धर्मदास
बोले - साहिब, कृपा करके बतायें कि मुक्त होकर अमर हुये लोग कहाँ रहते हैं? आप मुझे
अमरलोक और अन्य दीपों का वर्णन सुनाओ । आदिसृष्टि की रचना, कौन
से दीप में सदगुरू के हंस जीवों का वास है, और कौन से दीप में
सतपुरुष का निवास है । वहाँ पर हंस जीव कौन सा तथा कैसा भोजन करते हैं, और वे कौन सी वाणी बोलते हैं ।
आदिपुरुष
ने लोक कैसे रच रखा है, तथा उन्हें दीप रचने की इच्छा कैसे हुयी । तीनों
लोकों की उत्पत्ति कैसे हुयी? साहिब, मुझे
वह सब भी बताओ जो गुप्त है ।
काल-निरंजन
किस विधि से पैदा हुआ, और सोलह सुतों का निर्माण कैसे हुआ? स्थावर, अण्डज, पिण्डज,
ऊष्मज इन चार प्रकार की चार खानों वाली सृष्टि का विस्तार कैसे हुआ
और जीव को कैसे काल के वश में डाल दिया गया । कूर्म और शेषनाग उपराजा कैसे उत्पन्न
हुये, और कैसे मत्स्य तथा वराह जैसे अवतार हुये ।
तीन
प्रमुख देव ब्रह्मा, विष्णु, महेश किस प्रकार
हुये तथा प्रथ्वी, आकाश का निर्माण कैसे हुआ । चन्द्रमा और
सूर्य कैसे हुये । कैसे तारों का समूह प्रकट होकर आकाश में ठहर गया, और कैसे चार खानों के जीव शरीर की रचना हुयी? इन
सबकी उत्पत्ति के विषय में स्पष्ट बतायें ।
कबीर
साहब बोले - धर्मदास, मैंने तुम्हें
सत्यज्ञान और मोक्ष पाने का सच्चा अधिकारी पाया है । इसलिये सत्यज्ञान का जो अनुभव
मैंने किया उसके सारशब्द का रहस्य कहकर सुनाया । अब तुम मुझसे आदिसृष्टि की
उत्पत्ति सुनो ।
मैं
तुम्हें सबकी उत्पत्ति और प्रलय की बात सुनाता हूँ । यह तत्व की बात सुनो, जब धरती और आकाश और पाताल भी नहीं था । जब कूर्म, वराह,
शेषनाग, सरस्वती और गणेश भी नहीं थे । जब सबका
राजा निरंजन राय भी नहीं था जिसने सबके जीवन को मोहमाया के बंधन में झुलाकर रखा है
।
तैतीस करोङ
देवता भी नहीं थे, और मैं तुम्हें अनेक क्या बताऊँ, तब ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी
नहीं थे, और न ही शास्त्र, वेद,
पुराण थे, तब ये सब आदिपुरुष में समाये हुये
थे । जैसे बरगद के पेङ के बीच में छाया रहती है ।
धर्मदास, तुम प्रारम्भ की आदि-उत्पत्ति सुनो जिसे प्रत्यक्ष रूप
से कोई नहीं जानता, और जिसके पीछे सारी सृष्टि का विस्तार
हुआ है । उसके लिये मैं तुम्हें क्या प्रमाण दूँ कि जिसने उसे देखा हो । चारो वेद
परमपिता की वास्तविक कहानी नहीं जानते क्योंकि तब वेद का मूल ही (आरम्भ होने का आधार) नहीं था । इसीलिये वेद
सत्यपुरुष को ‘अकथनीय’ अर्थात जिसके
बारे में कहा न जा सके, ऐसा कहकर पुकारते हैं ।
चारो
वेद निराकार निरंजन से उत्पन्न हुये हैं, जो कि
सृष्टि के उत्पत्ति आदि रहस्य को जानते ही नहीं । इसी कारण पंडित लोग उसका खंडन
करते हैं, और असल रहस्य से अनजान वेदमत पर यह सारा संसार चलता
है ।
सृष्टि
के पूर्व जब सत्यपुरुष गुप्त रहते थे । उनसे जिनसे कर्म होता है वे निमित्त कारण
और उपादान कारण और करण यानी साधन उत्पन्न नहीं किये थे । उस समय गुप्त रूप से कारण
और करण सम्पुट कमल में थे । उसका सम्बन्ध सत्यपुरुष से था ‘विदेह सत्यपुरुष’ उस कमल में थे ।
तब
सत्यपुरुष ने स्वयं इच्छा कर अपने अंशों को उत्पन्न
किया, और अपने अंशों को देखकर वह बहुत प्रसन्न हुये । सबसे
