धर्मदास
बोले - साहिब, अब आप आगे की बात
कहो । चार खानियों की रचना कर फ़िर क्या किया? यह मुझे
स्पष्ट कहो ।
कबीर
साहब बोले - धर्मदास, यह काल-निरंजन
की चालबाजी है । जिसे पंडित, काजी नहीं समझते, और वे इस ‘भक्षक काल-निरंजन’ को
भ्रमवश स्वामी (भगवान आदि) कहते हैं, और सत्यपुरुष के नाम, ज्ञानरूपी अमृत को त्याग कर
माया का विषयरूपी विष खाते हैं ।
इन
चारो अष्टांगी (देवी आदिशक्ति) ब्रह्मा,
विष्णु, महेश ने मिलकर यह सृष्टि रचना की और
उन्होंने जीव की देह को कच्चा रंग दिया । इसीलिये मनुष्य की देह में आयु समय आदि
के अनुसार बदलाव होता रहता है ।
पाँच तत्व
प्रथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश और तीन गुण सत, रज,
तम से देह की रचना हुयी है । उसके साथ चौदह चौदह यम लगाये गये हैं ।
इस प्रकार मनुष्य देह की रचना कर काल ने उसे मार खाया तथा फ़िर फ़िर.. उत्पन्न किया । इस तरह मनुष्य सदा जन्म मरण के चक्कर में पङा ही रहता है ।
ॐकार
वेद का मूल अर्थात आधार है, और इस ॐकार में ही संसार भूला भूला फ़िर रहा
है । संसार के लोगों ने ॐकार को ही ईश्वर परमात्मा सब कुछ मान लिया । वे इसमें उलझ
कर सब ज्ञान भूल गये, और तरह तरह से इसी की व्याख्या करने
लगे ।
यह
ॐकार ही निरंजन है । परन्तु आदिपुरुष का सत्यनाम जो विदेह है, उसे गुप्त समझो । काल माया से परे, वह ‘आदिनाम’ गुप्त ही है ।
धर्मदास, फ़िर ब्रह्मा ने अठासी हजार ऋषियों को उत्पन्न किया, जिससे काल-निरंजन का प्रभाव बहुत बढ़ गया (क्योंकि वे
उसी का गुण तो गाते हैं) ब्रह्मा से जो जीव उत्पन्न हुये, वो ब्राह्मण कहलाये । ब्राह्मणों ने आगे इसी शिक्षा के लिये शास्त्रों का
विस्तार कर दिया (इससे काल-निरंजन का प्रभाव और भी बढ़ा, क्योंकि उनमें उसी की बनावटी महिमा गायी गयी है)
ब्रह्मा
ने स्मृति, शास्त्र, पुराण आदि
धर्मग्रन्थों का विस्त्रत वर्णन किया, और उसमें समस्त जीवों
को बुरी तरह उलझा दिया (जबकि परमात्मा को जानने का सीधा सरल
आसान रास्ता ‘सहज-योग’ है) जीवों को ब्रह्मा ने भटका दिया, और शास्त्र में तरह तरह के कर्म कांड, पूजा,
उपासना की नियम विधि बताकर जीवों को सत्य से विमुख कर भयानक
काल-निरंजन के मुँह में डालकर उसी (अलख निरंजन) की महिमा को बताकर झूठा ध्यान (और ज्ञान) कराया ।
इस तरह
‘वेदमत’ से सब भ्रमित हो
गये, और सत्यपुरुष के रहस्य को न जान सके ।
धर्मदास, निरंकार (निरंकारी) निरंजन ने
यह कैसा झूठा तमाशा किया, उस चरित्र को भी समझो । काल-निरंजन
(मन द्वारा) आसुरी भाव उत्पन्न कर
प्रताङित जीवों को सताता है । देवता, ऋषि, मुनि सभी को प्रताङित करता है फ़िर अवतार (दिखावे के
लिये निजमहिमा के लिये) धारण कर रक्षक बनता है (जबकि सबसे बङा भक्षक स्वयं हैं) और फ़िर असुरों का
संहार (के नाटक) करता है, और इस तरह सबसे अपनी महिमा का विशेष गुणगान करवाता है ।
जिसके
कारण जीव उसे शक्ति संपन्न और सब कुछ जानकर उसी से आशा बाँधते हैं कि यही हमारा
महान रक्षक है। वह (विभिन्न अवतार द्वारा) अपनी
रक्षक कला दिखाकर अन्त में सब जीवों का भक्षण कर लेता है (यहाँ
तक कि अपने पुत्र ब्रह्मा, विष्णु, महेश
को भी नहीं छोङता) जीवन भर उसके नाम, ज्ञान,
जप, पूजा आदि के चक्कर में पङा जीव अन्त समय
पछताता है । जब काल उसे बेरहमी से खाता है (मृत्यु से कुछ
पहले अपनी आगामी गति पता लग जाती है)
धर्मदास, अब आगे सुनो, ब्रह्मा ने अड़सठ तीर्थ स्थापित कर पाप,
पुण्य और कर्म, अकर्म का वर्णन किया । फ़िर
ब्रह्मा ने बारह राशि, सत्ताईस नक्षत्र, सात वार और पंद्रह तिथि का विधान
रचा इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र की रचना हुयी । अब आगे की बात सुनो ।
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