रमैनी 32
अंध सो दर्पन वेद पुराना, दर्बी कहा महारस जाना ।
जस खर चंदन लादेउ भारा, परिमल बास न जान गवाँरा?
कहहिं कबीर खोजै असमाना, सो न मिला जो जाय अभिमाना
।
रमैनी 33
वेद की पुत्री स्मृति भाई, सो जेंवरि कर लेतहि आई ।
आपुहि बरी आपु गर बंधा, झूठा मोह काल को फंदा ।
बंधवत बंधन छोरि नहि जाई, विषय सरूप भूलि दुनियाई ।
हमरे दिखत सकल जग लूटा, दास कबीर राम कहि छूटा ।
रामहि राम पुकारते, जिभ्या परिगौ रोस ।
सूधा जल पीये नहिं, खोदि पिअन के हौस ।
रमैनी 34
पढि पढि पंडित करि चतुराई, जिन मुक्ती मोहि कहु समुझाई
।
कहँ बसे पुरुष कौन सो गांउ, सो पंडित समुझावहु नाउं ।
चारि वेद ब्रह्मै निज ठाना, मुक्ति का मर्म उनहु नहिं
जाना ।
दान पुन्य उन बहुत बखाना, अपने मरन कि खबरि न जाना
।
एक नाम है अगम गंभीरा, तहवाँ अस्थिर दास कबीरा ।
चिऊंटी जहां न चढि सकै । राई नहिं ठहराय ।
आवागमन कि गम नहीं । तहँ सकलौ जग जाय ।
रमैनी 35
पंडित भूले पढि गुन बेदा, आपु अपनपौ जानु न भेदा ।
संध्या सुमिरन औ षट कर्मा, ई बहु रूप करै अस धर्मा ।
गायत्री युग चारि पढाई, पूछहु जाय मुक्ति किन पाई?
और के छुये लेत हौ छींचा, तुमसे कहहु कौन है नीचा ।
ई गुन गर्व करो अधिकाई, अति कै गर्व न होय भलाई ।
जासु नाम है गर्व प्रहारी, सो कस गर्वहि सकै सहारी ।
कुल मरजादा खोय के, खोजिन पद निरबान ।
अंकुर बीज नसाय के, भये विदेही थान ।
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