पहले सत्यपुरुष ने ‘शब्द’ का प्रकाश
किया, और उससे लोकदीप रचकर उसमें वास किया । फ़िर सत्यपुरुष
ने चार पायों वाले एक सिंहासन की रचना की, और उसके ऊपर ‘पुहुपदीप’ का निर्माण किया ।
तब
सत्यपुरुष अपनी समस्त कलाओं को धारण करके उस पर बैठे, और उनसे ‘अगर वासना’ यानी (चन्दन जैसी) एक सुगन्ध प्रकट हुयी । सत्यपुरुष ने
अपनी इच्छा से सब कामना की और ‘अठासी हजार’ दीपों की रचना की । उन सभी दीपों में वह चन्दन जैसी सुगन्ध समा गयी, जो बहुत अच्छी लगी ।
इसके
बाद सत्यपुरुष ने दूसरा शब्द उच्चारित किया । उससे ‘कूर्म’ नाम का सुत (अंश)
प्रकट हुआ, और उन्होंने सत्यपुरुष के चरणों
में प्रणाम किया ।
तब
उन्होंने तीसरे शब्द का उच्चारण किया तो उससे ‘ज्ञान’
नाम के सुत हुये
जो सब
सुतों में श्रेष्ठ थे । वे सत्यपुरुष के चरणों में शीश नवाकर खङे रहे तब सत्यपुरुष
ने उनको एक दीप में रहने की आज्ञा दी ।
चौथे
शब्द के उच्चारण से ‘विवेक’ नामक सुत हुये, और पाँचवे शब्द से ‘काल-निरंजन’
प्रकट हुआ ।
काल-निरंजन
अत्यन्त तेज अंग और भीषण प्रकृति वाला होकर आया । इसी ने अपने उग्र स्वभाव से सब
जीवों को कष्ट दिया है वैसे ये ‘जीव’ सत्यपुरुष का अंश है । जीव के आदि अंत को कोई नहीं जानता है ।
छठवें
शब्द से ‘सहज नाम’ सुत
उत्पन्न हुये । सातवें शब्द से ‘संतोष’ नाम के सुत हुये जिनको सत्यपुरुष ने उपहार में दीप देकर संतुष्ट किया ।
आठवें
शब्द से ‘सुरति सुभाव’ नाम के सुत
उत्पन्न हुये उन्हें भी एक दीप दिया गया ।
नवें
शब्द से ‘आनन्द अपार’ नाम के सुत
उत्पन्न हुये । दसवें शब्द से ‘क्षमा’ नाम
के सुत उत्पन्न हुये ।
ग्यारहवें
से ‘निष्काम’ नाम, और बारहवें से ‘जलरंगी’ नाम
के सुत हुये । तेरहवें से ‘अंचित’ और
चौदहवें से ‘प्रेम’ नाम के सुत हुये ।
पन्द्रहवें
से दीनदयाल और सोलहवें से ‘धीरज’ नाम के विशाल सुत
उत्पन्न हुये । सत्रहवें शब्द के उच्चारण से ‘योग संतायन’
हुये ।
इस तरह
‘एक ही नाल’ से सत्यपुरुष के शब्द उच्चारण से सोलह सुतों की उत्पत्ति हुयी । सत्यपुरुष के
शब्द से ही उन सुतों का आकार का विकास हुआ, और शब्द से ही
सभी दीपों का विस्तार हुआ । सत्यपुरुष ने अपने प्रत्येक दिव्यअंग यानी अंश को अमृत
का आहार दिया, और प्रत्येक को अलग अलग दीप का अधिकारी बनाकर
बैठा दिया ।
सत्यपुरुष
के इन अंशों की शोभा और कला अनन्त है, उनके
दीपों में मायारहित अलौकिक सुख रहता है । सत्यपुरुष के दिव्य प्रकाश से सभी दीप
प्रकाशित हो रहे है ।
सत्यपुरुष
के एक ही रोम का प्रकाश करोङों सूर्य चन्द्रमा के समान है ।
सत्यलोक
आनन्द धाम है वहाँ पर शोक, मोह आदि दुख नहीं है । वहाँ सदैव मुक्त हंसों
का विश्राम होता है । सतपुरुष का दर्शन तथा अमृत का पान होता है ।
आदिसृष्टि
की रचना के बाद जब बहुत दिन ऐसे ही बीत गये तब धर्मराज काल-निरंजन ने क्या तमाशा
किया । तुम उस चरित्र को ध्यान से सुनो ।
निरंजन
ने सत्यपुरुष में ध्यान लगाकर एक पैर पर खङे होकर सत्तर युग तक कठिन तपस्या की
इससे आदिपुरुष बहुत प्रसन्न हुये ।
तब
सत्यपुरुष की आवाज ‘वाणी के रूप’ में हुयी -
हे धर्मराय, किस हेतु से तुमने यह तप सेवा की?
