कबीर
साहब बोले - धर्मदास, तब यह सब रानी
ने मेरे पास आकर कहा, और मैंने उसे विघ्न डालकर बुद्धि
फ़ेरने वाले काल-निरंजन का चरित्र सुनाया । उसने राजा की बुद्धि किस तरह फ़ेर दी, और इसके बाद मैंने रानी को भविष्य के बारे में बताया ।
मैंने
रानी से कहा - रानी सुनो, काल-निरंजन
अपनी कला से छल का रूप धारण करेगा । साँप बनकर कालदूत तुम्हारे पास आयेगा, और तुम्हें डसेगा, ऐसा मैं तुम्हें पहले ही बताये
देता हूँ । इसलिये मैं तुमको बिरहुली मन्त्र बताता हूँ,
जिससे कालरूपी सर्प का सब जहर दूर हो जायेगा ।
फ़िर
यम तुमसे दूसरा धोखा करेगा । वह हंस वर्ण का सफ़ेद रूप बनाकर तुम्हारे पास आयेगा, और मेरे समान ज्ञान तुम्हें समझायेगा ।
वह
तुमसे कहेगा - रानी, मुझे पहचान मैं
काल-निरंजन का मान मर्दन करने वाला हूँ, और मेरा नाम ज्ञानी
करुणामय है, इस प्रकार काल तुम्हें ठगेगा । मैं उसका हुलिया
भी तुम्हें बताता हूँ । कालदूत का मस्तक छोटा होगा, और उसकी
आँखों का रंग बदरंग होगा, उसके दूसरे सब अंग श्वेत रंग के
होंगे । ये सब काल के लक्षण मैंने तुम्हें बता दिये ।
तब
रानी ने घबरा कर मेरे चरण पकङ लिये, और बोली -
प्रभु, मुझे सत्यलोक ले चलो यह तो यम का देश
है । जिससे मेरे सब दुख कष्ट मिट जायें ।
मैंने
कहा - रानी, सत्यनाम दीक्षा से
यम से तुम्हारा सम्बन्ध टूट गया है, और तुम सत्यपुरुष की
आत्मा हो गयी हो । अब तुम इस सत्यनाम का सुमरन करो, तब ये
प्रपंची काल-निरंजन तुम्हारा क्या बिगाङ लेगा? जब तक
तुम्हारी आयु पूरी न हो, इसी नाम का सुमरन करो । जब तक आयु
का ठेका पूरा न हो, जीव सत्यलोक नहीं जा सकता ।
इस
काल-निरंजन की कला बहुत भयंकर है । वह संसार में जीवों के पास हाथी रूप में आता है, परन्तु सिंह रूपी सत्यनाम का सुमरन करते ही सुमरने वाले का भय काल-निरंजन
मानता है, और सामने नहीं आता ।
रानी
बोली - साहिब, जब काल-निरंजन
सर्प बनकर मुझे सताये, और हंस रूप धारण कर भरमाये । तब फ़िर आप
मेरे पास आ जाना, और मेरी हंस जीवात्मा को सत्यलोक ले जाना, यही मेरी विनती है ।
कबीर
साहब बोले - रानी, कालसर्प और मानव
रूप की कला धरकर तुम्हारे पास आयेगा, तब मैं उसका मान मर्दन
करूँगा । मुझे देखते ही काल भाग जायेगा । उसके पीछे मैं तुम्हारे पास आऊँगा, और तुम्हारे जीव को सत्यलोक ले जाऊँगा ।
धर्मदास, इतना कहकर मैंने स्वयं को छुपा लिया, और तब तक्षक
सर्प बनकर कालदूत आया । जब आधी रात हो गयी थी तब रानी अपने महल में आकर पलंग पर
लेट गयी और सो गयी । उसी समय तक्षक ने आकर रानी के माथे में डस लिया ।
रानी
ने जल्दी ही राजा से कहा - तक्षक ने मुझे डस लिया है ।
इतना
सुनते ही राजा व्याकुल हो गया, और विष उतारने वाले
गारुङी (ओझा) को बुलाया । रानी
इन्द्रमती ने साहिब में सुरति लगाकर उनका दिया बिरहुली मन्त्र जपा ।
और
गारुङी से कहा - तुम दूर जाओ, तुम्हारी
आवश्यकता नहीं है ।
रानी
ने राजा से कहा - सदगुरू ने मुझे बिरहुली मन्त्र दिया है, जिससे मुझ पर विष का प्रभाव नहीं होगा ।
ऐसा
कहते हुये जाप करती हुयी रानी उठ कर खङी हो गयी । राजा चन्द्रविजय अपनी रानी को
ठीक देखकर बहुत प्रसन्न हुआ ।
धर्मदास, रानी के बिना किसी नुकसान के ठीक हो जाने पर वह कालदूत वहाँ गया ।
जहाँ
ब्रह्मा, विष्णु, महेश थे, और बोला - मेरे विष का तेज भी इन्द्रमती को नहीं
लगा । सत्यपुरुष के नाम प्रताप से सारा विष दूर हो गया ।
विष्णु
ने कहा - यमदूत सुन, तुम अपने सब
अंग सफ़ेद बना लो । मेरी बात मानो, और छल करके रानी को ले आओ
।
तब उस
