंगा, चौरासी में धर है अंगा।
न जाने ये काल की कर डारे, किस विधि हल जा पासा वे।
जिन्हा दे सिर ते मौत खुङगदी, उन्हानूँ केङा हाँसा वे।
साधु मिले साडी शादी (खुशी) होंदी, बिछङ दा दिल गिरि (दुख) वै।
अखदे नानक सुनो जिहाना, मुश्किल हाल फ़कीरी वे।
बिनु उपदेश अचम्भ है, क्यों जीवत है प्राण।
बिनु भक्ति कहाँ ठौर है, नर नहीं पाषाण।
एक हरि के नाम बिनु, नारि कुतिया हो।
गली गली भौंकत फ़िरे, टूक न डारे कोय।
बीबी परदे रही थी, डयौङी लगती बार।
गात उघारे फ़िरती है, बन कुतिया बाजार।
नकबेसर नक से बनी, पहनत हार हमेल।
सुन्दरी से सुनही (कुतिया) बनी, सुन साहब के खेल।
राजा जनक से नाम ले, कीन्ही हरि की सेव।
कह कबीर बैकुण्ठ में, उलट मिले शुकदेव।
सतगुरू के उपदेश का, लाया एक विचार।
जो सतगुरू मिलते नहीं, जाता नरक द्वार।
नरक द्वार में दूत सब, करते खैंचातान।
उनते कबहूँ न छूटता, फ़िर फ़िरता चारों खान।
चार खान में भरमता, कबहूँ न लगता पार।
सो फ़ेरा सब मिट गया, सतगुरू के उपकार।
गुरू बङे गोविन्द से, मन में देख विचार।
हरि सुमरे सो रह गये, गुरू भजे हुये पार।
गंगा काठे घर करे, पीवे निर्मल नीर।
मुक्ति नहीं हरि नाम बिन, सतगुरू कहें कबीर।
तीरथ कर कर जग मुआ, उङे पानी नहाय।
राम नाम ना जपा, काल घसीटे जाय।
पीतल का ही थाल है, पीतल का लोटा।
जङ मूरत को पूजते, फ़िर आवेगा टोटा।
पीतल चमचा पूजिये, जो थाल परोसे।
जङ मूरत किस काम की, मत रहो भरोसे।
भूत रमे सो भूत है, देव रमे सो देव।
राम रमे सो राम है, सुनो सकल सुर मेव।
कबीर इस संसार को, समझाऊँ कै बार।
पूँछ जो पकङे भेङ की, उतरा चाहे पार।
गुरू बिनु यज्ञ हवन जो करहीं।
मिथ्या जाय कबहूँ न फ़लहीं।
माई मसानी शेर शीतला, भैरव भूत हनुमन्त।
परमात्मा उनसे दूर है, जो इनको पूजन्त।
सौ वर्ष तो गुरू की सेवा, एक दिन आन उपासी।
वो अपराधी आत्मा, परे काल की फ़ाँसी।
गुरू को तजै, भजै जो आना।
ता पशुवा को, फ़ोकट ज्ञाना।
देवी देव ठाङे भये, हमको ठौर बताओ।
जो मुझको पूजे नहीं, उनको लूटो खाओ।
काल जो पीसे पीसना, जोरा है पनिहार।
ये दो असल मजूर हैं, सतगुरू के दरबार।
साथी हमारे चले गये, हम भी चालनहार।
कोए कागज में बाकी रही, ताते लागी वार।
देह पङी तो क्या हुआ, झूठा सभी पटीट।
पक्षी उङया आकाश कूँ, चलता कर गया बीट।
बेटा जाया खुशी हुयी, बहुत बजाये थाल।
आना जाना लग रहा, ज्यों कीङी का नाल।
पतझङ आवत देखकर, वन रोवे मन माँहि।
ऊँची डाली पात थे, अब पीले हो जाँहि।
पात झङता यूँ कहे, सुन भई तरुवर राय।
अबके बिछुङे नहीं मिला, कहाँ गिरूँगा जाय।
तरुवर कहता पात से, सुनो पात एक बात।
यहाँ की यही रीत है, एक आवत एक जात।
पर द्वारा स्त्री का खोले, सत्तर जन्म अँधा हो डोले।
सुरापान मध माँसाहारी, गबन करें भोगे परनारी।
सत्तर जन्म कटत हैं शीश, साक्षी साहब हैं जगदीश।
परनारी न परसियो, मानो वचन हमार।
भवन चर्तुदश तासु सिर, त्रिलोकी का भार।
परनारी न परसियो, सुनो शब्द सलतंत।
धर्मराय के खम्ब से, अर्ध मुखी लटकंत।
गुरू की निन्दा, सुने जो काना।
ताको निश्चय, नरक निदाना।
अपने मुख जो निन्दा करहीं।
शूकर श्वान गर्भ में परहीं।
सन्त मिलन को जाईये, दिन में कई कई बार।
आसोजा का मेह ज्यों, घना करे उपकार।
कबीर दर्शन साधु का, साहिब आवे याद।
लेखे में वो ही घङी, बाकी के दिन बाद।
कबीर दर्शन साधु का, मुख पर बसे सुहाग।
दर्श उन्हीं को होत हैं, जिनके पूरन भाग।
इच्छा कर मारे नहीं, बिन इच्छा मर जाये।
कह कबीर तास का, पाप नहीं लगाये।
गुरू द्रोही की पेड पर, जो पग आवे वीर।
चौरासी निश्चय पङे, सतगुरू कहें कबीर।
जान बूझ सांची तजे, करें झूठ से नेह।
जाकी संगत हे प्रभु, सपने में ना देय।
माँस भखे और मद पिये, धन वैश्या सों खायें।
जुआ खेल चोरी करे, अन्त समूला जाय।
यह अर्ज गुफ़तम पेश तो, दर कून करतार।
हक्का कबीर करीम तू, बे एव परवर दिगार।
(श्री गुरूग्रन्थ साहिब, पृष्ठ 721 महला 1 राग तिलंग)
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