धर्मदास
बोला - साहिब, आपके द्वारा
जगन्नाथ मंदिर का बनवाना मैंने सुना । इसके बाद आप कहाँ गये,
कौन से जीव को मुक्त कराया तथा कलियुग का प्रभाव भी कहिये ।
कबीर
साहब बोले - धर्मदास, ‘राजस्थल
देश’ के राजा का नाम ‘बंकेज’ था ।
मैंने
उसे नाम उपदेश दिया, और जीवों के उद्धार के लिये कर्णधार केवट
बनाया ।
राजस्थल
देश से मैं शाल्मलि दीप आया, और वहाँ मैंने एक संत ‘सहते’ जी को चेताया, और उसे
जीवों का उद्धार करने के लिये समस्त गुरू ज्ञान-दीक्षा
प्रदान की ।
फ़िर
मैं वहाँ से दरभंगा आया, जहाँ राजा ‘चतुर्भुज
स्वामी’ का निवास था । उसको भी पात्र जानकर मैंने जीवों को
चेताने हेतु गुरूवाई (जीवों को चेताने और नाम उपदेश देने
वाला) बनाया । उसने जरा भी माया मोह नहीं किया तब मैंने उसे
सत्यनाम देकर गुरूवाई दी ।
धर्मदास, मैंने हंस का निर्मल ज्ञान, रहनी, गहनी, सुमरन आदि इन
कङिहार गुरूओं को अच्छी तरह बताया । वे सब कुल मर्यादा, काम,
मोह आदि विषयों का त्याग कर सारगुणों को जानने वाले हुये ।
चतुर्भुज, बंकेज, सहते जी और चौथे धर्मदास तुम, ये चारों जीव के कङिहार हैं अर्थात जीव को सत्यज्ञान बताकर भवसागर से पार
लगाने वाले हैं । यह मैंने तुमसे अटल सत्य कहा है ।
धर्मदास, अब तुम्हारे हाथ से मुझको जम्बूदीप (भारत) के जीव मिलेंगे । जो मेरे उपदेश को ग्रहण करेगा,
काल-निरंजन उससे दूर ही रहेगा ।
धर्मदास
बोले - साहिब, मैं पाप कर्म करने वाला, दुष्ट और निर्दयी था, और मेरा जीवात्मा सदा भ्रम से अचेत रहा । तब मेरे किस पुण्य से आपने मुझे
अज्ञान निद्रा से जगाया, और कौन से तप से मैंने आपका दर्शन
पाया, वह मुझे आप बतायें ।
कबीर
साहब बोले - तुम्हें समझाने और दर्शन देने के पीछे
क्या कारण था, अब वह तुम मुझसे सुनो । तुम अपने पिछले जन्मों
की बात सुनो, जिस कारण मैं तुम्हारे पास आया ।
संत
सुदर्शन जो द्वापर में हुये वह कथा मैंने तुम्हें सुनाई । जब मैं उसके हंस-जीव को सत्यलोक ले गया तब उसने मुझसे विनती की, और
बोला - सदगुरू, मेरी विनती सुनें और
मेरे माता पिता को मुक्ति दिलायें । हे बन्दीछोङ, उनका
आवागमन मेट कर छुङाने की कृपा करें, यम के देश में उन्होंने
बहुत दुख पाया है । मैंने बहुत तरीके से उनको समझाया परन्तु तब उन्होंने मेरी बात
नहीं मानी, और विश्वास ही नहीं किया ।
लेकिन
उन्होंने भक्ति करने से मुझे कभी नहीं रोका ।
जब मैं
आपकी भक्ति करता तो कभी उनके मन में वैरभाव नहीं होता बल्कि प्रसन्नता ही होती ।
इसी से प्रभु, मेरी विनती है कि आप बन्दीछोङ उनके जीव को
मुक्त करायें ।
जब
सुदर्शन श्वपच ने बारबार ऐसी विनती की तो मैंने उसको मान लिया, और संसार में कबीर नाम से आया । मैं निरंजन के एक वचन से बँधा था फ़िर भी
सुदर्शन श्वपच की विनती पर मैं भारत आया ।
मैं
