गुरुवार, जुलाई 12, 2018

अष्टांगी का ब्रह्मा और पुहुपावती को शाप देना


अष्टांगी को ये जानकर बेहद आश्चर्य हुआ कि ब्रह्मा ने निरंजन के दर्शन पा लिये हैं ।
जबकि अलख निरंजन ने तो ऐसी प्रतिज्ञा कर रखी है कि उसे कोई आँखों से देख नहीं पायेगा । फ़िर ये तीनों लबारी झूठे कपटी कैसे कहते हैं कि उन्होंने निरंजन को देखा है ।

तब उसी क्षण अष्टांगी ने ध्यान किया ।
इस पर निरंजन उसके ध्यान में बोला - मुझे सत्य बताओ ।

निरंजन ने कहा - ब्रह्मा ने मेरा दर्शन नहीं पाया । उसने तुम्हारे पास आकर झूठी गवाही दिलवायी । उन तीनों ने झूठ बनाकर सब कहा है, वह सब मत मानो, वह झूठ है ।

अष्टांगी को यह सुनकर बहुत क्रोध आया ।

उसने ब्रह्मा को शाप दिया - तुमने मुझसे आकर झूठ बोला अतः कोई तुम्हारी पूजा नहीं करेगा । एक तो तुम झूठ बोले, और दूसरे तुमने न करने योग्य कर्म यानी दुष्कर्म करके बहुत बङा पाप अपने सिर ले लिया है । आगे जो भी तुम्हारी शाखा संतति होगी, वह बहुत झूठ और पाप करेगी ।

तुम्हारी संतति (ब्रह्मा के वंश अथवा ब्रह्मा के नाम से पुकारे जाने वाले ब्राह्मण) प्रकट में तो बहुत नियम, धर्म, व्रत, उपवास, पूजा, शुचि आदि करेंगे । परन्तु उनके मन में भीतर पाप मैल का विस्तार रहेगा । तुम्हारी वे संतान विष्णु भक्तों से अहंकार करेंगी, इसलिये नरक को प्राप्त होंगी । तुम्हारे वंश वाले पुराणों की धर्म कथाओं को लोगों को समझायेंगे परन्तु स्वयं उसका आचरण न करके दुख पायेंगे ।

उनसे जो और लोग ज्ञान की बात सुनेंगे । उसके अनुसार वे भक्ति कर सत्य को बतायेंगे । ब्राह्मण परमात्मा का ज्ञान और भक्ति को छोङकर दूसरे देवताओं को ईश्वर का अंश बताकर उनकी भक्ति पूजा करायेंगे, औरों की निंदा करके विकराल काल के मुँह में जायेंगे । अनेक देवी देवताओं की बहुत प्रकार से पूजा करके यजमानों से दक्षिणा लेंगे,
और दक्षिणा के कारण पशुबलि में पशुओं का गला कटवायेंगे, या दक्षिणा के लालच में यजमानों को बेबकूफ़ बनायेंगे ।

फ़िर वे जिसको शिष्य बनायेंगे, उसे भी परमार्थ या कल्याण का रास्ता नहीं दिखायेंगे ।
परमार्थ के तो वे पास भी नहीं जायेंगे, परन्तु स्वार्थ के लिये वे सबको अपनी बात समझायेंगे । वे आप स्वार्थी होकर सबको अपनी स्वार्थ सिद्ध का ज्ञान सुनायेंगे, और संसार में अपनी सेवा पूजा मजबूत करेंगे । अपने आपको ऊँचा और औरों को छोटा कहेंगे । इस प्रकार ब्रह्मा, तेरे वंशज तेरे ही जैसे झूठे और कपटी होंगे ।

अष्टांगी का ऐसा शाप सुनकर ब्रह्मा मूर्छित होकर गिर पङे ।

फ़िर अष्टांगी ने गायत्री को शाप दिया - गायत्री ब्रह्मा के साथ कामभावना से हो जाने से मनुष्य जन्म में तेरे पाँच पति होंगे । तेरे गाय रूपी शरीर में बैल पति होंगे, और वे सात पाँच से भी अधिक होंगे । पशुयोनि में तू गाय बनकर जन्म लेगी, और न खाने योग्य पदार्थ खायेगी । तुमने अपने स्वार्थ के लिये मुझसे झूठ बोला, और झूठे वचन कहे ।
क्या सोचकर तुमने झूठी गवाही दी?