निरंजन
सिर झुकाकर बोला - प्रभु, मुझे वह स्थान
दें जहाँ जाकर मैं निवास करूँ ।
सत्यपुरुष
ने कहा - पुत्र तुम मानसरोवर दीप में जाओ ।
प्रसन्न होकर धर्मराज मानसरोवर दीप की ओर चला गया, और उसे
देखकर आनन्द से भर गया । मानसरोवर पर निरंजन ने फ़िर से एक पैर पर खङे होकर सत्तर युग
तपस्या की तब दयालु सत्यपुरुष के ह्रदय में दया भर गयी ।
निरंजन
की कठिन सेवा तपस्या से पुष्पदीप के पुष्प विकसित हो गये, और फ़िर सत्यपुरुष की वाणी प्रकट हुयी । उनके बोलते ही वहाँ सुगन्ध फ़ैल
गयी ।
सत्यपुरुष
ने सहज से कहा - सहज, तुम निरंजन के पास
जाओ, और उससे तप का कारण पूछो । निरंजन की सेवा तपस्या से
पहले ही मैंने उसको मानसरोवर दीप दिया है अब वह क्या चाहता है यह ज्ञात कर तुम
मुझे बताओ?
सहज
निरंजन के पास पहुँचे, और प्रेमभाव से कहा - भाई, अब तुम क्या चाहते हो?
निरंजन
प्रसन्न होकर बोला - सहज, तुम मेरे बङे भाई
हो इतना सा स्थान ..ये मानसरोवर मुझे अच्छा नहीं लगता अतः मैं
किसी बङे स्थान का स्वामी बनना चाहता हूँ । मुझे ऐसी इच्छा है कि या तो मुझे
देवलोक दें, या मुझे एक अलग देश दें ।
सहज ने
निरंजन की ये अभिलाषा सत्यपुरुष को जाकर बतायी ।
सत्यपुरुष
ने स्पष्ट शब्दों में कहा - हम निरंजन की सेवा तपस्या से संतुष्टि होकर
उसको तीन लोक देते हैं । वह उसमें अपनी इच्छा से ‘शून्यदेश’
बसाये, और वहाँ जाकर सृष्टि की रचना करे । तुम
निरंजन से ऐसा जाकर कहो ।
निरंजन
ने सहज द्वारा ये बात सुनी तो वह बहुत प्रसन्न और आश्चर्यचकित हुआ ।
निरंजन
बोला - सहज सुनो, मैं किस
प्रकार सृष्टि की रचना करके उसका विस्तार करूँ?
