ज्ञान चौंतीसा प्रारभ
ॐकार आदि जो जानै, लिख के मेटे ताहि सो
मानै ।
ॐकार कहता सब कोई, जिन यह लखा सो बिरले होई
॥
कका कमल किरन में पावै, ससि विगसित संपुटनहिं
आवै ।
तहाँ कुसुम रंग जो पावै, औ गह गहि के गगन रहावै ॥
खखा चाहैं खोरि मनावै, खसमहि छोङ दोजख को धावै
।
खसमहि छाङि क्षमा हो रहई, होय न खिन्न अखै पद लहई
॥
गगा गुरू के वचनहि मान, दूसर शब्द करो नहिं कान
।
तहाँ विहंगम कबहुँ न जाय, औगह गहि के गगन रहाय ॥
घघा घट बिनसे घट होई, घट ही में घट राखु समोई
।
जो घट घटै घट ही फ़िरि आवै, घट ही में फ़िरि घटहि
समावै ॥
ङङा निरखत निसिदिन जाई, निरखत नैन रहे रट लाई ।
निमिख एक जो निरखै पावै, ताहि निमिख में नैन
छिपावै ॥
चचा चित्र रच्यो बङ भारी, चित्रहि छांङि चेतु
चित्रकारी ॥
जिन्ह यह चित्र विचित्र उखेला, चित्र छांङि तै चेतु
चितेला ॥
छछा आहि छत्रपति पासा, छकि क्यों न रहेउ मेटि
सब आसा ।
मैं तोही छिन छिन समुझावा, खसमहि छांङि कस आपु
बंधावा ॥
जजा ई तन जियतै जरो, जोबन जारि जुक्ति तन परो
।
जो कछु जुक्ति जानि तन जरै, घटहि ज्योति उजियारी करै
॥
झझा अरुझ सरुझि कित जाना, अरुझिन हीठत जाय पराना ।
कोटि सुमेरु ढ़ूँढ़ फ़िरि आवै, जो गढ़ गढ़े गढ़ै सो पावै ॥
ञञा निरखत नगर सनेहू, करु आपन निरुआर सन्देहू
।
(नहीं देखि नहिं आजिया, परम
सयानप देहू)
जहाँ न देखि तहँ भजाऊ, जहाँ नहीं तहँ तन मन लाऊ
।
(जहाँ नहीं तहाँ सब कुछ जानी, जहाँ है तहाँ लेउ पहिचानी)
टठा विकट बात मन माहीं, खोलि कपाट महल में जाहीं
।
रहे लटापट जुटि तेहि माहीं, होहिं अटल तब कतहुँ न
जाहीं ॥
ठठा ठौर दूरि ठग नियरे, नित के निठुर कीन्ह मन
धीरे ।
जे ठग ठगे सब लोग सयाना, सो ठग चीन्ह ठौर पहिचाना
॥
डडा डर उपजै डर होई, डर ही में डर राखु समोई
।
जो डर डरै डरहि फ़िर आवै, डर ही में फ़िर डरहि
समावै ॥
ढ़ढ़ा हीङत ही कित जाना, हीढत ढ़ूंढ़त जाय पराना । (हीङत-खोज)
कोटि सुमेरु ढ़ूंढ़ि फ़िर आवै, जेहि ढ़ूंढ़ा सो कतहुँ न
पावै ॥
णणा दुइ बसाये गाँउ, रे णणा ढ़ूंढ़े तेरा नाऊँ
।
(णणा दूर बसाये गाँउ, रे
णणा टुटै तेरा नाऊँ)
मुए एक जाय तजि घना, मरे इत्यादिक केते गना ॥
तता अति त्रियो नहिं जाए, तन त्रिभुवन में राखु
छिपाए ।
जो तन त्रिभुवन मांहि छिपावै, तत्वहि मिलि सो तत्व जो
पावै ॥
थथा अथाहु थहो नहिं जाई, ई थिर ऊ थिर नाहिं रहाई
।
थोरै थोरै थिर हो भाई, बिन थंभे जस मन्दिर जाई
॥
ददा देखौ विनशन हारा, जस देखौ तस करौ विचारा ।
दशौ द्वार में तारी लावै, तब दयाल को दर्शन पावै ॥
धधा अर्ध मांहि अंधियारी, जस देखै तस करै विचारी ।
अधो छोङि ऊरध मन लावै, आपा मेटि कै प्रेम बढ़ावै
॥
नना वो चौथे में जाई, राम का गदहा ह्वै खर खाई
।
नाह छोङि किय नरक बसेरा, अजौं मूढ़ चित चेतु सबेरा
॥
पपा पाप करै सब कोई, पाप के धरे धर्म नहिं
होई ।
पपा कहै सुनौ रे भाई, हमरे से ये कछू न पाई ॥
फ़फ़ा फ़ल लागो बङ दूरी, चाखै सतगुरु देव न तूरी
।
फ़फ़ा कहै सुनौ रे भाई, स्वर्ग पताल कि खबरि न
पाई ॥
बबा बर बर कर सब कोई, बर बर किये काज नहिं होई
।
बबा बात कहै अर्थाई, फ़ल का मर्म न जानेहु भाई
॥
भभा भर्म रहा भरिपूरी,
भभरे ते है नियरे दूरी ।
भभा कहै सुनौ रे भाई, भभरे आवै भभरे जाई ॥
ममा सेये मर्म न पाई, हमरे ते इन मूल गवांई ।
ममा मूल गहल मन माना, मर्मी होहि सो मर्महि
जाना ॥
यया जगत रहा भरिपूरी, जगतहु ते यया है दूरी ।
यया कहै सुनौ रे भाई, हमरे सेये जै जै पाई ॥
ररा रारि रहा अरुझाई, राम कहै दुख दारिद जाई ।
ररा कहै सुनौ रे भाई, सतगुरु पूछि कै सेवहु
जाई ॥
लला तुतरे बात जनाई, तुतर पावै परचै पाई ।
अपना तुतुर और को कहई, एकै खेत दुनौ निरबहई ॥
ववा वह वह कह सब कोई, वह वह कहे काज नहि होई ।
ववा कहै सुनहु रे भाई, स्वर्ग पताल की खबरि न
पाई ॥
शशा शरद देखै नहिं कोई, शर शीतलता एकहि होई ।
शशा कहै सुनौ रे भाई, शून्य समान चला जग जाई ॥
षषा षर षर कह सब कोई, षर षर कहे काज नहिं होई
।
षषा कहै सुनहु रे भाई, राम नाम लै जाहु पराई ॥
ससा सरा रचो बरिआई, सर बेधे सब लोग तवाई ।
ससा के घर सुन गुन होई, यतनी बात न जनै कोई ॥
हहा होइ होत नहिं जानै, जबही होइ तबै मन मानै ।
है तो सही लहै सब कोई, जब वा होइ तब या नहिं
होई ॥
क्षक्षा क्षण परलै मिटि जाई, क्षेव परे तब को समुझाई
।
क्षेव परे कौ अंत न पाया, कह कबीर अगमन गोहराया ॥
ज्ञान चौंतीसा समाप्तम
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