धर्मदास
बोले - काल-निरंजन ने जीव को भरमाने के लिये जो अपने बारह
पंथ चलाये, वे मुझे समझा कर कहो ।
कबीर
साहिब बोले - मैं तुमसे काल के ‘बारह पंथ’ के बारे कहता हूँ । ‘मृत्युअंधा’ नाम का दूत जो छल बल में शक्तिशाली है ।
वह स्वयं तुम्हारे घर में उत्पन्न हुआ है ।
यह
पहला पंथ है ।
दूसरा ‘तिमिर दूत’ चलकर आयेगा उसकी जाति अहीर होगी, और वह नफ़र यानी गुलाम कहलायेगा । वह तुम्हारी बहुत सी पुस्तकों से ज्ञान
चुराकर अलग पंथ चलायेगा ।
तीसरा
पंथ का नाम ‘अंधा अचेत’ दूत होगा वह सेवक होगा । वह तुम्हारे पास आयेगा और अपना नाम ‘सुरति गोपाल’ बतायेगा । वह भी अपना अलग पंथ चलायेगा, और जीव को ‘अक्षरयोग’ (काल-निरंजन)
के भ्रम में डालेगा ।
धर्मदास, चौथा ‘मनभंग’ नाम का कालदूत
होगा । वह कबीरपंथ की मूलकथा का आधार लेकर अपना पंथ
चलायेगा, और उसे मूलपंथ कहकर संसार में फ़ैलायेगा । वह जीवों
को ‘लूदी’ नाम लेकर समझायेगा । उपदेश
करेगा, और इसी नाम को ‘पारस’ कहेगा । वह शरीर के भीतर झंकृत होने वाले शून्य के ‘झंग’
शब्द का सुमरन अपने मुख से वर्णन करेगा । सब जीव उसे ‘थाका’ कहकर मानेंगे ।
धर्मदास
‘पाँचवे पंथ’ को चलाने
वाला ‘ज्ञानभंगी’ नाम का दूत होगा । उसका पंथ टकसार नाम से होगा । वह इंगला, पिंगला,
नाङियों के स्वर को साधकर भविष्य की बात करेगा । जीव को जीभ,
नेत्र, मस्तक की रेखा के बारे में बता कर
समझायेगा ।
जीवों
के तिल, मस्सा आदि चिह्न देखकर उन्हें भ्रम रूपी धोखे
में डालेगा । वह जिस जीव के ऊपर जैसा दोष लगायेगा । वैसा ही उसको पान खिलायेगा (नाम आदि देना)
‘छठा पंथ’ कमाल नाम का है । वह ‘मन मकरंद’ दूत के नाम से संसार में आया है ।
उसने
मुर्दे में वास किया, और मेरा पुत्र होकर प्रकट हुआ । वह जीवों को
झिलमिल ज्योति का उपदेश करेगा (जो अष्टांगी ने विष्णु को
दिखाकर भरमा दिया) और इस तरह वह जीवों को भरमायेगा ।
जहाँ
तक जीव की दृष्टि है, वह झिलमिल ज्योति ही देखेगा । जिसने दोनों आँखों
से झिलमिल ज्योति नहीं देखी है, वह कैसे झिलमिल ज्योति के
रूप को पहचानेगा? झिलमिल ज्योति काल-निरंजन की है । उस दूत
के ह्रदय में सत्य मत समझो, वह तुम्हें भरमाने के लिये है ।
सातवां
दूत ‘चितभंग’ है । वह मन की तरह
अनेक रंग-रूप बदल कर बोलेगा । वह ‘दीन’
नाम कहकर पंथ चलायेगा, और देह के भीतर बोलने
वाले आत्मा को ही सत्यपुरुष बतायेगा । वह जगत सृष्टि में पाँच तत्व, तीन गुण बतायेगा, और ऐसा ज्ञान करता हुआ अपना पंथ
चलायेगा । इसके अतिरिक्त आदिपुरुष, काल-निरंजन, अष्टांगी, ब्रह्मा आदि कुछ भी नहीं हैं । ऐसा भ्रम
बनायेगा ।
सृष्टि
हमेशा से है, तथा इसका कर्ता धर्ता कोई नहीं है । इसी को वह
ठोस ‘बीजक’ ज्ञान कहेगा । वह कहेगा कि
अपना आपा ही ब्रह्म है । वही वचन वाणी बोलता है तो फ़िर सोचो गुरू का क्या महत्व
और आवश्यकता है ?
