शनिवार, जुलाई 14, 2018

अनुराग सागर की कहानी



अनुराग सागर कबीर साहिब और धर्मदास के संवादों पर आधारित महान ग्रन्थ है। इसकी शुरूआत में बताया गया है कि सबसे पहले जब ये सृष्टि नहीं थी। प्रथ्वी, आसमान, सूरज, तारे आदि कुछ भी नहीं था तब केवल परमात्मा ही था।

सिर्फ़ परमात्मा ही शाश्वत है। इसलिये संतमत में और सच्चे जानकार संत परमात्मा के लिये “है” शब्द का प्रयोग करते हैं। उस (परमात्मा) ने कुछ सोचा। (सृष्टि की शुरूआत में उसमें स्वतः एक विचार उत्पन्न हुआ, इससे स्फ़ुरणा (संकुचन जैसा) हुयी)

तब एक शब्द “हुं” प्रकट हुआ।
(जैसे हम लोग आज भी विचारशील होने पर ‘हुं’ करते हैं)
तब उसने सोचा - मैं कौन हूँ?

इसीलिये हर इंसान आज तक इसी प्रश्न का उत्तर खोज रहा है कि मैं कौन हूँ?
(उस समय ये पूर्ण था)

तब उसने एक सुन्दर और आनंददायक दीप की रचना की, और उसमें विराजमान हो गया। फिर उसने एक एक करके एक ही नाल से सोलह अंश यानी सुत प्रकट किये। उनमें पाँचवें अंश कालपुरुष को छोड़कर सभी सुत आनंद को देने वाले थे, और वे सतपुरूष द्वारा बनाये गए हंसदीपों मैं आनंदपूर्वक रहते थे।

इनमें कालपुरूष सबसे भयंकर और विकराल था। वह अपने भाइयों की तरह हंसदीपों में न जाकर मानसरोवर दीप के निकट चला आया, और सत्पुरुष के प्रति घोर तपस्या करने लगा। लगभग चौंसठ युगों तक तपस्या हो जाने पर उसने सतपुरूष के प्रसन्न होने पर तीन लोक स्वर्ग, धरती और पाताल मांग लिए, और फिर से कई युगों तक तपस्या की।

इस पर सतपुरूष ने अष्टांगी कन्या (आदिशक्ति, भगवती आदि) को सृष्टि बीज के साथ कालपुरुष के पास भेजा। (इससे पहले सतपुरूष ने कूर्म नाम के सुत को भेजकर उसकी तपस्या करने की इच्छा की वजह पूछी) अष्टांगी कन्या बेहद सुन्दर और मनमोहक अंगों वाली थी वह कालपुरुष को देखकर भयभीत हो गयी।

कालपुरुष उस पर मोहित हो गया, और उससे रतिक्रिया का आग्रह किया। (यही प्रथम स्त्री पुरुष का काममिलन था) और दोनों रतिक्रिया में लीन हो गए। ये रतिक्रिया बहुत लम्बे समय तक चलती रही, और फ़िर इससे ब्रह्मा, विष्णु, और शंकर का जन्म हुआ।

अष्टांगी कन्या उनके साथ आनन्दपूर्वक रहने लगी पर कालपुरुष की इच्छा कुछ और ही थी? इनके जन्म के उपरांत कुछ समय बाद कालपुरूष अदृश्य हो गया, और भविष्य के लिए आदिशक्ति को निर्देश दे गया।

तब आदिशक्ति ने अपने अंश से तीन कन्यायें उत्पन्न की, और उन्हें समुद्र में छिपा दिया। फ़िर उसने अपने पुत्रों को समुद्र मंथन की आज्ञा दी, और समुद्र से मंथन के द्वारा प्राप्त हुयी तीनों कन्यायें अपने तीन पुत्रों को दे दी। ये कन्यायें सावित्री, लक्ष्मी, और पार्वती थीं। तीनों पुत्रों ने माँ के कहने पर उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार लिया।

तब आद्याशक्ति ने (कालपुरुष के कहे अनुसार, यह बात कालपुरुष दोबारा कहने आया था, क्योंकि पहले अष्टांगी ने जब पुत्रों को इससे पहले सृष्टि रचना के लिये कहा, तो उन्होंने अनसुना कर दिया) अपने तीनो पुत्रों के साथ सृष्टि की रचना की।

