आदिरमैनी (गरीबदास)
आदिरमैनी अदली सारा, जा दिन होते धुंधकारा।
सतपुरुष कीन्हा प्रकाशा, हम होते तखत कबीर खवासा।
मनमोहिनी सिरजी माया, सतपुरुष एक ख्याल बनाया।
धर्मराय सिरजे दरबानी, चौसठ जुग तप सेवा ठानी।
पुरुष प्रथ्वी जाकू दीनी, राज करो देवा आधीनी।
इकीस ब्रह्माण्ड राज तुम दीन्हा, मन की इच्छा सब जुग
लीन्हा।
मायामूल रूप एक छाजा, मोहि लिये जिनहू
धर्मराजा।
धर्म का मन चंचलचित धारा, मन माया का रूप विचारा।
चंचल चेरी चपल चिरागा, या के परसे सरबस जागा।
धर्मराय किया मन का भागी, विषय वासना संग से जागी।
आदिपुरुष अदली अनरागी, धर्मराय दिया दिल से
त्यागी।
पुरुष लोक से दिया ढहाही, अगम दीप चल आये भाई।
सहजदास जिस दीप रहंता, कारण कौन कौन कुल पंथा।
धर्मराय बोले दरबानी, सुनो सहज दास
ब्रह्मज्ञानी।
चौंसठ जुग हम सेवा कीन्ही, पुरुष प्रथ्वी हम कू
दीन्ही।
चंचलरूप भया मन बौरा, मनमोहिनी ठगिया भौंरा।
सतपुरुष के ना मन भाये, पुरुष लोक से हम चलि
आये।
अगरदीप सुनत बङभागी, सहजदास मेटो मन पागी।
बोले सहजदास दिल दानी, हम तो चाकर सत सहदानी।
सतपुरुष से अरज गुजारूँ, जब तुम्हार बिवाण
उतारूँ।
सहजदास को कीया पयाना, सत्यलोक को लिया परवाना।
सतपुरुष साहिब सरबंगी, अविगत अदली अचल अभंगी।
धर्मराय तुम्हरा दरबानी, अगरदीप चलि गये प्रानी।
कौन हुकुम करी अरज अवाजा, कहाँ पठावो उस धर्मराजा।
भई अवाज अदली एक सांचा, विषयलोक जा तीन्यू बाचा।
सहज विमान चले अधिकाई, छिन मा अगरदीप चलि आई।
हम तो अरज करी अनरागी, तुम विषयलोक जावो बङभागी
।
धर्मराय के चले विमाना, मानसरोवर आये प्राना।
मानसरोवर रहन न पाये, दरै कबीर थाना लाये।
बंकनाल की विषमी बाटी, तहाँ कबीरा रोकी घाटी।
इन पाँचों मिल जगत बँधाना, लख चौरासी जीव संताना।
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर माया, धर्मराय का राज पठाया।
योह खोखापुर झूठी बाजी, भिसति बैकुण्ठ दगा सी
साजी।
क्रतिम जीव भुलाने भाई, निजघर की तो खबर न पाई।
सवा लाख उपजें नित हँसा, एक लाख बिनसे नित अंशा।
उत्पति खपति प्रलय फ़ेरी, हर्ष शोक जोरा जम जेरी।
पाँचों तत्व है प्रलय माहीं, सतगुण रजगुण तमगुण झांई।
आठों अंग मिली है माया, पिण्ड ब्रह्माण्ड सकल
भरमाया।
या में सुरत शब्द की डोरी, पिण्ड ब्रह्माण्ड लगी है
खोरी।
स्वांसा पारस गहि मन राखो, खोल कपाट अमीरस चाखो।
सुनाऊँ हँस शब्द सुन दासा, अगम दीप है अंग है वासा।
भवसागर जम दण्ड जमाना, धर्मराय का है तलबाना।
पाँचों ऊपर पद की नगरी, बाट विहंगम बंकी डगरी।
हमरा धर्मराय सों दावा, भवसागर में जीव भरमावा।
हम तो कहें अगम की वानी, जहाँ अविगत अदली आप
बिनानी।
बन्दीछोङ हमारा नाम, अजर अमर है स्थीर ठांम।
जुगन जुगन हम कहते आये, जमजौरा से हँस छुटाये।
जो कोई माने शब्द हमारा, भवसागर नहीं भरमे धारा।
या में सुरत शब्द का लेखा, तन अन्दर मन कहो कीन्ही
देखा।
दास गरीब अगम की वानी, खोजा हँसा शब्द सहदानी।
माया आदि निरंजन भाई, आपै जाये आपै खाई।
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर चेला, ओऽहम सोऽहं का है खेला।