श्रीराम
ने वशिष्ठ को, और श्रीकृष्ण ने दुर्वासा को गुरू क्यों बनाया
। जब श्रीकृष्ण जैसों ने गुरूओं की सेवा की तो ऋषियों मुनियों की फ़िर गिनती ही
क्या है? नारद ने गुरू को दोष लगाया तो विष्णु ने उनसे नरक
भुगतवाया ।
जो
बीजक ज्ञान वह दूत थोपेगा । वह ऐसा होगा जैसे गूलर के भीतर कीङा
घूमता है तथा वह कीङा समझता है कि संसार इतना ही है । अपने आपको कर्ता धर्ता मानने
से जीव का कभी भला न होगा । अपने आपको ही मानने वाला जीव रोता रहेगा ।
आठवां
पंथ चलाने वाला ‘अकिल भंग’ दूत होगा । वह परमधाम कहकर अपना पंथ चलायेगा । कुछ कुरआन तथा वेद की बातें चुराकर
अपने पंथ में शामिल करेगा । वह कुछ कुछ मेरे निर्गुण मत की बातें लेगा, और उन सब बातों को मिलाकर एक पुस्तक बनायेगा । इस प्रकार जोङ जाङ कर वह
ब्रह्मज्ञान का पंथ चलायेगा । उसमें कर्म आश्रित (यानी ज्ञानरहित
ज्ञान आश्रित नहीं, कर्म ही पूजा है, मानने
वाले) जीव बहुत लिपटेंगे ।
नौवां
पंथ ‘विशंभर दूत’ का होगा, और उसका जीवन चरित्र ऐसा होगा कि वह ‘राम कबीर’
नाम का पंथ चलायेगा । वह निर्गुण, सगुण दोनों
को मिलाकर उपदेश करेगा ।
पाप
पुण्य को एक समझेगा । ऐसा कहता हुआ वह अपना पंथ चलायेगा ।
दसवां
पंथ के दूत का नाम ‘नकटा नैन’ है । वह ‘सतनामी’ कहकर पंथ
चलायेगा और ‘चार वर्ण’ के जीवों को एक
में मिलायेगा । वह अपने वचन उपदेश में ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य, शूद्र सबको एक समान मिलायेगा । परन्तु
वह सदगुरू के शब्द उपदेश को नहीं पहचानेगा । वह अपने पक्ष को बाँधकर रखेगा जिससे
जीव नरक को जायेंगे । वह शरीर का ज्ञान कथन सब समझायेगा परन्तु सत्यपुरुष के मार्ग
को नहीं पायेगा ।
धर्मदास, काल-निरंजन की चालबाजी की बात सुनो, वह जीवों
को फ़ँसाने के लिये बङे बङे फ़ंदों की रचना करता है । वह काल जीव को अनेक कर्म (पूजा आदि आडंबर, सामाजिक रीति रिवाज) और कर्मजाल में ही जीव को फ़ाँस कर खा जाता है । जो जीव सारशब्द को
पहचानता है, समझता है । वह इस काल-निरंजन के यम जाल से छूट
जाता है, और श्रद्धा से सत्यनाम का सुमरन करते हुये अमरलोक
को जाता है ।
‘ग्यारहवें
पंथ’ को चलाने वाला ‘दुर्गदानी’
नाम का कालदूत अत्यन्त बलशाली होगा । वह ‘जीवपंथ’
नाम कहकर पंथ चलायेगा, और शरीर ज्ञान के बारे
में समझायेगा ।
उससे
भोले अज्ञानी जीव भरमेंगे, और भवसागर से पार नहीं होंगे । जो जीव बहुत
अधिक अभिमानी होगा । वह उस कालदूत की बात सुनकर उससे प्रेम करेगा ।
