शब्द 51
बूझ बूझ पंडित मन चित लाय, कबहुँ भरल है कबहुँ सुषाय ।
षन ऊबै षन डूबै ऊन औ गाह, रतन न मिलै पावै नहिं थाह ।
नदिया नहीँ समद बहै नीर, मच्छ न मरे केवट रहे तीर ।
पोहकर नहिं बाँधल तहां घाट, पुरइन नहीं कमल महँ बाट ।
कहैं कबीर यह मन का धोष, बैठा रहै चलन यहै चोष ।
शब्द 52
बूझ लीजै ब्रह्म ग्यानी ।
घोरि घोरि बरषा बरसावै, परिया बूंद न पानी ।
चिंउटी के पग हस्ती बाँधे, छेरी बीगर षावै ।
उदधि मांह ते निकरी छांछरी, चौडे ग्राह करावै ।
मेंढुक सर्प रहत एक संगे, बिलइया स्वान बियाई ।
नित उठि सिंह सियार सो डरपे, अदभुत कथो न जाई ।
कौने संसय मृगा बन घेरे, पारथ बाना मेलै ।
उदधि भूप तें तरुवर डाहै, मच्छ अहेरा षेलै ।
कहैं कबीर यह अदभुत ग्याना, को यह ग्यानहि बूझै ।
बिन पंषै उडि जाइ अकासै, जीवहि मरन न सूझै ।
शब्द 53
वह बिरवा चीन्हे जो कोई, जरा मरन रहित तन होई ।
बिरवा एक सकल संसारा, पेड एक फूटल तिनि डारा ।
मध्य की डार चार फल लागा, साषा पत्र गिनै को वाका ।
बेलि एक त्रिभुवन लपटानी, बाँधे ते छूटहिं नहिं ग्यानी ।
कहैं कबीर हम डाति पुकारा, पंडित होय सो लइ बिचारा ।
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