गायत्री ने अपनी गलती मानकर शाप को स्वीकार कर लिया ।

इसके बाद अष्टांगी ने सावित्री की ओर देखा, और बोली - तुमने अपना नाम तो सुन्दर पुहुपावती रखवा लिया । परन्तु झूठ बोलकर तुमने अपने जन्म का नाश कर लिया ।
सुन, तुम्हारे विश्वास पर तुमसे कोई आशा रखकर कोई तुम्हें नहीं पूजेगा । अब दुर्गंध के स्थान पर तुम्हारा वास होगा । कामविषय की आशा लेकर अब नरक की यातना भोगो । जान बूझकर जो तुम्हें सींचकर लगायेगा, उसके वंश की हानि होगी । अब तुम जाओ और वृक्ष बनकर जन्मों तुम्हारा नाम केवङा, केतकी होगा ।

कबीर बोले - धर्मदास, अष्टांगी के शाप के कारण तीनों ब्रह्मा, गायत्री और सावित्री बहुत दुखी हो गये । अपने पापकर्म से वे बुद्धिहीन और दुर्बल हो गये । कामविषय में प्रवृत कराने वाली कामिनी स्त्री कालरूप काम (वासना की इच्छा) की अति तीव्र कला है, इसने सबको अपने शरीर के सुन्दर चर्म से डसा है । शंकर, ब्रह्मा, सनकादि और नारद जैसे कोई भी इससे बच नहीं पाये ।

धर्मदास इससे कोई बिरला ही सन्त साधक बच पाता है । जो सदगुरू के सत्यशब्दों को भली प्रकार अपनाता है । सदगुरू के शब्द प्रताप से ये कालकला मनुष्य को नहीं व्यापती अर्थात कोई हानि नहीं करती । जो कल्याण की इच्छा रखने वाला भक्त मन, वचन, कर्म से सतगुरू के श्री चरणों की शरण ग्रहण करता है, पाप उसके पास नहीं आता ।

कबीर साहब आगे बोले - धर्मदास, ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों को शाप देने के बाद अष्टांगी मन में पछताने लगी । उसने सोचा, शाप देते समय मुझे बिलकुल दया नहीं आयी, अब न जाने निरंजन मेरे साथ कैसा व्यवहार करेगा?

उसी समय आकाशवाणी हुयी भवानी, तुमने यह क्या किया । मैंने तो तुम्हें सृष्टि की रचना के लिये भेजा था, परन्तु तुमने शाप देकर यह कैसा चरित्र किया? हे भवानी, ऊँचा और बलवान ही निर्बल को सताता है, और यह निश्चित है कि वह इसके बदले दुख पाता है । इसलिये जब द्वापर युग आयेगा, तब तुम्हारे भी पाँच पति होंगे ।

भवानी ने अपने शाप के बदले निरंजन का शाप सुना तो मन में सोच विचार किया पर मुँह से कुछ न बोली ।

वह सोचने लगी - मैंने बदले में शाप पाया । निरंजन मैं तो तेरे वश में हूँ, जैसा चाहो, व्यवहार करो ।

फ़िर अष्टांगी ने विष्णु को दुलारते हुये कहा - पुत्र, तुम मेरी बात सुनो । सच सच बताओ, जब तुम पिता के चरण स्पर्श करने गये, तब क्या हुआ? पहले तो तुम्हारा शरीर गोरा था, तुम श्याम रंग कैसे हो गये?

