कबीर
साहब बोले - धर्मदास, काल-निरंजन का
जाल फ़ैलाने के लिये बनाये गये अड़सठ तीर्थ ये हैं । 1 काशी 2
प्रयाग 3 नैमिषारण्य 4 गया
5 कुरुक्षेत्र 6 प्रभास 7 पुष्कर 8 विश्वेश्वर 9 अट्टहास
10 महेंद्र 11 उज्जैन 12 मरुकोट 13 शंकुकर्ण 14 गोकर्ण 15
रुद्रकोट 16 स्थलेश्वर 17 हर्षित 18 वृषभध्वज 19 केदार 20
मध्यमेश्वर 21 सुपर्ण 22 कार्तिकेश्वर 23 रामेश्वर 24 कनखल
25 भद्रकर्ण 26 दंडक 27 चिदण्डा 28 कृमिजांगल 29 एकाग्र
30 छागलेय 31 कालिंजर 32 मंडकेश्वर 33 मथुरा 34 मरुकेश्वर
35 हरिश्चंद्र 36 सिद्धार्थ क्षेत्र 37
वामेश्वर 38 कुक्कुटेश्वर 39 भस्मगात्र 40 अमरकंटक 41 त्रिसंध्या
42 विरजा 43 अर्केश्वर 44 द्वारिका 45 दुष्कर्ण 46 करबीर
47 जलेश्वर 48 श्रीशैल 49 अयोध्या 50 जगन्नाथपुरी 51 कारोहण
52 देविका 53 भैरव 54 पूर्व सागर 55 सप्त गोदावरी 56 निमलेश्वर 57 कर्णिकार 58 कैलाश
59 गंगाद्वार 60 जललिंग 61 बङवागिन 62 बद्रिकाश्रम 63 श्रेष्ठ
स्थान 64 विंध्याचल 65 हेमकूट 66
गंधमादन 67 लिंगेश्वर 68 हरिद्वार
और
बारह राशियाँ - 1 मेष 2 वृष 3 मिथुन 4 कर्क 5 सिंह 6 कन्या 7 तुला 8 वृश्चिक 9
धनु 10 मकर 11 कुंभ 12
मीन..ये हैं ।
तथा
सत्ताईस नक्षत्र - 1 अश्विनी 2 भरणी 3
कृत्तिका 4 रोहिणी 5 मृगशिरा
6 आर्द्रा 7 पुनर्वसु 8 पुष्य 9 आश्लेषा 10 मघा 11
पूर्वाफ़ाल्गुनी 12 उत्तराफ़ाल्गुनी 13
हस्त 14 चित्रा 15 स्वाति
16 विशाखा 17 अनुराधा 18 ज्येष्ठा 19 मूल 20 पूर्वाषाढा
21 उत्तराषाढा 22 श्रवण 23 धर्निष्ठा 24 शतभिषा 25 पूर्वाभाद्रप्रद
26 उत्तराभादप्रद 27 रेवती..ये हैं ।
सात
दिन - 1 रविवार 2 सोमवार 3
मंगलवार 4 बुधवार 5 बृहस्पतिवार
6 शुक्रवार 7 शनिवार ।
पंद्रह
तिथियाँ - 1 प्रथम या पङवा 2 दूज
3 तीज 4 चौथ 5 पंचमी
6 षष्ठी 7 सप्तमी 8 अष्टमी 9 नवमी 10 दशमी 11
एकादशी 12 द्वादशी 13 त्रयोदशी
14 चौदस 15 पूर्णिमा ।
(शुक्लपक्ष) दूसरा एक कृष्णपक्ष भी होता है ।
जिसकी सभी तिथियाँ ऐसी ही होती हैं । केवल उसकी पंद्रहवी तिथि को पूर्णिमा के
स्थान पर अमावस्या कहते हैं ।
धर्मदास, फ़िर ब्रह्मा ने चारो युगों के समय को एक नियम से विस्तार करते हुये बाँध
दिया । एक पलक झपकने में जितना समय लगता है, उसे पल कहते हैं
। साठ पलक को एक घङी कहते हैं । एक घङी चौबीस मिनट की
होती है । साढ़े सात घङी का एक पहर होता है
। आठ पहर का दिन रात चौबीस घंटे होते हैं ।
सात दिनों
का एक सप्ताह, और पंद्रह दिनों का एक पक्ष होता है । दो पक्ष
का एक महीना, और बारह
महीने का एक वर्ष होता है । सत्रह लाख अट्ठाईस हजार वर्ष का सतयुग, बारह लाख छियानबे हजार का त्रेता, और आठ लाख चौसठ हजार
का द्वापर, तथा चार लाख बत्तीस हजार का कलियुग होता है । चार
युगों को मिलाकर एक महायुग होता है ।
(युगों का समय गलत..बल्कि बहुत ज्यादा गलत है । ये
विवरण कबीर साहब द्वारा बताया हुआ नहीं है बल्कि अन्य आधार पर है । कलियुग सिर्फ़ बाईस
हजार वर्ष का होता है, और त्रेता लगभग अड़तीस हजार वर्ष का
होता है)
धर्मदास, बारह महीने में कार्तिक और माघ इन दो महीनों को पुण्य वाला कह दिया ।
जिससे
जीव विभिन्न धर्म, कर्म करे और उलझा रहे । जीवों को इस प्रकार