वहाँ गया, जहाँ संत श्वपच के माता पिता ‘लक्ष्मी’ और ‘नरहर’ नाम से रहते थे ।
भाई
उन्होंने श्वपच के साथ वाली देह छोङ दी थी, और
सुदर्शन के पुण्य से उसके माता पिता चौरासी में न जाकर पुनः मनुष्य देह में
ब्राह्मण होकर उत्पन्न हुये थे ।
जब
दोनों का जन्म हो गया तब फ़िर विधाता ने समय अनुसार उन्हें पति पत्नी के रूप में
मिला दिया । तब उस ब्राह्मण का नाम कुलपति और उसकी पत्नी का नाम महेश्वरी था । बहुत
समय बीत जाने पर भी महेश्वरी के संतान नहीं हुयी थी तब पुत्र प्राप्ति हेतु उसने
स्नान कर सूर्यदेव का व्रत रखा । वह आंचल फ़ैलाकर दोनों हाथ जोङकर सूर्य से
प्रार्थना करती, उसका मन बहुत रोता था । तब उसी समय मैं (कबीर साहब) उसके आंचल में बालक रूप धरकर प्रकट हो
गया ।
मुझे
देखकर महेश्वरी बहुत प्रसन्न हुयी, और मुझे
घर ले गयी और अपने पति से बोली - प्रभु ने मुझ पर कृपा की, और मेरे सूर्य व्रत करने का फ़ल यह बालक मुझको दिया ।
मैं बहुत दिनों तक वहाँ रहा । वे दोनों स्त्री पुरुष मिलकर मेरी बहुत सेवा करते, पर वे निर्धन होने से बहुत दुखी थे ।
मैं बहुत दिनों तक वहाँ रहा । वे दोनों स्त्री पुरुष मिलकर मेरी बहुत सेवा करते, पर वे निर्धन होने से बहुत दुखी थे ।
तब
मैंने ऐसा विचार किया कि पहले मैं इनकी गरीबी दूर करूँ । फ़िर इनको भक्ति मुक्ति
का उपदेश करूँ, इसके लिये मैंने एक लीला की । जब ब्राह्मण
स्त्री ने मेरा पालना हिलाया, तो उसे उसमें एक तौला सोना
मिला ।
फ़िर
मेरे बिछौने से उन्हें रोज एक तौला सोना मिलता था, उससे वे
बहुत सुखी हो गये । तब मैंने उनको सत्य शब्द का उपदेश किया,
और उन दोनों को बहुत तरह से समझाया । परन्तु उनके ह्रदय में मेरा उपदेश नहीं समाया
। बालक जानकर उन्हें मेरी बात पर विश्वास नहीं आया । उस देह में उन्होंने मुझे
नहीं पहचाना, तब मैं वह शरीर त्याग कर गुप्त हो गया ।
तब कुछ
समय बाद उस ब्राह्मण कुलपति और उसकी स्त्री महेश्वरी दोनों ने शरीर छोङा, और मेरे दर्शन के प्रभाव से उन्हें फ़िर से मनुष्य शरीर मिला । फ़िर
दोनों समय अनुसार पति-पत्नी हुये, और
वह चंदनवारे नगर में जाकर रहने लगे ।
इस
जन्म में उस औरत का नाम ‘ऊदा’ और पुरुष का नाम ‘चंदन’ था । तब मैं सत्यलोक से आकर पुनः चंदवारे नगर
में प्रगट हुआ । उस स्थान पर मैंने बालक रूप बनाया, और वहाँ
तालाब में विश्राम किया । तालाब में मैंने कमलपत्र पर आसन लगाया, और आठ पहर वहाँ रहा ।
तब उस
तालाब में ऊदा स्नान करने आयी, और सुन्दर बालक देखकर
मोहित हो गयी । वह मुझे अपने घर ले गयी । उसने अपने पति चंदन साहू को बताया कि ये बालक
किस प्रकार मुझे मिला ।
तब
चंदन साहू बोला - अरे ऊदा, तू मूर्ख
स्त्री है । शीघ्र जाओ और इस बालक को वहीं डाल आओ । वरना हमारी जाति कुटुम्ब के
लोग हम पर हंसेगे, और उनके हंसने से हमें दुख ही होगा ।
