शब्द 42
पंडित सोधि कहो समुझाई, जाते आवगमन नसाई ।
अर्थ धर्म औ काम मोक्ष कहु, कवन दिसा बसे भाई?
उत्तर कि दक्षिन पूर्व कि पच्छिम, स्वर्ग पताल कि माहीं ।
बिना गोपाल ठौर नहिं कतहूँ, नरक जात धौ काहीं?
अनजाने को स्वर्ग नरक है, हरि जाने को नाहीं?
जेहि डर को सब लोग डरत हैं, सो डर हमरे नाहीं ।
पाप पुन्य की संका नाहीं, स्वर्ग नरक नहिं जाहीं ।
कहैं कबीर सुनो हो संतो, जहाँ का पद है तहाँ तमाहीं?
शब्द 43
पंडित मिथ्या करहु बिचारा । ना वहां सृस्टि ना सिरजनहारा ।
थूल अस्थूल पवन नहिं पावक । रवि ससि धरनि न नीरा ।
ज्योति स्वरूपी काल न तहँवाँ । बचन न आहि सरीरा ।
धर्म कर्म कछु नाहीं उहँवां । न वहाँ बेद बिचारा ।
हरि हर ब्रह्मा नहिं सिव सक्ती । तीर्थउ नाहिं अचारा ।
माय बाप गुरु जहँवां नाहीं । सो दूजा कि अकेला ।
कहैं कबीर जो अबकी बूझै । सोई गुरु हम चेला ।
शब्द 44
बूझहु पंडित करहु बिचारा, पुरुष अहै की नारी?
ब्राह्मन के घर ब्रह्मानी होती, योगी के घर चेली ।
कलिमा पढि पढि भई तुरकिंनी, कलि में रहत अकेली ।
बर नहिं बारि ब्याह नहिं करई, पुत्र जनावनहारी ।
कारे मूँड को एकहु न छांडी, अजहूं आदिकुमारी ।
मैके रहौं जाव नांहि ससूरे, सांई संग न सोवै ।
कहैं कबीर वे जुग जुग जीवै, जाति पांति कुल षोवै ।
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