शुक्रवार, जुलाई 13, 2018

समुद्र और राम की दुश्मनी का कबीर द्वारा निबटारा


धर्मदास बोले - साहिब, इससे आगे क्या हुआ, वह सब भी मुझे सुनाओ ।

कबीर साहब बोले - उस समय राजा इन्द्रदमन उङीसा का राजा था । राजा इन्द्रदमन अपने राज्य का कार्य न्यायपूर्ण तरीके से करता था । द्वापर युग के अन्त में श्रीकृष्ण ने प्रभास क्षेत्र में शरीर त्यागा तब उसके बाद राजा इन्द्रदमन को स्वपन हुआ । स्वपन में श्रीकृष्ण ने उससे कहा तुम मेरा मंदिर बनवा दो । हे राजन, तुम मेरा मंदिर बनवाकर मुझे स्थापित करो ।

जब राजा ने ऐसा स्वपन देखा तो उसने तुरन्त मंदिर बनवाने का कार्य शुरू दिया ।
मंदिर बना । जैसे ही उसका सब कार्य पूरा हुआ तुरन्त समुद्र ने वह मंदिर और वह स्थान ही नष्ट कर डुबो दिया ।

फ़िर जब दुबारा मंदिर बनवाने लगे तो फ़िर से समुद्र क्रोधित होकर दौङा, और क्षण भर में सब डुबोकर जगन्नाथ का मंदिर तोङ दिया । इस तरह राजा ने मंदिर को छह बार बनबाया परन्तु समुद्र ने हर बार उसे नष्ट कर दिया । राजा इन्द्रदमन मंदिर बनवाने के सब उपाय कर हार गया परन्तु समुद्र ने मंदिर नहीं बनने दिया ।

मंदिर बनाने तथा टूटने की यह दशा देखकर मैंने विचार किया । क्योंकि अन्यायी कालनिरंजन ने पहले मुझसे यह मंदिर बनवाने की प्रार्थना की थी, और मैंने उसे वरदान दिया था अतः मेरे मन में बात संभालने का विचार आया, और वचन से बँधा होने के कारण मैं वहाँ गया ।  मैंने समुद्र के किनारे आसन लगाया परन्तु उस समय किसी जीव ने मुझे वहाँ देखा नहीं ।

उसके बाद मैं फ़िर समुद्र के किनारे आया, और वहाँ मैंने अपना चौरा (निवास) बनाया । फ़िर मैंने राजा इन्द्रदमन को स्वपन दिखाया और कहा - अरे राजा, तुम मंदिर बनवाओ, और अब ये शंका मत करो कि समुद्र उसे गिरा देगा । मैं यहाँ इसी काम के लिये आया हूँ ।

राजा ने ऐसा ही किया, और मंदिर बनवाने लगा । मंदिर बनने का काम होते देखकर समुद्र फ़िर चलकर आया । उस समय फ़िर सागर में लहरें उठी, और उन लहरों ने चित्त में क्रोध धारण किया । इस प्रकार वह लहराता हुआ समुद्र उमङ उमङ कर आता था कि मंदिर बनने न पाये । उसकी बेहद ऊँची लहरें आकाश तक जाती थी ।

फ़िर समुद्र मेरे चौरे के पास आया, और मेरा दर्शन पाकर भय मानता हुआ वहीं रुक गया, और आगे नहीं बढ़ा ।

कबीर साहब बोले - तब समुद्र ब्राह्मण का रूप बनाकर मेरे पास आया, और चरण स्पर्श कर प्रणाम किया ।

फ़िर वह बोला - मैं आपका रहस्य समझा नहीं, स्वामी, मेरा जगन्नाथ से पुराना वैर है । श्रीकृष्ण जिनका द्वापर युग में अवतार हुआ था, और त्रेता में जिनका राम रूप में अवतार हुआ था । उनके द्वारा समुद्र पर जबरन पुल बनाने से मेरा उनसे पुराना वैर है
इसीलिये मैं यहाँ तक आया हूँ । आप मेरा अपराध क्षमा करें, मैंने आपका रहस्य पाया । आप समर्थ पुरुष हैं ।

