कबीर
साहब बोले - धर्मदास, मोक्ष प्रदान
करने वाला सारशब्द विदेहस्वरूप वाला है और उसका वह अनुपम रूप निःअक्षर है । पाँच तत्व
और पच्चीस प्रकृति को मिलाकर सभी शरीर बने हैं परन्तु सारशब्द इन सबसे भी परे
विदेहस्वरूप वाला है ।
कहने
सुनने के लिये तो भक्त संतों के पास वैसे लोकवेद आदि के कर्मकांड, उपासना कांड, ज्ञानकांड, योग,
मंत्र आदि से सम्बन्धित सभी तरह के शब्द हैं । लेकिन सत्य यही है कि
सारशब्द से ही जीव का उद्धार होता है । परमात्मा का अपना सत्यनाम ही मोक्ष का
प्रमाण है, और सत्यपुरुष का सुमिरन ही सार है ।
बाह्य
जगत से ध्यान हटाकर अंतर्मुखी होकर शांत चित्त से जो साधक इस नाम के अजपा जाप में
लीन होता है, उससे काल भी मुरझा जाता है । सारशब्द का सुमरन
सूक्ष्म और मोक्ष का पूरा मार्ग है । इस सहज मार्ग पर शूरवीर होकर साधक को मोक्ष
यात्रा करनी चाहिये ।
धर्मदास, सारशब्द न तो वाणी से बोला जाने वाला शब्द है, और न
ही उसका मुँह से बोलकर जाप किया जाता है । सारशब्द का सुमरने करने वाला काल के
कठिन प्रभाव से हमेशा के लिये मुक्त हो जाता है । इसलिये इस गुप्त आदिशब्द की
पहचान कराकर इन वास्तविक हंस जीवों को चेताने की जिम्मेवारी तुम्हें मैंने दी है ।
धर्मदास, इस मनुष्य शरीर के अन्दर, अनन्त पंखुङियों वाले कमल
हैं, जो अजपा जाप की इसी डोरी से जुङे हुये हैं । तब उस बेहद
सूक्ष्म द्वार द्वारा मन, बुद्धि से परे, इन्द्रियों से परे, सत्यपद का स्पर्श होता है, यानी उसे प्राप्त किया जाता है ।
शरीर
के अन्दर स्थित, शून्य आकाश में अलौकिक प्रकाश हो रहा है, वहाँ ‘आदिपुरुष’ का वास है । उसको पहचानता हुआ कोई सदगुरू का हंस साधक
वहाँ पहुँच जाता है, और आदिसुरति (मन,
बुद्धि, चित्त, अहम का
योग से एक होना) वहाँ पहुँचाती है । हंसजीव को सुरति जिस
परमात्मा के पास ले जाती है । उसे ‘सोऽहंग’ कहते हैं ।
अतः
धर्मदास, इस कल्याणकारी सारशब्द को भलीभांति समझो । सारशब्द
के अजपा जाप की यह सहज धुनि अंतरआकाश में स्वतः ही हो रही है अतः इसको अच्छी तरह
से जान समझ कर सदगुरू से ही लेना चाहिये ।
मन तथा
प्राण को स्थिर कर मन तथा इन्द्रिय के कर्मों को उनके विषय से हटाकर सारशब्द का
स्वरूप देखा जाता है । वह सहज स्वाभाविक ‘ध्वनि’ बिना वाणी आदि के स्वतः ही हो रही
है । इस नाम के जाप को करने के लिये, हाथ में
माला लेकर जाप करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है । इस प्रकार विदेह स्थित में इस
सारशब्द का सुमरन हंस साधक को सहज ही अमरलोक, सत्यलोक पहुँचा
देता है ।
सत्यपुरुष
की शोभा अगम, अपार, मन, बुद्धि की पहुँच से परे है । उनके एक-एक रोम में करोङों सूर्य चन्द्रमा के
समान प्रकाश है । सत्यलोक पहुँचने वाले एक हंस-जीव का प्रकाश सोलह सूर्य के बराबर
होता है ।
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बहुत
दिनन तक थे हम भटके, सुनि सुनि बात बिरानी।
जब कछु
बात उर में थिर भयी, सुरति निरति ठहरानी।
रमता
के संग समता हुय गयी, परो भिन्न पै पानी।
हँसदीक्षा, परमहँस दीक्षा, समाधि दीक्षा, शक्ति
दीक्षा, सारशब्द दीक्षा, निःअक्षर
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(मुख्य आश्रम)
निःअक्षर
ज्ञान दीक्षा केन्द्र ॥मुक्तमंडल॥
चिन्ताहरण
आश्रम, नगला भादों
जि.
फ़िरोजाबाद, उ.प्र.
भारत
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