‘बारहवें पंथ’ का कालदूत ‘हंसमुनि’
नाम का होगा । वह बहुत तरह के चरित्र करेगा ।
वह वचन
वंश के घर में सेवक होगा, और पहले बहुत सेवा करेगा । फ़िर पीछे (अर्थात पहले विश्वास जमायेगा, और जब लोग उसको मानने
लगेंगे) वह अपना मत प्रकट करेगा, और
बहुत से जीवों को अपने जाल में फ़ँसा लेगा, और अंश-वंश (कबीर साहब के स्थापित ज्ञान) का विरोध करेगा । वह उसके ज्ञान की कुछ बातों को मानेगा । कुछ को नहीं
मानेगा ।
इस
प्रकार काल-निरंजन जीवों पर अपना दांव फ़ेंकते हुये उन्हें अपने फ़ंदे में (असली ज्ञान से दूर) बनाये रखेगा यानी ऐसी कोशिश
करेगा । वह अपने इन अंशों (कालदूतों) से
बारह पंथ (झूठे ज्ञान को फ़ैलाने हेतु) प्रकट करायेगा, और ये दूत सिर्फ़ एक बार ही प्रकट
नहीं होंगे । बल्कि वे उन पंथों में बारबार आते जाते रहेंगे,
और इस तरह बारबार संसार में प्रकट होंगे ।
जहाँ
जहाँ भी ये दूत प्रकट होंगे । जीवों को बहुत
ज्ञान (भरमाने वाला) कहेंगे, और वे यह सब खुद को कबीरपंथी बताते हुये करेंगे । और वे शरीर ज्ञान का
कथन करके सत्यज्ञान के नाम पर काल निरंजन की ही महिमा
को घुमा फ़िरा कर बतायेंगे, और
अज्ञानी जीव को काल के मुँह में भेजते रहेंगे । काल-निरंजन ने ऐसा ही करने का उनको
आदेश दिया है ।
जब जब
निरंजन के ये दूत संसार में जन्म लेकर प्रकट होंगे तब तब ये अपना पंथ फ़ैलायेंगे ।
वे जीवों को हैरान करने वाली विचित्र बातें बतायेंगे, और जीवों को भरमा कर नरक में डालेंगे ।
धर्मदास, ऐसा वह काल-निरंजन बहुत ही प्रबल है । वह तथा उसके दूत कपट से जीवों को
छल बुद्धि वाला ही बनायेंगे ।
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आत्मज्ञान
की ‘हंसदीक्षा’ और ‘परमहंस दीक्षा’ में वाणी या अन्य इन्द्रियों का कोई
स्थान नहीं हैं । दोनों ही दीक्षाओं में सुरति को दो अलग-अलग
स्थानों से जोङा जाता है । मतलब ध्यान बारबार वहीं ले जाने का अभ्यास किया जाता है
।
जब
ध्यान पर साधक की पकङ हो जाती है तो ये ध्यान खुद ब खुद अपने आप होने लगता है, और तीन महीने के ही सही अभ्यास से दिव्यदर्शन, अन्तर्लोकों
की सैर, भंवर गुफ़ा, आसमानी झूला आदि
बहुत अनुभव होते हैं ।
दूसरे, दीक्षा के बाद एक स्थायी सी शांति महसूस होती है । जैसी पहले कभी महसूस नहीं की, और आपकी जिन्दगी
में, स्वभाव में एक मजबूती सी आ जाती है । इसीलिये सन्तों ने
कहा है - फ़िकर मत कर, जिकर कर ।
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