जब
चंदन साहू क्रोधित हुआ तो ऊदा बहुत डर गयी ।
तब चंदन साहू अपनी दासी से बोला - इस बालक को ले जा, और तालाब के जल में डाल दे ।
तब चंदन साहू अपनी दासी से बोला - इस बालक को ले जा, और तालाब के जल में डाल दे ।
कबीर
साहब बोले - दासी उस बालक को लेकर चल दी, और तालाब में डालने का मन बनाया । उसी समय मैं अंतर्ध्यान हो गया । यह
देखकर वह बिलख बिलख कर रोने लगी । वह मन से बहुत परेशान थी,
और ये चमत्कार देखकर मुग्ध होती हुयी बालक को खोजती थी पर मुँह से कुछ न बोलती थी
।
इस
प्रकार आयु पूरी होने पर चंदन साहू और ऊदा ने भी शरीर छोङ दिया, और फ़िर दोनों ने मनुष्य जन्म पाया । अबकी बार उन दोनों को जुलाहा कुल
में मनुष्य शरीर मिला । फ़िर से विधाता का संयोग हुआ, और
फ़िर से समय आने पर वे पति-पत्नी बन गये । इस जन्म में उन
दोनों का नाम नीरू, नीमा हुआ ।
नीरू
नाम का वह जुलाहा काशी में रहता था । तब एक दिन जेठ का महीना और शुक्ल पक्ष तथा
बरसाइत पूर्णिमा की तिथि थी । जब नीरू अपनी पत्नी नीमा के साथ लहरतारा तालाब मार्ग
से जा रहा था । तब गर्मी से व्याकुल उसकी पत्नी को जल पीने की इच्छा हुयी, तभी मैं उस तालाब के कमलपत्र पर शिशु रूप में प्रकट हो गया, और बालक्रीङा करने लगा । जल पीने आयी नीमा मुझे देखकर हैरान रह गयी । उसने
दौङकर मुझे उठा लिया, और अपने पति के पास ले आयी ।
तब
नीमा ने मुझे देखकर बहुत क्रोध किया, और कहा -
इस बालक को वहीं डाल दो ।
इस पर
नीमा सोच में पङ गयी ।
तब
मैंने उससे कहा - नीमा सुनो मैं तुम्हें समझाकर कहता हूँ । पिछले
(जन्म के) प्रेम के कारण मैंने तुम्हें
दर्शन दिया । क्योंकि पिछले जन्म में तुम दोनों सुदर्शन के माता पिता थे, और मैंने उसे वचन दिया था कि तुम्हारे माता पिता का अवश्य उद्धार करूँगा
। इसलिये मैं तुम्हारे पास आया हूँ, अब तुम मुझे घर ले चलो, और मुझे पहचान कर अपना गुरू बनाओ । तब मैं तुम्हें सत्यनाम उपदेश दूँगा
जिससे तुम काल-निरंजन के फ़ँदे से छूट जाओगे ।
तब
नीमा ने नीरू की बात का भय नहीं माना, और मुझे
अपने घर ले गयी । इस प्रकार मैं काशी नगर में आ गया, और बहुत
दिनों तक उनके साथ रहा । पर उन्हें मुझ पर विश्वास नहीं आया । वे मुझे अपना बालक
ही समझते रहे, और मेरे शब्दउपदेश पर ध्यान नहीं दिया ।
धर्मदास, बिना विश्वास और समर्पण के जीवन मुक्ति का कार्य नहीं होता । ऐसा निर्णय
करके गुरू के वचनों पर दृढ़तापूर्वक विश्वास करना चाहिये । अतः उस शरीर में नीरू
नीमा ने मुझे नहीं पहचाना, और मुझे अपना बालक जानकर सतसंग
नहीं किया ।
धर्मदास, जब जुलाहा कुल में भी नीरू, नीमा की आयु पूरी हुयी, और उन्होंने फ़िर से शरीर त्याग कर दुबारा मनुष्य रूप में मथुरा में जन्म
लिया । तब मैंने वहाँ मथुरा में जाकर उनको दर्शन दिया । अबकी बार उन्होंने मेरा
