रमैनी 28
अस जोलहा को मर्म न जाना, जिन्ह जग आनि पसारिन ताना
।
धरती अकास दुइ गाङ खोदाया, चाँद सूर्य दुइ नरी बनाया
।
सहस्र तार ले पूरन पूरी, अजहूँ बिनै कठिन है दूरी
।
कहहिं कबीर कर्म ते जोरी, सूत कुसूत बिनै भल कोरी ।
रमैनी 29
बज्रहु ते तृन छिन में होई, तृण ते बज्र करै पुनि सोई
।
निझरू नीरू जानि परिहरिया, कर्म के बांधल लालच करिया
।
कर्म धर्म मति बुधि परिहरिया, झूठा नाम साँच लै धरिया ।
रज गति त्रिबिध कीन्ह परकासा, कर्म धर्म बुधि केर विनासा
।
रबि के उदय तारा भए छीना, चर बीचर दोनों में लीना ।
विष के खाये विष नहिं जावै, गारुड सो जो मरत जियावै ।
अलख जे लागी पलक में, पलकहिं में डसि जाय ।
विषधर मंत्र न मानहीं, तो गारुड काह कराय ।
रमैनी 30
औ भूले षट दर्शन भाई, पाषंड भेष रहा लपटाई ।
जीव सीव का आहि न सौना, चारिउ बेद चतुर गुन मौना
।
जैन धर्म का मर्म न जाना, पाती तोरि देव घर आना ।
दवना मरुबा चंपा फूला, मानहु जीव कोटि समतूला ।
औ पृथवी के रोम उचारे, देखत जन्म आपनो हारे ।
मनमथ बिंदु करै असरारा, कलपै बिंदु खसै नहिं द्वारा
।
ताकर हाल होय अदकूचा, छौ दरसन में जैन बिगूचा ।
ग्यान अमर पद बाहरे, नियरे ते है दूरि ।
जो जानै तेहि निकट है, (नातो) रहयो सकल घट पूरि ।
रमैनी 31
स्मृति आहि गुनन के चीन्हा, पाप पुन्य को मारग कीन्हा
।
स्मृति बेद पढे असरारा, पाखंड रूप करै हंकारा ।
पढें बेद अरु करै बडाई, संसय गाँठि अजहुँ नहिं जाई
।
पढि कै सास्त्र जीव बध करई, मूड काटि अगमन कै धरई ।
कहहिं कबीर ई पाखंड, बहुतक जीव सताए ।
अनुभव भाव न दरसई, जियत न आपु लखाय ।
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