विष्णु ने कहा - पिता के दर्शन हेतु जब मैं पाताललोक पहुँचा तो शेषनाग के पास पहुँच गया । वहाँ उसके विष के तेज से मैं सुस्त (अचेत) हो गया । मेरे शरीर में उसके विष का तेज समा गया, जिससे वह श्याम हो गया ।

तब एक आवाज हुयी - विष्णु, तुम माता के पास लौट जाओ । यह मेरा सत्य वचन है कि जैसे ही सतयुग, त्रेतायुग बीत जायेंगे, तब द्वापर में तुम्हारा कृष्ण अवतार होगा ।
उस समय तुम शेषनाग से अपना बदला लोगे, तब तुम यमुना नदी पर जाकर नाग का मान मर्दन करोगे ।

यह मेरा नियम है कि जो भी ऊँचा नीचे वाले को सताता है, उसका बदला वह मुझसे पाता है । जो जीव दूसरे को दुख देता है, उसे मैं दुख देता हूँ ।

हे माता, उस आवाज को सुनकर मैं तुम्हारे पास आ गया । यही सत्य है कि मुझे पिता के श्रीचरण नहीं मिले ।

भवानी यह सुनकर प्रसन्न हो गयी और बोली - पुत्र सुनो, मैं तुम्हें तुम्हारे पिता से मिलाती हूँ, और तुम्हारे मन का भ्रम मिटाती हूँ । पहले तुम बाहर की स्थूल दृष्टि (शरीर की आँखें) छोङकर, भीतर की ज्ञानदृष्टि (अन्तर की आँख, तीसरी आँख) से देखो, और अपने ह्रदय में मेरा वचन परखो ।

स्थूल देह के भीतर, सूक्ष्म मन के स्वरूप को ही, कर्ता समझो । मन के अलावा दूसरा और किसी को कर्ता न मानों । यह मन बहुत ही चंचल और गतिशील है । यह क्षण भर में स्वर्ग, पाताल की दौङ लगाता है, और स्वछन्द होकर सब ओर विचरता है ।

मन एक क्षण में अनन्तकला दिखाता है, और इस मन को कोई नहीं देख पाता । मन को ही निराकार कहो । मन के ही सहारे दिन रात रहो ।

हे विष्णु, बाहरी दुनियाँ से ध्यान हटाकर अंतर्मुखी हो जाओ, और अपनी सुरति और दृष्टि को पलट कर भृकुटि के मध्य (भौंहों के बीच आज्ञाचक्र) पर या ह्रदय के शून्य में ज्योति को देखो, जहाँ ज्योति झिलमिल झालर सी प्रकाशित होती है ।

विष्णु ने अपनी स्वांस को घुमाकर भीतर आकाश की ओर दौङाया, और (अंतर) आकाश मार्ग में ध्यान लगाया । विष्णु ने ह्रदयगुफ़ा में प्रवेश कर ध्यान लगाया ।

ध्यान प्रकिया में विष्णु ने पहले स्वांस का संयम प्राणायाम से किया । कुम्भक में जब उन्होंने स्वांस को रोका तो प्राण ऊपर उठकर ध्यान के केन्द्र शून्य में आया । वहाँ विष्णु को अनहद-नाद की गर्जना सुनाई दी । यह अनहद बाजा सुनते हुये विष्णु प्रसन्न हो गये ।

तब मन ने उन्हें सफ़ेद, लाल, काला, पीला आदि रंगीन प्रकाश दिखाया । धर्मदास, इसके बाद विष्णु को, मन ने अपने आपको दिखाया, और ज्योति प्रकाशकिया ।
जिसे देखकर वह प्रसन्न हो गये ।

और बोले - हे माता, आपकी कृपा से आज मैंने ईश्वर को देखा ।

धर्मदास अचानक चौंककर बोले - सदगुरू कबीर साहब, यह सुनकर मेरे भीतर एक भ्रम उत्पन्न हुआ है । अष्टांगी कन्या ने जो मन का ध्यानबताया इससे तो समस्त जीव भरमा गये हैं यानी भ्रम में पङ गये हैं? (इस बात पर विशेष गौर करें)

कबीर बोले - धर्मदास, यह काल-निरंजन का स्वभाव ही है कि इसके चक्कर में पङने से विष्णु सत्यपुरुष का भेद नहीं जान पाये ।

(निरंजन ने अष्टांगी को पहले ही सचेत कर आदेश दे दिया था कि सत्यपुरुष का कोई भेद जानने न पाये, ऐसी माया फ़ैलाना)

