शुक्रवार, जुलाई 13, 2018

कपटी काल-निरंजन का चरित्र


कबीर बोले - धर्मदास, अब इस कपटी काल-निरंजन का चरित्र सुनो, किस प्रकार वह जीवों की छल बुद्धि कर अपने जाल में फ़ँसाता है । इसने कृष्ण अवतार धर कर गीता की कथा कही । परन्तु अज्ञानी जीव इसके चाल रहस्य को नहीं समझ पाता । अर्जुन श्रीकृष्ण का सच्चा सेवक था, और श्रीकृष्ण की भक्ति में लगन लगाये रहता था ।

श्रीकृष्ण ने उसे सब सूक्ष्म ज्ञान कहा । सांसारिक विषयों से लगाव और सांसारिक विषयों से परे आत्म, मोक्ष सब कुछ सुनाया । परन्तु बाद में काल अनुसार उसे मोक्षमार्ग से हटाकर सांसारिक कर्म कर्तव्य में लगने को प्रेरित किया । जिसके परिणाम स्वरूप भयंकर महाभारत युद्ध हुआ ।

श्रीकृष्ण ने गीता के ज्ञान उपदेश में पहले दया, क्षमा आदि गुण उपदेश के बारे में बताया, और ज्ञान विज्ञान कर्मयोग आदि कल्याण देने वाले उपदेशों का वर्णन किया ।
जबकि अर्जुन सत्यभक्ति में लगन लगाये था तथा वह श्रीकृष्ण को बहुत मानता था ।
पहले श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मुक्ति की आशा दी परन्तु बाद में उसे नरक में डाल दिया । कल्याणदायक ज्ञानयोग का त्याग कराकर उसे सांसारिक कर्म-कर्तव्य की ओर घुमा दिया । जिससे कर्म के वश हुये अर्जुन ने बाद में बहुत दुख पाया । मीठा अमृत दिखाकर उसका लालच देकर धोखे से विष समान दुख दे दिया ।

इस प्रकार काल जीवों को बहला फ़ुसला कर सन्तों की छवि बिगाङता है, और उन्हें मुक्ति से दूर रखता है । जीवों में सन्तों के प्रति अविश्वास और संदेह उत्पन्न करता है ।
इस काल-निरंजन की छल बुद्धि कहाँ कहाँ तक गिनाऊँ ।

उसे कोई कोई विवेकी सन्त ही पहचानता है । जब कोई ज्ञानमार्ग में पक्का रहता है तभी उसे सत्यमार्ग सूझता है । तब वह यम के छल कपट को समझता है, और उसे पहचानता हुआ उससे अलग हो जाता है । सदगुरू की शरण में जाने पर यम का नाश हो जाता है, तथा अटल अक्षय-सुख प्राप्त होता है ।

धर्मदास बोले - प्रभु, इस काल-निरंजन का चरित्र मैंने समझ लिया । अब आप ‘सत्य-पंथ की डोरी’ कहो, जिसको पकङ कर जीव यम-निरंजन से अलग हो जाता है ।

कबीर बोले - धर्मदास, मैं तुमको सत्यपुरुष की डोरी की पहचान कराता हूँ ।
सत्यपुरुष की शक्ति को जब यह जीव जान लेता है । तब काल कसाई उसका रास्ता नहीं रोक पाता । सत्यपुरुष की शक्ति उनके एक ही नाल से उत्पन्न सोलह सुत हैं, उन शक्तियों के साथ ही जीव सत्यलोक को जाता है ।

बिना शक्ति के पंथ नहीं चल सकता । शक्तिहीन जीव तो भवसागर में ही उलझा रहता है । ये शक्तियाँ सदगुणों के रूप में बतायी गयी हैं । ज्ञान, विवेक, सत्य, संतोष, प्रेमभाव, धीरज, मौन, दया, क्षमा, शील, निहकर्म, त्याग, वैराग्य, शांति, निज-धर्म ।
दूसरों का दुख दूर करने के लिये ही तो करुणा की जाती है । परन्तु अपने आप भी करुणा करके अपने जीव का उद्धार करे, और सबको मित्र समान समझ कर अपने मन में धारण करे ।

इन शक्ति स्वरूप सदगुणों को ही धारण कर जीव सत्यलोक में विश्राम पाता है अतः मनुष्य जिस भी स्थान पर रहे अच्छी तरह से समझ बूझ कर सत्य रास्ते पर चले ।
और मोह, ममता, काम, क्रोध आदि दुर्गुणों पर नियंत्रण रखे । इस तरह इस डोर के साथ जो सत्यनाम को पकङता है, वह जीव सत्यलोक जाता है ।