सत्यपुरुष ने मुझे तीन लोक का राज्य दिया है परन्तु मैं सृष्टि की
रचना का भेद नहीं जानता फ़िर यह कार्य कैसे करूँ ।
जो
सृष्टि मन, बुद्धि की पहुँच से परे अत्यन्त कठिन और जटिल
है, वह मुझे रचनी नहीं आती अतः दया करके मुझे उसकी युक्ति
बतायी जाये । तुम मेरी तरफ़ से सत्यपुरुष से यह विनती करो कि मैं किस प्रकार ‘नवखण्ड’ बनाऊँ? अतः मुझे वह
साज सामान दो जिससे जगत की रचना हो सके ।
सहज ने
यह सब बात जब जाकर सत्यपुरुष से कही ।
तब
उन्होंने आज्ञा दी - सहज, कूर्म के पेट के
अन्दर सृष्टि रचना का सब साज सामान है, उसे लेकर निरंजन अपना
कार्य करे । इसके लिये निरंजन कूर्म से विनती करे, और उससे
दण्ड प्रणाम करके विनयपूर्वक सिर झुकाकर माँगे ।
सहज ने
सत्यपुरुष की आज्ञा निरंजन को बता दी ।
यह
सुनते ही निरंजन बहुत हर्षित हुआ, और उसके अन्दर बहुत
अभिमान हुआ । वह कूर्म के पास जाकर खङा हो गया, और बताये
अनुसार दण्ड प्रणाम भी नहीं किया ।
अमृतस्वरूप कूर्म जो सबको सुख देने वाले हैं । उनमें क्रोध एवं अभिमान का भाव जरा भी नहीं है, और वे अत्यन्त शीतल स्वभाव के हैं ।
अमृतस्वरूप कूर्म जो सबको सुख देने वाले हैं । उनमें क्रोध एवं अभिमान का भाव जरा भी नहीं है, और वे अत्यन्त शीतल स्वभाव के हैं ।
अतः जब
काल-निरंजन ने अभिमान करके देखा तो पता चला कि कूर्म अत्यन्त धैर्यवान और बलशाली
हैं । बारह पालंग कूर्म का विशाल शरीर है, और छह पालंग
बलवान निरंजन का शरीर है ।
निरंजन
क्रोध करता हुआ कूर्म के चारो ओर दौङता रहा, और ये
सोचता रहा कि किस उपाय से इससे उत्पत्ति का सामान लूँ? तब
निरंजन बेहद रोष से कूर्म से भिङ गया, और अपने तीखे नाखूनों
से कूर्म के शीश पर आघात करने लगा ।
प्रहार
करने से कूर्म के उदर से पवन निकले । उसके शीश के तीन अंश सत, रज, तम गुण निकले आगे जिनके वंश ब्रह्मा, विष्णु, महेश हुये । पाँच तत्व, धरती, आकाश आदि तथा चन्द्रमा, सूर्य
आदि तारों का समूह उसके उदर में थे । उसके आघात से पानी, अग्नि,
चन्द्रमा और सूर्य निकले और प्रथ्वी जगत को ढकने के लिये आकाश निकला
फ़िर उसके उदर से प्रथ्वी को उठाने वाले वाराह, शेषनाग और
मत्स्य निकले । तब प्रथ्वी सृष्टि का आरम्भ हुआ ।
जब
काल-निरंजन ने कूर्म का शीश काटा तब उस स्थान से रक्त जल के स्रोत बहने लगे । जब
उनके रक्त में स्वेद यानी पसीना और जल मिला, उससे
समुद्र का निर्माण तथा उनंचास कोटि प्रथ्वी का निर्माण हुआ । जैसे दूध पर मलाई ठहर
जाती है वैसे ही जल पर प्रथ्वी ठहर गयी ।
वाराह
के दाँत प्रथ्वी के मूल में रहे पवन प्रचण्ड था, और प्रथ्वी
स्थूल थी । आकाश को अंडा स्वरूप समझो, और उसके बीच में
प्रथ्वी स्थिति है । कूर्म के उदर से ‘कूर्मसुत’ उत्पन्न हुये, उस पर शेषनाग और वराह का स्थान है । शेषनाग
के सिर पर प्रथ्वी है ।
निरंजन
के चोट करने से कूर्म बरियाया । सृष्टि रचना का सब साजोसामान कूर्म उदर के अंडे
में थी, परन्तु वह कूर्म के अंश से अलग थी । आदिकूर्म
सत्यलोक के बीच रहता था ।
निरंजन
के आघात से पीङित होकर उसने सत्यपुरुष का ध्यान किया, और शिकायत करते हुये कहा - काल-निरंजन ने मेरे साथ