आद्याशक्ति ने खुद अंडज यानी अंडे से पैदा होने वाले जीवों को रचा। ब्रह्मा ने पिंडज यानी पिंड से शरीर से पैदा होने वाले जीवों की रचना की। विष्णु ने ऊष्मज यानी पानी गर्मी से पैदा होने वाले जीव कीट, पतंगे, जूं आदि की रचना की। शंकर ने स्थावर यानी पेङ, पौधे, पहाड़, पर्वत आदि जीवों की रचना की, और फिर इन सब जीवों को चार खानों वाली चौरासी लाख योनियों में डाल दिया। इनमें मनुष्य शरीर की रचना सर्वोत्तम थी।

इधर ब्रह्मा, विष्णु, शंकर ने अपने पिता कालपुरुष के बारे में जानने की बहुत कोशिश की पर वे सफल न हो सके। क्योंकि वो अदृश्य था, और उसने आद्याशक्ति से कह रखा था कि वो किसी को उसका पता न बताये। फिर वो सब जीवों के अन्दर ‘मन’ के रूप मैं बैठ गया, और जीवों को तरह तरह की वासनाओं में फ़ंसाने लगा, और समस्त जीव बेहद दुख भोगने लगे।

क्योंकि सतपुरूष ने उसकी क्रूरता देखकर शाप दिया था कि वह एक लाख जीवों को नित्य खायेगा, और सवा लाख को उत्पन्न करेगा। समस्त जीव उसके क्रूर व्यवहार से हाहाकार करने लगे, और अपने बनाने वाले को पुकारने लगे। सतपुरूष को ये जानकर बहुत गुस्सा आया कि काल समस्त जीवों पर बेहद अत्याचार कर रहा है।

(दरअसल काल जीवों को तप्तशिला पर रखकर पटकता और खाता था)

तब सतपुरूष ने ज्ञानीजी (कबीर साहब जो सतपुरूष के सोलह अंश में से एक हैं) को उसके पास भेजा। कालपुरुष और ज्ञानीजी के बीच काफ़ी झङप हुयी, और कालपुरुष हार गया। तप्तशिला पर तङपते जीवों ने ज्ञानीजी से प्रार्थना की कि वो उसे इसके अत्याचार से बचायें।

ज्ञानीजी ने उन जीवों को सतपुरूष का नाम (ढाई अक्षर का महामन्त्र) ध्यान करने को कहा। इस नाम के ध्यान करते ही जीव मुक्त होकर ऊपर (सतलोक) जाने लगे। यह देखकर काल घबरा गया। तब उसने ज्ञानीजी से एक समझौता किया कि जो जीव इस परम नाम (वाणी से परे) को सतगुरू से प्राप्त कर लेगा, वह यहाँ से मुक्त हो जायेगा।

ज्ञानीजी ने कहा - मैं स्वयं आकर सभी जीवों को यह नाम दूंगा। नाम के प्रभाव से वे यहाँ से मुक्त होकर आनन्दधाम को चले जायेंगे।

तब काल ने कहा - मैं और माया (उसकी पत्नी) जीवों को तरह तरह की भोगवासना में फ़ंसा देंगे। जिससे जीव भक्ति भूल जायेगा, और यहीं फ़ंसा रहेगा ।

ज्ञानीजी ने कहा - लेकिन उस सतनाम के अंदर जाते ही जीव में ज्ञान का प्रकाश हो जायेगा, और जीव तुम्हारे सभी चाल समझ जायेगा।

अब काल को चिंता हुयी।

तब उसने बेहद चालाकी से कहा - मैं जीवों को मुक्ति और उद्धार के नाम पर तरह तरह के जाति, धर्म, पूजा, पाठ, तीर्थ, व्रत आदि में ऐसा उलझाऊंगा कि वह कभी अपनी असलियत नहीं जान पायेगा। साथ ही मैं तुम्हारे चलाये गये पंथ में भी अपना जाल फ़ैला दूंगा? इस तरह अल्पबुद्धि जीव यही नहीं सोच पायेगा कि सच्चाई आखिर है क्या? मैं तुम्हारे असली नाम में भी अपने नाम मिला दूंगा आदि।

अब क्योंकि समझौता हो गया था। ज्ञानीजी वापस लौट गये।

वास्तव में मनरूप में यह काल ही है, जो हमें तरह तरह के कर्मजाल मैं फंसाता है, और फिर नरक आदि भोगवाता है। लेकिन वास्तव में यह आत्मा सतपुरूष का अंश होने से बहुत शक्तिशाली है। पर भोग वासनाओं में पड़कर इसकी ये दुर्गति हो गई है। इससे छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय सतगुरू की शरण और महामंत्र का ध्यान करना ही है।

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Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।