शब्दउपदेश मान लिया, और उस औरत का रत्ना नाम हुआ । वह मन
लगाकर भक्ति करती थी । मैंने उन दोनों स्त्री पुरुषों को शब्द नाम उपदेश दिया । इस
तरह वे मुक्त हो गये, और सत्यलोक में जाकर हंस शरीर प्राप्त
किया ।
उन
हंसों को देखकर सत्यपुरुष बहुत प्रसन्न हुये, और उन्हें
‘सुकृत’ नाम दिया ।
जब सत्यलोक में रहते हुये मुझे बहुत दिन बीत गये । तब तक काल-निरंजन ने बहुत जीवों को सताया ।
जब सत्यलोक में रहते हुये मुझे बहुत दिन बीत गये । तब तक काल-निरंजन ने बहुत जीवों को सताया ।
जब
काल-निरंजन जीवों को बहुत दुख देने लगा । तब सत्यपुरुष ने सुकृत को पुकारा और कहा - हे सुकृत, तुम संसार में जाओ,
वहाँ अपार बलवान काल-निरंजन जीवों को बहुत दुख दे रहा है । तुम जीवों को सत्यनाम
संदेश सुनाओ, और हंसदीक्षा देकर काल के जाल से मुक्त कराओ ।
ये
सुनकर सुकृत बहुत प्रसन्न हुये, और वे सत्यलोक से भवसागर
में आ गये ।
इस बार
सुकृत को संसार में आया देखकर काल-निरंजन बहुत प्रसन्न हुआ कि इसको तो मैं अपने
फ़ँदे में फ़ँसा ही लूँगा । तब काल-निरंजन ने बहुत से उपाय अपनाकर सुकृत को
फ़ँसाकर अपने जाल में डाल लिया ।
जब
बहुत दिन बीत गये, और काल ने एक भी जीव को जब सुरक्षित नहीं छोङा, और सबको सताता मारता खाता रहा । तब जीवों ने फ़िर दुखी होकर सत्यपुरुष को
पुकारा, और तब सत्यपुरुष ने मुझे पुकारा ।
सत्यपुरुष
ने कहा - ज्ञानीजी, शीघ्र ही संसार में जाओ । मैंने जीवों के उद्धार के लिये सुकृत अंश भेजा
था, वह संसार में प्रकट हो गया । हमने उसे सारशब्द का रहस्य
समझा कर भेजा था परन्तु वह वापस सत्यलोक लौटकर नहीं आया, और
काल-निरंजन के जाल में फ़ँसकर सुधि-बुधि (स्मृति - अपनी पहचान) भूल गया
।
ज्ञानीजी, तुम जाकर उसे अचेत निद्रा से जगाओ, जिससे मुक्ति पंथ चले । वंश बयालीस हमारा अंश है, जो सुकृत के घर अवतार लेगा । ज्ञानीजी तुम शीघ्र सुकृत के पास जाओ, और उसकी काल फ़ाँस मिटा दो ।
ज्ञानीजी, तुम जाकर उसे अचेत निद्रा से जगाओ, जिससे मुक्ति पंथ चले । वंश बयालीस हमारा अंश है, जो सुकृत के घर अवतार लेगा । ज्ञानीजी तुम शीघ्र सुकृत के पास जाओ, और उसकी काल फ़ाँस मिटा दो ।
कबीर
साहब बोले - धर्मदास, तब
सत्यपुरुष की आज्ञा से मैं तुम्हारे पास आया हूँ ।
धर्मदास, तुम सोचो विचारो कि तुम जैसे ‘नीरू’ से होकर जन्मे हो, और तुम्हारी स्त्री आमिन ‘नीमा’ से होकर जन्मी है । वैसे ही मैं तुम्हारे घर
आया हूँ । तुम तो मेरे सबसे अधिक प्रिय अंश हो, इसलिये मैंने
तुम्हें दर्शन दिया । अबकी बार तुम मुझे पहचानो तब मैं तुम्हें सत्यपुरुष का उपदेश
कहूँगा ।
यह वचन
सुनते ही धर्मदास दौङकर कबीर साहब के चरणों में गिर गये, और रोने लगे ।
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