शब्द 75
ऐसो भर्म बिगुरचनि भारी ।
बेद किताब दीन औ दोजष को पुरुषा को नारी ।
माटी का घट साज बनाया नादे बिन्दु समाना ।
घट बिनसे क्या नाम धरोगे अहमक षोज भुलाना ।
एकै त्वचा हाड मल मूत्रा एक रुधिर एक गूदा ।
एक बूंद से सृष्ठि रचो है ब्राह्मन को सूदा ।
रजोगुन ब्रह्मा तमोगुन संकर सतोगुनी हरि होई ।
कहैं कबीर राम रमि रहिये हिन्दू तुर्क न कोई ।
शब्द 76
अपुनपौ आपही बिसरो ।
जैसे स्वान कांच मंदिर में भ्रमित भूंकि मरो ।
ज्यों केहरि बपु निरषि कूपजल प्रतिमा देषि परो ।
वैसहि मदगज फटिक सिला पर दसनन आनि अरो ।
मर्कट मूठी स्वाद न बिहुरै, घर घर रटत फिरो ।
कहैं कबीर ललनी के सुवना, तोहि कवने पकरो ।
शब्द 77
आपन आस किये बहुतेरा, काहु न मर्म पावल हरि केरा ।
इंद्री कहां करै विस्राम, सो कहँ गये जे कहते राम ।
सो कहँ गये जो होत सयाना, होय मृतक वह पदहि समाना ।
रामानँद राम रस माते, कहैं कबिर हम कहि कहि थाके ।
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