कालदूत ने ऐसा ही किया, और रानी के पास मेरे (कबीर
जैसे) वेश में आकर बोला - रानी, तुम क्यों उदास हो, मैंने तुम्हें दीक्षा मन्त्र
दिया है । तुम जानबूझ कर ऐसी अनजान क्यों हो रही हो । रानी,
मेरा नाम करुणामय है, मैं काल को मारकर उसकी ऐसी पिसाई कर
दूँगा । जब काल ने तक्षक बनकर तुम्हें डसा, तब भी मैंने
तुम्हें बचाया । तुम पलंग से उतरकर मेरे चरण स्पर्श करो, और
अपनी मान बङाई छोङो । मैं तुम्हें प्रभु के दर्शन कराऊँगा ।
लेकिन
मेरे द्वारा पहले ही बताये जाने से रानी ने उसको पहचान लिया । और उसकी आँख में तीन
रेखायें देखीं, पीली, सफ़ेद और लाल । फ़िर
उसका छोटा मस्तक देखा ।
फिर
रानी मेरे वचनों को याद करती हुयी बोली - यमदूत, तुम अपने घर जाओ, मैंने तुम्हें पहचान लिया है । कौवा
बहुत सुन्दर वेश बनाये परन्तु वह हंस की सुन्दरता नहीं पा सकता, वैसा ही मैंने तुम्हारा रूप देखा । मेरे समर्थ गुरू ने मुझे पहले ही सब
बता दिया था ।
यह
सुनकर यमदूत ने बहुत क्रोध किया, और बोला - मैंने कितना बार बार तुम्हें कहकर समझाया फ़िर भी तुम नहीं मानी ।
तुम्हारी बुद्धि फ़िर गयी है ।
ऐसा
कहकर वह रानी के पास आया, और उसने रानी को थप्पङ मारा । जिससे रानी भूमि
पर गिर गयी, और उसने मेरा (कबीर)
सुमरिन किया, और बोली - हे
सदगुरू, मेरी सहायता
करो, मुझको ये क्रूर काल बहुत दुख दे रहा है ।
धर्मदास, मेरा यह स्वभाव है कि भक्त की पुकार सुनते ही मुझसे नहीं रहा जाता । इसलिये
मैं क्षण भर में इन्द्रमती के पास आ गया । मुझे देखते ही रानी को बहुत प्रसन्नता
हुयी । मेरे आते ही काल वहाँ से चला गया । उसके थप्पङ से जो अशुद्धि हुयी थी, मेरे दर्शन से दूर हो गयी ।
तब
रानी बोली - साहिब, मुझे यम की छाया
की पहचान हो गयी । मेरी एक विनती सुनिये, अब मैं मृत्युलोक
में नहीं रहना चाहती । साहिब, मुझे अपने देश सत्यलोक ले
चलिये, यहाँ तो बहुत काल कलेश है ।
यह
कहकर वह उदास हो गयी ।
धर्मदास, उसकी ऐसी विनती सुनकर मैंने उस पर से काल का कठिन प्रभाव समाप्त कर दिया
। फ़िर उसकी आयु का ठीका (शेष आयु का समय - समय से पहले पूरा करना) पूरा भर दिया, और रानी के हंस-जीव को लेकर सत्यलोक चला गया ।
मैंने
उसे लेकर मान-सरोवर दीप पहुँचाया । जहाँ पर माया कामिनी
किलोल क्रीङा कर रही थी । अमृत-सरोवर से उसे अमृत चखाया तथा कबीर
सागर पर उसका पाँव रखवाया । उसके आगे सुरति सागर था, वहाँ
पहुँचते ही रानी की जीवात्मा प्रकाशित हो गयी ।
तब उसे
सत्यलोक के द्वार पर ले गया, जिसे देखकर रानी ने परम-सुख अनुभव किया । सत्यलोक के द्वार पर रानी की हंस-आत्मा
को देखकर, वहाँ के हंसों ने दौङकर रानी को अपने से लिपटा
लिया ।
और
स्वागत करते हुये कहा - तुम धन्य हो, जो करुणामय
स्वामी को पहचान लिया ।
अब
तुम्हारा काल-निरंजन का फ़ंदा छूट गया,
और तुम्हारे सब दुख द्वंद मिट गये । हे इन्द्रमती, मेरे साथ
आओ, तुम्हें सत्यपुरुष के दर्शन कराऊँ ।
ऐसा
कहकर मैंने सत्यपुरुष ने विनती की - हे
सत्यपुरुष, अब हंसों के पास आओ, और एक
नये हंस को दर्शन दो । हे बन्दीछोङ, आप महान कृपा करने वाले
हो । हे दीनदयालु दर्शन दो ।
तब
पुष्पदीप का पुष्प खिला, और वाणी हुयी - हे योग-संतायन सुनो अब हंसों को ले आओ, और दर्शन करो ।
तब
ज्ञानी हंसों के पास आये, और उन्हें ले जाकर सत्यपुरुष का दर्शन कराया ।
सब हंसों ने सत्यपुरुष को दण्डवत प्रणाम किया । तब आदिपुरुष ने चार अमृत फ़ल दिये
।
जिसे
सब हंसों ने मिलकर खाया ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें