कबीर
साहब बोले - धर्मदास, अब मैं तुमसे
परमार्थ वर्णन करता हूँ । ज्ञान को प्राप्त हुआ, ज्ञान के
शरणागति हुआ कोई जीव समस्त अज्ञान और काल-जाल को छोङे । तथा लगन लगाकर सत्यनाम का
सुमरन करे । असत्य को छोङकर सत्य की चाल चले, और मन लगाकर
परमार्थ मार्ग को अपनाये ।
धर्मदास, एक गाय को परमार्थ गुणों की खान जानो । गाय की चाल और गुणों को समझो । गाय
खेत, बाग आदि में घास चरती है, जल पीती
है, और अन्त में दूध देती है । उसके दूध, घी से देवता और मनुष्य दोनों ही तृप्त होते हैं । गाय के बच्चे दूसरों का
पालन करने वाले होते हैं । उसका गोबर भी मनुष्य के बहुत काम आता है ।
परन्तु
पाप-कर्म करने वाला मनुष्य अपना जन्म यूँ ही गंवाता है । बाद में आयु पूरी होने पर
गाय का शरीर नष्ट हो जाता है, तब राक्षस के समान
मनुष्य उसका शरीर का मांस लेकर खाते हैं । मरने पर भी उसके शरीर का चमढ़ा मनुष्य के
लिये बहुत सुख देने वाला होता है । भाई, जन्म से लेकर मृत्यु
तक गाय के शरीर में इतने गुण होते हैं ।
इसलिये
गाय के समान गुण वाला होने का यह वाणी उपदेश सज्जन पुरुष गृहण करे ।
तो
काल-निरंजन जीव की कभी हानि नहीं कर सकता । मनुष्य शरीर पाकर जिसकी बुद्धि ऐसी
शुद्ध हो, और उसे सदगुरू मिले तो वह हमेशा को अमर हो
जाये ।
धर्मदास, परमार्थ की वाणी, परमार्थ के उपदेश सुनने से कभी
हानि नहीं होती । इसलिये सज्जन परमार्थ का सहारा, आधार लेकर
भवसागर से पार हो । दुर्लभ मनुष्य जीवन के रहते मनुष्य सारशब्द के उपदेश का परिचय
और ज्ञान प्राप्त करे । फ़िर परमार्थ पद को प्राप्त हो तो वह सत्यलोक को जाये । अहंकार
को मिटा दे, और निष्काम सेवा की भावना ह्रदय में लाये ।
जो
अपने कुल, बल, धन, ज्ञान आदि का अहंकार रखता है, वह सदा दुख ही पाता है
। यह मनुष्य ऐसा चतुर बुद्धिमान बनता है कि सदगुण और शुभ कर्म होने पर कहता है कि
मैंने ऐसा किया है, और उसका पूरा श्रेय अपने ऊपर लेता है, और अवगुण द्वारा उल्टा विपरीत परिणाम हो जाने पर कहता है कि भगवान ने ऐसा
कर दिया ।
यह नर
अस चातुर बुधिमाना, गुण शुभ कर्म कहे हम ठाना ।
ऊँच क्रिया आपन सिर लीन्हा, औगण को बोले हरि कीन्हा ।
ऊँच क्रिया आपन सिर लीन्हा, औगण को बोले हरि कीन्हा ।
तब ऐसा
सोचने से उसके शुभकर्मों का नाश हो जाता है । धर्मदास, सब आशाओं को छोङकर तुम निराश (उदास, विरक्त, वैरागी भाव) भाव जीवन
में अपनाओ, और केवल एक सत्यनाम कमाई की ही आशा करो, और अपने किये शुभकर्म को किसी को बताओ नहीं ।
सभी
देवी देवताओं भगवान से ऊँचा सर्वोपरि गुरूपद है । उसमें सदा लगन लगाये रहो । जैसे
जल में अभिन्न रूप से मछली घूमती है । वैसे ही सदगुरू के श्रीचरणों में मगन रहे । सदगुरू
द्वारा दिये शब्दनाम में सदा मन लगाता हुआ उसका सुमरन करे ।
जैसे
मछली कभी जल को नहीं भूलती, और उससे दूर होकर तङपने लगती है । ऐसे ही चतुर
शिष्य गुरू से उपदेश कर उन्हें भूले नहीं । सत्यपुरुष के सत्यनाम का प्रभाव ऐसा है
कि हंस-जीव फ़िर से संसार में नहीं आता ।
तुम
कछुए के बच्चे की कला गुण समझो । कछवी जल से बाहर आकर रेत मिट्टी में गढ्ढा खोदकर
अण्डे देती है, और अण्डों को मिट्टी से ढककर फ़िर पानी में
चले जाती है । परन्तु पानी में रहते हुये भी कछवी का ध्यान निरन्तर अण्डों की ओर
ही लगा रहता है वह ध्यान से ही अण्डों को सेती है । समय पूरा होने पर अण्डे पुष्ट
होते हैं, और उनमें से बच्चे बाहर निकल आते हैं । तब उनकी
माँ कछवी उन बच्चों को लेने पानी से बाहर नहीं आती । बच्चे स्वयं चलकर पानी में
चले जाते हैं, और अपने परिवार से मिल जाते हैं ।
धर्मदास, जैसे कछुये के बच्चे अपने स्वभाव से अपने परिवार से जाकर मिल जाते हैं ।
वैसे
ही मेरे हंस-जीव अपने निज-स्वभाव से अपने घर सत्यलोक की तरफ़ दौङें ।
उनको
सत्यलोक जाते देखकर काल-निरंजन के यमदूत बलहीन हो जायेंगे, तथा वे उनके पास नहीं जायेंगे । वे हंस जीव निर्भय, निडर होकर गरजते और प्रसन्न होते हुये नाम का सुमरन करते हुये आनन्द
पूर्वक अपने घर जाते हैं, और यमदूत निराश होकर झक मारकर रह
जाते हैं ।
सत्यलोक
आनन्द का धाम अनमोल और अनुपम है । वहाँ जाकर हंस परमसुख भोगते हैं । हंस से हंस
मिलकर आपस में क्रीङा करते हैं, और सत्यपुरुष का दर्शन
पाते हैं ।
जैसे भंवरा कमल पर बसता है, वैसे ही अपने मन को सदगुरू के श्रीचरणों में बसाओ ।
जैसे भंवरा कमल पर बसता है, वैसे ही अपने मन को सदगुरू के श्रीचरणों में बसाओ ।
तब सदा
अचल सत्यलोक मिलता है । अविनाशी शब्द और सुरति का मेल करो ।
यह बूँद
और सागर के मिलने के खेल जैसा है । इसी प्रकार जीव सत्यनाम से मिलकर उसी जैसा
सत्यस्वरूप हो जाता है ।
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