शब्द 27
भाई रे अदभुत रूप अनूप कथो है, कहौं तो को पतियाई ।
जहँ जहँ देषो तहँ तहँ सोई, सब घट रहा समाई ।
लष बिनु सुष दरिद्र बिनु दुष, है नींद बिना सुष सोवै ।
जस बिनु ज्योति रूप बिनु आसिक, रत्न बिहूना रोवै ।
भ्रम बिनु गंजन मनि बिनु निरषै, रूप बिना बहुरूपा ।
स्थिति बिनु सुरति रहस बिनु आनंद, ऐसो चरित अनूपा ।
कहैं कबीर जगत हरि मानिक, देषहु चित अनुमानी ।
परिहरि लाभै लोभ कुटुंब तजि, भजहु न सारंग पानी ।
शब्द 28
भाई रे गइया एक बिरंचि दियो है, भार अभर भौ भाई ।
नौ नारी को पानि पियतु है, तृषा न तेउ बुझाई ।
कोठ बहत्तर औ लौ लावै, बज्र केंवार लगाई ।
षुंटा गाडि डोरि दूढ बांधे, तइयो तोरि पराई ।
चार वृक्ष छव साषा वाके, पत्र अठारह भाई ।
एतिक लै गम कीहिस गइया, गइया अति हरहाई ।
ई सातो औरो हैं सातो, नौ औ चौदह भाई ।
एतिक गइया षाय बढायो, गइया तहुँ न अघाई ।
पुर तामें रहती है गइया, स्वेत सींग हैं भाई ।
अबरन वरन कछू नहिं वाके, षाद्रय अषाद्रयै षाई ।
ब्रह्मा विष्णु षोजि लै आये, सिव सनकादिक भाई ।
सिद्ध अनँत वहि षोज परे हैं, गइया किनहु न पाई ।
कहैं कबीर सुनो हो संतो, जो यह पद अर्थावै ।
जो यह पद को गाय बिचारै, आगे होय निरबाहै ।
शब्द 29
भाई रे नयन रसिक जो जागै ।
पारब्रह्म अबिगत अबिनासों, कैसेहु के मन लागै ।
अमली लोग षुमारी तृस्रा, कहुं सँतोष न पावै ।
काम क्रोध दूनो मतवारे, माया भरि भरि ध्यावै ।
ब्रह्म कलार चढाइन भट्ठी, ले इन्द्री रस चाहै ।
संगहि पोच ह्वै ग्यान पुकारै, चतुरा होय सो नाषै ।
संकठ सोच पोच यह कलिमा, बहुतक ब्याधि सरीरा ।
जहँवा धीर गंभीर अति निस्चल, तहँ उठि मिलहु कबीरा ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें