रमैनी 82
सुख के बृक्ष एक जगत उपाया, समुझि न परल विषय कछु माया
।
छौ क्षत्रि पत्री युग चारी, फल दुइ पाप पुन्य अधिकारी
।
स्वाद अनंत कछु बरनि न जाई, करि चरित्र तेहि मांहि समाई
।
नटवर साज साजिए साजी, जो खेलै सो देखै बाजी ।
मोह बापुरा युक्त न देखा, सिव शक्ति विरंचि नहिं पेखा
।
परदे परदे चलि गई, समुझ परी नहिं बानि ।
जो जानै सो बाचि है, होत सकल की हानि ।
रमैनी 83
क्षत्री करे क्षत्रिया धर्मा, वाके बढे सवाई कर्मा ।
जिन्ह अवधू गुरु ग्यान लखाया, ताकर मन ताही लै धाया ।
क्षत्री सो जो कुटुंबहि जूझै, पांचों मेटी एक कै बूझै ।
जीवहिं मारि जीव प्रतिपालै, देखत जन्म आपनो घालै ।
हालै करै निसानै घाऊ, जूझि परै तहँ मन मतराऊ ।
मनमथ मरै न जीव ही, जीवहि मरन न होय ।
सुन्य सनेही राम बिनु, चले अपन पौ खोय ।
रमैनी 84
तूं जिय आपन दुखहि संभारा, जेहि दुख ब्यापि रहल संसारा
।
माया मोह बंधा सब लोई, अल्प लाभ मूल गौ खोई ।
मोर तोर में सबै बिगूता, जननी उदर गर्भ मा सूता ।
बहुत खेल खेलहिं बहुरूपा, जन भँवरा अस गए बहूता ।
उपजि बिनसि फिर योनी आवै, सुख को लेस न सपनेहु पावै?
दुख संताप कष्ट बहु पावै, सो न मिला जो जरत बुझावै
।
मोर तोर में जरै जग सारा, धृग स्वारथ झूठा हंकारा ।
झूठी आस रहा जग लागी, इनते भागि बहुरि पुनि आगी
।
जेहि हित कै राखेउ सब लोई, सो सयान बांचा नहिं कोई ।
आपु आप चेतै नहीं, कहौं तो रुसवा होय?
कहैं कबीर जो आपुन जागे, अस्ति निरस्ति न होय ।
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