अब उस कामिनी अष्टांगी की यह चाल देखो कि उसने अमृतस्वरूप सत्यपुरुष को छुपाकर विषरूप काल-निरंजन को दिखाया । जिस ज्योतिका ध्यान अष्टांगी ने बताया, उस ज्योति से काल-निरंजन को दूसरा न समझो ।

धर्मदास, अब तुम यह विलक्षण गूढ़ सत्य सुनो । ज्योति का जैसा प्रकट रूप होता है,  वैसा ही गुप्त रूप भी है । (दिये, मोमबत्ती आदि की ज्योति, लौ) जो ह्रदय के भीतर है,  वह ही बाहर देखने में भी आता है ।

जब कोई मनुष्य दीपक जलाता है, तो उस ज्योति के भाव स्वभाव को देखो और निर्णय करो । उस ज्योति को देखकर पतंगा बहुत खुश होता है, और प्रेमवश अपना भला जानकर उसके पास आता है । लेकिन ज्योति को स्पर्श करते ही पतंगा भस्म हो जाता है । इस प्रकार अज्ञानता में मतवाला हुआ वह पतंगा उसमें जल मरता है ।

ज्योति-स्वरूप काल-निरंजन भी ऐसा ही है । जो भी जीवात्मा उसके चक्कर में आ जाता है, क्रूर काल उसे छोङता नहीं । इस काल ने करोङों विष्णु अवतारों को खाया, और अनेकों ब्रह्मा, शंकर को खाया तथा अपने इशारे पर नचाया ।

काल द्वारा दिये जाने वाले जीवों के कौन कौन से दुख को कहूँ? वह लाखों जीव नित्य ही खाता है । ऐसा वह भयंकर काल निर्दयी है ।

धर्मदास बोले - साहिब, मेरे मन में एक संशय है । अष्टांगी को सत्यपुरुष ने उत्पन्न किया था, और जिस प्रकार उत्पन्न किया, वह सब कथा मैंने जानी । काल-निरंजन ने उसे भी खा लिया । फ़िर वह सत्यपुरुष के प्रताप से बाहर आयी ।

फ़िर उस अष्टांगी ने ऐसा धोखा क्यों किया कि काल-निरंजन को तो प्रकट किया, और सत्यपुरुष का भेद गुप्त रखा? यहाँ तक कि सत्यपुरुष का भेद उसने अपने पुत्रों ब्रह्मा, विष्णु, महेश को भी नहीं बताया, और उनसे भी काल-निरंजन का ध्यान कराया ।
यह अष्टांगी ने कैसा चरित्र किया कि सत्यपुरुष को छोङकर काल-निरंजन की साथी हो गयी अर्थात जिन सत्यपुरुष का वह अंश थी, उसका ध्यान क्यों नहीं कराया?

कबीर साहब बोले - धर्मदास, नारी का स्वभाव जैसा होता है, वह अब तुम्हें बताता हूँ । जिसके घर में पुत्री होती है, वह अनेक जतन करके उसे पालता पोसता है ।
वह उसे पहनने को वस्त्र, खाने को भोजन, सोने को शैय्या, रहने को घर आदि सब सुख देता है, और घर बाहर सब जगह उस पर विश्वास करता है ।

उसके माता पिता उसके हित में यज्ञ आदि करा के विवाह करते हुये विधिपूर्वक उसे विदा करते हैं । माता पिता के घर से विदा होकर जब वह अपने पति के घर आ जाती है, तो उसके साथ सब गुणों में होकर प्रेम में इतनी मगन हो जाती है कि अपने माता पिता सबको भुला देती है ।

धर्मदास, नारी का यही स्वभाव है, इसलिये नारी स्वभाववश अष्टांगी भी पराये स्वभाव वाली ही हो गयी । वह काल-निरंजन के साथ होकर उसी की होकर रह गयी, और उसी के रंग में रंग गयी । इसीलिये उसने सत्यपुरुष का भेद प्रकट नहीं किया, और अपने पुत्र विष्णु को काल-निरंजन का ही रूप दिखाया ।

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Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।