भ्रम में डालने वाले काल-निरंजन (और उसके परिवार) की चालाकी कोई बिरला साधक ही समझ पाता है ।
प्रत्येक
तीर्थ धाम का बहुत महात्मय (महिमा) बताया जिससे कि मोहवश जीव लालच में तीर्थों की ओर भागने लगे । अपनी बहुत
सी कामनाओं की पूर्ति के लिये लोग तीर्थों में नहाकर पानी और पत्थर से बनी देवी
देवता की मूर्तियों को पूजने लगे ।
लोग
आत्मा, परमात्मा (के ज्ञान)
को भूलकर इस झूठ पूजा के भ्रम में पङ गये । इस तरह काल ने सब जीवों
को बुरी तरह उलझा दिया ।
सदगुरू
के सत्य शब्द उपदेश बिना जीव सांसारिक कलेश, काम,
क्रोध, शोक, मोह,
चिंता आदि से नहीं बच सकता । सदगुरू के नाम बिना वह यमरूपी काल के
मुँह में ही जायेगा, और बहुत से दुखों को भोगेगा । वास्तव
में जीव काल-निरंजन का भय मानकर ही पुण्य कमाता है । थोङे फ़ल से..धन, संपत्ति आदि से उसकी भूख शान्त नहीं होती ।
जब तक
जीव सत्यपुरुष से डोर नहीं जोङता । सदगुरू से (हंस)
दीक्षा लेकर भक्ति नहीं करता तब तक चौरासी लाख योनियों में बारबार
आता जाता रहेगा । यह काल-निरंजन अपनी असीम कला जीव पर लगाता है, और उसे भरमाता है । जिससे जीव सत्यपुरुष का भेद नहीं जान पाता ।
लाभ के
लिये जीव लोभवश शास्त्र में बताये कर्मों की और दौङता फ़िरता है, और उससे फ़ल पाने की आशा करता है । इस प्रकार जीव को झूठी आशा बँधाकर काल
धरकर खा जाता है ।
काल-निरंजन
की चालाकी कोई पहचान नहीं पाता, और काल-निरंजन शास्त्रों
द्वारा पाप पुण्य के कर्मों से स्वर्ग नरक की प्राप्ति और विषय भोगों की आशा
बँधाकर जीव को चौरासी लाख योनियों में नचाता है ।
पहले
सतयुग में इस काल-निरंजन का यह व्यवहार था कि वह जीवों को लेकर आहार करता था । वह
एक लाख जीव नित्य खाता था, ऐसा महान और अपार बलशाली काल-निरंजन कसाई है ।
वहाँ रात दिन तप्तशिला जलती थी, काल-निरंजन जीवों को पकङ कर
उस पर धरता था । उस तप्तशिला पर उन जीवों को जलाता था, और
बहुत दुख देता था फ़िर वह उन्हें चौरासी में डाल देता था । उसके बाद जीवों को तमाम
योनियों में भरमाता भटकाता था । इस प्रकार काल-निरंजन जीवों को अनेक प्रकार के
बहुत से कष्ट देता था ।
तब
अनेकानेक जीवों ने अनेक प्रकार से दुखी होकर पुकारा कि काल-निरंजन हम जीवों को
अपार कष्ट दे रहा है, इस यमकाल का दिया हुआ कष्ट हमसे सहा नहीं जाता
। सदगुरू, हमारी सहायता करो, आप हमारी
रक्षा करो ।
जब
सत्यपुरुष ने जीवों को इस प्रकार पीङित होते देखा तब उन्हें दया आयी, और उन दया के भंडार स्वामी ने मुझे (ज्ञानी नाम से)
बुलाया ।
और
बहुत प्रकार से समझा कर कहा - ज्ञानी, तुम जाकर जीवों को चेताओ । तुम्हारे दर्शन से जीव शीतल हो जायेंगे, जाकर उनकी तपन दूर करो ।
धर्मदास, तब सत्यपुरुष की आज्ञा से में वहाँ आया, जहाँ काल-निरंजन जीवों को सता रहा था, और दुखी जीव
उसके संकेत पर नाच रहे थे । धर्मदास, जीव वहाँ दुख से छटपटा
रहे थे, और मैं वहाँ जाकर खङा हो गया ।
उन
जीवों ने मुझे देखकर पुकारा - हे साहिब, हमें इस दुख से उबार लो ।
तब
मैंने ‘सत्यशब्द’ पुकारा, और सत्यशब्द का उपदेश किया । फ़िर सत्यपुरुष के ‘सारशब्द’
से जीवों को जोङ दिया । इससे वे दुख से जलते जीव शान्ति महसूस करने
लगे ।
तब सब