प्रभु, आप दीनों पर दया करने वाले हैं । आप इस जगन्नाथ (श्रीराम) से मेरा बदला दिलवाईये । मैं आपसे हाथ जोङकर विनती करता हूँ, मैं उसका पालन करूँगा । जब श्रीराम ने लंका देश के लिये गमन किया था तब वे सब मुझ पर सेतु बाँधकर पार उतरे ।

जब कोई बलवान किसी दुर्बल पर ताकत दिखाकर बलपूर्वक कुछ करता है तो समर्थ प्रभु उसका बदला अवश्य दिलवाते हैं । हे समर्थ स्वामी, आप मुझ पर दया करो, मैं उससे बदला अवश्य लूँगा ।
कबीर साहब बोले - समुद्र, जगन्नाथ से तुम्हारे वैर को मैंने समझा । इसके लिये मैंने तुम्हें द्वारिका दिया तुम जाकर श्रीकृष्ण के द्वारिका नगर को डुबो दो ।

यह सुनकर समुद्र ने मेरे चरण स्पर्श किये, और वह प्रसन्न होकर उमङ पङा तथा उसने द्वारिका नगर डुबो दिया । इस प्रकार समुद्र अपना बदला लेकर शान्त हो गया । इस तरह मंदिर का काम पूरा हुआ ।

तब जगन्नाथ ने पंडित को स्वपन में बताया कि सत्यकबीर मेरे पास आये हैं, उन्होंने समुद्र के तट पर अपना चौरा बनाया है । समुद्र के उमङने से पानी वहाँ तक आया, और सत्यकबीर के दर्शन कर पीछे हट गया । इस प्रकार मेरा मंदिर डूबने से उन्होंने बचाया ।

तब वह पंडा पुजारी समुद्र तट पर आया, और स्नान कर मंदिर में चला गया । परन्तु उस पंडित ने ऐसा पाखंड मन में विचारा कि पहले तो उसे म्लेच्छ का ही दर्शन करना पङा है । क्योंकि मैं पहले कबीर चौरा तक आया परन्तु जगन्नाथ प्रभु का दर्शन नहीं पाया । (पंडा म्लेच्छ कबीर साहब को समझ रहा है)

धर्मदास, तब मैंने उस पंडे की बुद्धि दुरुस्त करने के लिये एक लीला की, वह मैं तुमसे छिपाऊँगा नहीं । जब पंडित पूजा के लिये मंदिर में गया तो वहाँ एक चरित्र हुआ । मंदिर में जो मूर्ति लगी थी, उसने कबीर का रूप धारण कर लिया, और पंडित ने जगन्नाथ की मूर्ति को वहाँ नहीं देखा । क्योंकि वह बदल कर कबीर रूप हो गयी ।

पूजा के लिये अक्षत पुष्प लेकर पंडित भूल में पङ गया कि यहाँ ठाकुर जी तो हैं ही नहीं फ़िर भाई किसे पूजूँ । यहाँ तो कबीर ही कबीर है ।

तब ऐसा चरित्र देखकर उस पंडा ने सिर झुकाया, और बोला - स्वामी, मैं आपका रहस्य नहीं समझ पाया, आप में मैंने मन नहीं लगाया । मैंने आपको नहीं जाना, उसके लिये आपने यह चरित्र दिखाया । प्रभु, मेरे अपराध को क्षमा कर दो ।

कबीर साहब बोले - ब्राह्मण, मैं तुमसे एक बात कहता हूँ, जिसे तू कान लगाकर सुन । मैं तुझे आज्ञा देता हूँ कि तू ठाकुर जगन्नाथ की पूजा कर और दुविधा का भाव छोङ दे । वर्ण, जाति, छूत, अछूत, ऊँच, नीच, अमीर, गरीब का भाव त्याग दे, क्योंकि सभी मनुष्य एक समान हैं । इस जगन्नाथ मंदिर में आकर जो मनुष्य में भेदभाव मानता हुआ भोजन करेगा, वह मनुष्य अंगहीन होगा । भोजन करने में जो छूत-अछूत रखेगा, उसका शीश उल्टा (चमगादङ) होगा ।

धर्मदास, इस तरह पंडित को पक्का उपदेश करते हुये मैंने वहाँ से प्रस्थान किया ।

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Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।