शिखर सुन्न में धर्म अन्यायी, जिन शक्ति डायन महल
पठाई।
लाख ग्रास नित उठ दूती, माया आदि तखत की कूती।
सवा लाख घङिये नित भांडे, हँसा उतपति प्रलय डांडे।
ये तीनों चेला बटपारी, सिरजे पुरुषा सिरजी
नारी।
खोखापुर में जीव भुलाये, स्वपना बहिस्त बैकुण्ठ
बनाये।
यो हरहट का कुआ लोई, या गल बँधया है सब कोई।
कीङी कुंजर और अवतारा, हरहट डोरी बँधे कई बारा।
अरब अलील इन्द्र हैं भाई, हरहट डोरी बँधे सब आई।
शेष महेश गणेश्वर ताही, हरहट डोरी बँधे सब आहीं।
शुक्रादिक ब्रह्मादिक देवा, हरहट डोरी बँधे सब खेवा।
कोटिक कर्ता फ़िरता देखा, हरहट डोरी कहूँ सुन
लेखा। हरहट - रहट
चतुर्भुजी भगवान कहावे, हरहट डोरी बँधे सब आवे।
यो है खोखापुर को कुआ, या में पङा सो निश्चय
मुआ।
माया काली नागिनी, अपने जाये खात।
कुण्डली में छोङे नहीं, सौ बातों की बात।
अनन्त कोटि अवतार हैं, माया के गोविन्द।
कर्ता हो हो अवतरे, बहुर पङे जग फ़ँद।
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर माया, और धर्मराय कहिये।
इन पाँचों मिल प्रपंच बनाया, वाणी हमरी लहिये।
इन पाँचों मिल जीव अटकाये, जुगन जुगन हम आन छुटाये।
बन्दीछोङ हमारा नाम, अजर अमर स्थीर है ठाम।
पीर पैगम्बर कुतुब औलिया, सुर नर मुनिजन ज्ञानी।
ये ताको राह न पाया, जम के बँधे प्रानी।
धर्मराय की धूमा धामी, जम पर जंग चलाऊँ।
जोरा को तो जान न दूँगा, बाँध अदल घर लाऊँ।
काल अकाल दोऊ को मोसूँ, महाकाल सिर मूँङूँ।
मैं तो तखत हजूरी हुकुमी, चोर खोज के ढूँङूँ।
मूलमाया मग में बैठी, हँसा चुन चुन खाई।
ज्योतिस्वरूपी भया निरंजन, मैं ही कर्ता भाई।
सहस अठासी दीप मुनीश्वर, बँधे मुला डोरी।
एत्या में जम का तलबाना, चलिये पुरुष की शोरी।
मूला का तो माथा दागूँ, सत की मोहर करूँगा।
पुरुष दीप को हँस चलाऊँ, दरा न रोकन दूँगा।
हम तो बन्दी छोङ कहावा, धर्मराय है चकवे।
सतलोक की सकल सुनावा, वाणी हमरी अखवे।
नौ लख पट्टन ऊपर खेलूँ, साहदरे कू रोकूँ।
द्वादश कोटि कटक सब काटूँ, हँस पठाऊँ मोखूँ।
चौदह भुवन गमन है मेरा, जल थल में सरबंगी।
खालिक खलक खलक में खालिक, अविगत अचल अभंगी।
अगर अलील चक्र है मेरा, जित से हम चल आये।
पाँचों पर परवाना मेरा, बाँध छुटावन्न धाये।
जहँ ओऽम ओंऽकार निरंजन नाहीं, ब्रह्मा विष्णु वेद नहीं
जाँहीं।
जहाँ करता नहीं जान भगवाना, काया माया पिण्ड न
प्राणा।
पाँच तत्व तीनों गुण नाहीं, जोरा काल दीप नहिं जाही।
अमर करूँ सतलोक पठाऊँ, ताते बन्दीछोङ कहाऊँ।
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शिव ब्रह्मा का राज, इन्द्र गिनती कहाँ।
चार मुक्ति बैकुण्ठ, समझ येता लहया।
शंख जुगन की जूनी, उम्र बङ धारिया।
जा जननी कुर्बान सु, कागज पारिया।
येती उम्र बुलन्द, मरेगा अन्त रे।
सतगुरू लगे न कान, भेंटे न सन्त रे।
10 टिप्पणियां:
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बहुत ही सुंदर पंक्तियां है
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