शब्द 78
अब हम जानिया हो, हरिबाजी का षेल ।
डंक बजाय देषाय तमासा, बहुरि कै लेत सकेला ।
हरिबाजी सुर नर मुनि जहंडे, माया चाटक लाया ।
घर में डारि सकल भर्माया, हृदया ग्यान न आया ।
बाजी झूठ बाजीगर साँचा, साधुन की मति ऐसी ।
कहैं कबीर जिन जैसी समुझी, ताकी मति भई तैसी ।
शब्द 79
कहहु हो अम्मर कासो लागा, चेतनहार सो चेतुसुभागा ।
अम्मर मध्यँ दीसै तारा, एक चेतन एक चितावनहारा ।
जो षोजौ सो उहवां नाहीँ, सो तो आहि अमर पद मांहीँ ।
कहैं कबीर पद बूझै सोई, मुष हृदया जाके एक होई ।
शब्द 80
बंदे करले आपु निबेरा ।
आपु जियत लषु आपु ठौर करु, मुये कहां घर तेरा?
यह औसर नहिं चेतिहौ प्रानी, अंत कोई नहिं तेरा ।
कहैं कबीर सुनो हो संतो, कठिन काल का घेरा ।
शब्द 81
रहहु ररा ममा की भांति हो सब संत उधारन चूनरी ।
बालमीक बन बोइया चुनि लीन्ह सुकदेव ।
कर्म बिनोरा होय रहा सुत काते जयदेव ।
तीन लोक ताना तनो ब्रह्मा बिस्नु महेस ।
नाम लेत मुनि हारिया सुरपति सकल नरेस ।
बिस्नु जिभ्या गुन गाइया बिनु बस्ती का देस ।
सुने घर का पाहुना तासो लाइनि हेत ।
चार बेद कैंडा कियो निराकार कियो रास ।
बिनै कबीरा चूनरी मैं नहिं बांधल बारि ।
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