जीवों ने स्तुति की - हे पुरुष, आप धन्य हो, आपने हम दुखों से जलते हुओं की तपन बुझायी
। आप हमें इस काल-निरंजन के जाल से छुङा लो । हे प्रभु, हम
पर दया करो ।
तब मैंने जीवों को समझाया - यदि मैं इस वक्त अपनी
शक्ति से तुम्हारा उद्धार करता हूँ तो सत्यपुरुष का वचन भंग होता है, क्योंकि सत्यपुरुष के वचन अनुसार सद-उपदेश द्वारा
ही आत्मज्ञान से जीवों का उद्धार करना है । अतः जब तुम यहाँ से जाकर मनुष्य देह
धारण करोगे, तब तुम मेरे शब्द उपदेश को विश्वास से ग्रहण
करना, जिससे तुम्हारा उद्धार होगा ।
उस समय
मैं सत्यपुरुष के नाम सुमरन की सही विधि और सारशब्द का उपदेश करूँगा । तब तुम
विवेकी होकर सत्यलोक जाओगे, और सदा के लिये काल-निरंजन के बँधन से मुक्त
हो जाओगे ।
जो कोई
भी मन, वचन, कर्म से सुमरन करता
है, और जहाँ अपनी आशा रखता है, वहाँ
उसका वास होता है । अतः संसार में जाकर देह धारण कर जिसकी आशा करोगे । और उस समय
यदि तुम सत्यपुरुष को भूल गये, तो काल-निरंजन तुमको धर कर खा
जायेगा ।
तब जीव
बोले - हे पुरातन पुरुष सुनो, मनुष्य देह धारण करके (माया रचित वासनाओं में फ़ँसकर)
यह ज्ञान भूल ही जाता है अतः याद नहीं रहता । पहले हमने सत्यपुरुष
जानकर काल-निरंजन का सुमरन किया कि वही सब कुछ है, क्योंकि
वेद, पुराण सभी यही बताते हैं ।
वेद
पुराण सभी एकमत होकर यही कहते हैं कि निराकार निरंजन से प्रेम करो । तैतीस करोङ
देवता, मनुष्य और मुनि सबको निरंजन ने अपने विभिन्न
झूठे मतों की डोरी में बाँध रखा है । उसी के झूठे मत से हमने मुक्त होने की आशा की
परन्तु वह हमारी भूल थी । अब हमें सब सही सही रूप से दिखायी दे रहा है, और समझ में आ गया है कि वह सब दुखदायी यम की काल-फ़ाँस
ही है ।
कबीर
साहब बोले - जीवों सुनो, यह सब इस
काल का धोखा है, इस काल ने विभिन्न मत-मतांतरों
का फ़ंदा बहुत अधिक फ़ैलाया हुआ है । काल-निरंजन ने अनेक कला, मतों का प्रदर्शन किया, और जीव को उसमें फ़ँसाने के
लिये बहुत ठाठ फ़ैलाया (यानी तरह तरह की भोग-वासना बनायी) और सबको तीर्थ, व्रत,
यज्ञ एवं यज्ञादि कर्म कांडों के फ़ंदे में फ़ाँसा, जिससे कोई मुक्त नहीं हो पाता ।
फ़िर
आप शरीर धारण करके प्रकट होता है, और (अवतार द्वारा) अपनी विशेष महिमा करवाता है, और नाना प्रकार के गुण कर्म आदि करके सब जीवों को बँधन में बाँध देता है
। काल-निरंजन और अष्टांगी ने जीव को फ़ँसाने के लिये
अनेक मायाजाल रचे । वेद, शास्त्र, पुराण,
स्मृति आदि के भ्रामक जाल से भयंकर काल ने मुक्ति का रास्ता ही बन्द
कर दिया । जीव मनुष्य देह धारण करके भी अपने कल्याण के लिये उसी से आशा करता है । काल-निरंजन
की शास्त्र आदि मत-रूपी कलाएं बहुत भयंकर हैं, और जीव उसके वश में पङे हैं । सत्यनाम के बिना जीव काल का दंड भोगते हैं
।
इस तरह
जीवों को बारबार समझा कर मैं सत्यपुरुष के पास गया, और उनको
काल द्वारा दिये जा रहे विभिन्न दुखों का वर्णन किया । दयालु सत्यपुरुष तो दया के
भंडार और सबके स्वामी हैं । वे जीव के मूल, अभिमान रहित और
निष्कामी हैं ।
तब
सत्यपुरुष ने बहुत प्रकार से समझा कर कहा - काल के भ्रम से छुङाने के लिये जीवों को नाम उपदेश से सावधान करो ।
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