धर्मदास बोले - प्रभु, आप मुझे पंथ का वर्णन करो, और पंथ के अंतर्गत विरक्ति और ग्रहस्थ की रहनी पर भी प्रकाश डालो । कौन सी रहनी से वैरागी वैराग्य करे, और कौन सी रहनी से ग्रहस्थ आपको प्राप्त करे ।

कबीर साहब बोले - धर्मदास, अब मैं वैरागी के लिये आचरण बताता हूँ । वह पहले अभक्ष्य पदार्थ माँस, मदिरा आदि का त्याग करे, तभी हंस कहायेगा । वैरागी सन्त सत्यपुरुष की अनन्य भक्ति अपने ह्रदय में धारण करे । किसी से भी द्वेष और वैर न करे ऐसे पापकर्मों की तरफ़ देखे भी नहीं । सब जीवों के प्रति ह्रदय में दया भाव रखे, मन वचन कर्म से भी किसी जीव को न मारे । सत्यज्ञान का उपदेश और नाम ले, जो मुक्ति की निशानी है । जिससे पापकर्म अज्ञान तथा अहंकार का समूल नाश हो जायेगा ।

वैरागी ब्रह्मचर्य व्रत का पूर्ण रूप से पालन करे । कामभावना की दृष्टि से स्त्री को स्पर्श न करे, तथा वीर्य को नष्ट न करे । काम, क्रोध आदि विषय और छल कपट को ह्रदय से पूर्णतया धो दे, और एकमन, एकचित्त होकर नाम का सुमरण करे ।
धर्मदास, अब ग्रहस्थ की भक्ति सुनोजिसको धारण करने से ग्रहस्थ काल-फ़ांस में नहीं पङेगा । वह कागदशा (कौवा स्वभाव) पापकर्म, दुर्गुण और नीच स्वभाव से पूरी तरह दूर रहे, और ह्रदय में सभी जीवों के प्रति दया भाव बनाये रखे । 

मछली, किसी भी पशु का माँस, अंडे न खाये, और न ही शराब पिये । इनको खाना पीना तो दूर इनके पास भी न जाये, क्योंकि ये सब अभक्ष्य पदार्थ हैं । वनस्पति अंकुर से उत्पन्न अनाज, फ़ल, शाक सब्जी आदि का आहार करे । सदगुरू से नाम ले, जो मुक्ति की पहचान है, तब काल कसाई उसको रोक नहीं पाता है ।

जो ग्रहस्थ जीव ऐसा नहीं करता, वह कहीं भी नहीं बचता । वह घोर दुख के अग्निकुन्ड में जल जल कर नाचता है, और पागल हुआ सा इधर उधर को भटकता ही है । उसे अनेकानेक कष्ट होते हैं, और वह जन्म-जन्म बारबार कठोर नरक में जाता है । वह करोङों जन्म जहरीले साँप के पाता है, तथा अपनी ही विष ज्वाला का दुख सहता हुआ यूँ ही जन्म गँवाता है ।

वह विष्ठा (मल, टट्टी) में कीङा कीट का शरीर पाता है, और इस प्रकार चौरासी की योनियों के करोङों जन्म तक नरक में पङा रहता है, और तुमसे जीव के घोर दुख को क्या कहूँ ।

मनुष्य चाहे करोङों योग आराधना करे, किन्तु बिना सदगुरू के जीव को हानि ही होती है । सदगुरू मन, बुद्धि, पहुँच के परे का अगम ज्ञान देने वाले हैं, जिसकी जानकारी वेद भी नहीं बता सकते ।

वेद इसका उसका यानी कर्मयोग उपासना और ब्रह्म का ही वर्णन करता है । वेद सत्यपुरुष का भेद नहीं जानता । अतः करोङों में कोई ऐसा विवेकी संत होता है, जो मेरी वाणी को पहचान कर ग्रहण करता है ।

काल-निरंजन ने खानी, वाणी के बंधन में सबको फ़ँसाया हुआ है । मंदबुद्धि अल्पज्ञ जीव उस चाल को नहीं पहचानता, और अपने घर आनन्द धाम सत्यलोक नहीं पहुँच पाता तथा जन्म-मरण और नरक के भयानक कष्टों में ही फ़ँसा रहता है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

WELCOME

मेरी फ़ोटो
Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।