दुष्टता की है उसने मेरे ऊपर बल प्रयोग करते हुये मेरे पेट को फ़ाङ डाला है । आपकी
आज्ञा का उसने पालन नहीं किया ।
सत्यपुरुष
स्नेह से बोले - कूर्म, वह तुम्हारा
छोटा भाई है, और यह रीत है कि छोटे के अवगुणों को भुलाकर
उससे स्नेह किया जाय ।
सत्यपुरुष
के ऐसे वचन सुनकर कूर्म आनन्दित हो गये ।
इधर
काल-निरंजन ने फ़िर से सत्यपुरुष का ध्यान किया, और अनेक
युगों तक उनकी सेवा तपस्या की । निरंजन ने अपने स्वार्थ से तप किया था, अतः सृष्टि रचना को लेकर वह पछताया ।
तब
धर्मराय निरंजन ने विचार किया कि तीनों लोकों का विस्तार कैसे और कहाँ तक किया जाय? उसने स्वर्गलोक, मृत्युलोक और पाताललोक की रचना तो
कर दी, परन्तु बिना बीज और जीव के सृष्टि का विस्तार कैसे
संभव हो । किस प्रकार और क्या उपाय किया जाय जो जीवों के धारण करने का शरीर बनाकर
सजीव सृष्टि रचना हो सके ।
यह सब
तरीका विधि सत्यपुरुष की सेवा तपस्या से ही होगा । ऐसा विचार करके हठपूर्वक एक पैर
पर खङा होकर उसने चौंसठ युगों तक तपस्या की ।
तब
दयालु सत्यपुरुष ने सहज से कहा - अब ये
तपस्वी निरंजन क्या चाहता है, वह तुम उससे पूछो, और दे दो । उससे कहो, वह हमारे वचन अनुसार सृष्टि
का निर्माण करे, और छलमत का त्याग करे ।
सहज ने
निरंजन से जाकर यह सब बात कही ।
निरंजन
बोला - मुझे वह स्थान दो, जहाँ
जाकर मैं बैठ जाऊँ ।
सहज
बोले - सत्यपुरुष ने पहले ही सब कुछ दे दिया है ।
कूर्म के उदर से निकले सामान से तुम सृष्टि रचना करो ।
निरंजन
बोला - मैं कैसे क्या बनाकर रचना करूँ ।
सत्यपुरुष से मेरी तरफ़ से विनती कर कहो, अपना सारा खेत बीज
मुझे दे दें ।
सहज ने
यह हाल सत्यपुरुष को कह सुनाया ।
सत्यपुरुष
ने आज्ञा दी, तो सहज अपने सुखासन दीप चले गये ।
निरंजन
की इच्छा जानकर सत्यपुरुष ने इच्छा व्यक्त की । उनकी इस इच्छा से अष्टांगी नाम की
कन्या उत्पन्न हुयी वह कन्या आठ भुजाओं की होकर आयी थी ।
वह
सत्यपुरुष के बायें अंग जाकर खङी हो गयी, और प्रणाम
करते हुये बोली - हे सत्यपुरुष, मुझे
क्या आज्ञा है?
सत्यपुरुष
बोले - पुत्री, तुम निरंजन के
पास जाओ, मैं तुम्हें जो वस्तु देता हूँ, उसे संभाल लो । उससे तुम निरंजन के साथ मिलकर सृष्टि-रूपी फ़ुलवारी की रचना करो ।
कबीर
साहब बोले - धर्मदास, सत्यपुरुष ने
अष्टांगी नामक कन्या को जो जीव बीज दिया उसका नाम ‘सोऽहंग’
है । इस तरह जीव का नाम सोऽहंग है, जीव ही
सोऽहंगम है, दूसरा नहीं है, और वह जीव
सत्यपुरुष का अंश है । फ़िर सत्यपुरुष ने तीन शक्तियों को उत्पन्न किया, उनके नाम ‘चेतन’ ‘उलंघिन’
और ‘अभय’ थे ।
सत्यपुरुष
ने अष्टांगी कन्या से कहा कि निरंजन के पास जाकर उसे पहचान कर यह चौरासी लाख जीवों
का मूल बीज..जीव बीज दे दो ।
अष्टांगी
कन्या यह जीव बीज लेकर मानसरोवर चली गयी ।
तब
सत्यपुरुष ने सहज को बुलाया, और उससे कहा - तुम निरंजन के पास जाकर यह कहो कि जो वस्तु तुम चाहते थे, वह तुम्हें दे दी गयी है । जीव बीज ‘सोऽहंग’
तुम्हें मिल गया है । अब जैसी चाहो, सृष्टि
रचना करो, और मानसरोवर में जाकर रहो वहीं से सृष्टि का आरम्भ
होना है ।
सहज ने
निरंजन से जाकर ऐसा ही कहा ।
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