त्रेता-युग
में जब मुनीन्द्र स्वामी (कबीर का त्रेता युग में नाम) प्रथ्वी पर आये, और उन्होंने जाकर जीवों से कहा -
यमरूपी काल से तुम्हें कौन छुङायेगा?
तब वे
अज्ञानी भ्रमित जीव बोले - हमारा कर्ता धर्ता स्वामी पुराण पुरुष (काल-निरंजन) है । वह पुराण पुरुष विष्णु हमारी रक्षा
करने वाला है, और हमें यम के फ़ंदे से छुङाने वाला है ।
कबीर
बोले - धर्मदास, उन अज्ञानी
जीवों में से कोई तो अपनी रक्षा और मुक्ति की आस शंकर से लगाये हुये था । कोई अपनी
रक्षा के लिये चंडी देवी को ध्याता गाता था । अब क्या कहूँ ये वासना का लालची जीव
अपनी सदगति भूलकर पराया ही हो गया, और सत्यपुरुष को भूल गया
तथा तुच्छ देवी देवताओं के हाथ लोभवश बिक गया । काल-निरंजन ने सब जीवों को
प्रतिदिन पाप कर्म की कोठरी में डाला हुआ है, और सबको अपने
मायाजाल में फ़ँसाकर मार रहा है ।
यदि
सत्यपुरुष की ऐसी आज्ञा होती तो काल-निरंजन को अभी मिटाकर जीवों को भवसागर के तट
पर लाऊँ । लेकिन यदि अपने बल से ऐसा करूँ तो सत्यपुरुष का वचन नष्ट होता है, इसलिये उपदेश द्वारा ही जीवों को सावधान करूँ । कितनी विचित्र बात है कि
जो (काल-निरंजन) इस जीव को दुख देता,
खाता है वह जीव उसी की पूजा करता है । इस प्रकार बिना जाने यह जीव
यम के मुख में जाता है ।
धर्मदास, तब चारों तरफ़ घूमते हुये मैं लंका देश में आया,
वहाँ मुझे विचित्र भाट नाम का श्रद्धालु मिला । उसने मुझसे भवसागर से मुक्ति का
उपाय पूछा, और मैंने उसे ज्ञान का उपदेश दिया । उस उपदेश को
सुनते ही विचित्र भाट का संशय दूर हो गया, और वह मेरे चरणों
में गिर गया । मैंने उसके घर जाकर उसे दीक्षा दी । विचित्र भाट की स्त्री राजा
रावण के महल गयी, और जाकर रानी मंदोदरी को सब बात बतायी ।
उसने
मंदोदरी से कहा - महारानी जी, हमारे
घर एक सुन्दर महामुनि श्रेष्ठ योगी आये हैं । उनकी महिमा का मैं क्या वर्णन करूँ, ऐसा सन्त योगी मैंने पहले कभी नहीं देखा ।
मेरे
पति ने उनकी शरण ग्रहण की है, और उनसे दीक्षा ली है, तथा इसी में अपने जीवन को सार्थक समझा है ।
यह बात
सुनते ही मंदोदरी में भक्तिभाव जागा, और वह
मुनीन्द्र स्वामी के दर्शन करने को व्याकुल हो गयी । वह दासी को साथ लेकर स्वर्ण,
हीरा, रत्न आदि लेकर विचित्र भाट के घर आयी, और उन्हें अर्पित करते हुये मेरे चरणों में शीश झुकाया ।
तब
मैंने उसको आशीर्वाद दिया ।
मंदोदरी
बोली - आपके दर्शन से मेरा दिन आज बहुत शुभ हुआ
। मैंने ऐसा तपस्वी पहले कभी नहीं देखा कि जिनके सब अंग सफ़ेद और वस्त्र भी श्वेत (सन्तमत में गेरुआ के बजाय सफ़ेद वस्त्र धारण किये जाते हैं) हैं । स्वामी जी, मैं आपसे विनती करती हूँ मेरे जीव (आत्मा) का कल्याण जिस तरह हो वह उपाय मुझे कहो । मैं अपने जीवन के कल्याण के लिये
अपने कुल और जाति का भी त्याग कर सकती हूँ ।
हे
समर्थ स्वामी, अपनी शरण में लेकर मुझ अनाथ को सनाथ करो, भवसागर में डूबती हुयी मुझको संभालो । आप मुझे बहुत दयालु और प्रिय लगते
हो, आपके दर्शन मात्र से मेरे सभी भ्रम दूर हो गये ।
तब
मैंने कहा - मंदोदरी सुनो, सत्यपुरुष
के नाम प्रताप से यम की बेङी कट जाती है । तुम इसे ज्ञान दृष्टि से समझो, मैं तुम्हें खरा (सत्यपुरुष) और
खोटा (काल-निरंजन) समझाता हूँ ।
सत्यपुरुष
असीम अजर अमर हैं तथा तीन लोक से न्यारे हैं, अलग हैं ।
उन सत्यपुरुष का जो कोई ध्यान सुमरन करे, वह आवागमन से मुक्त
हो जाता है ।
मेरे
ये वचन सुनते ही मंदोदरी का सब भ्रम, भय,
अज्ञान दूर हो गया, और उसने पवित्र मन से
प्रेमपूर्वक नामदान लिया । तब मंदोदरी इस तरह गदगद हुयी, मानो
किसी कंगाल को खजाना मिल गया हो । फ़िर रानी चरण स्पर्श कर महल को चली गयी । मंदोदरी
ने विचित्र भाट की स्त्री को समझा कर हंसदीक्षा के लिये प्रेरित किया तब उसने भी
दीक्षा ली ।
धर्मदास, फ़िर मैं रावण के महल से आया, और मैंने द्वारपाल से
कहा - मैं तुमसे एक बात कहता हूँ, अपने
राजा को मेरे पास लेकर आओ ।
द्वारपाल
विनयपूर्वक बोला - राजा रावण बहुत भयंकर है, उसमें शिव का बल है । वह किसी का भय नहीं मानता, और
किसी बात की चिंता नहीं करता । वह बङा अहंकारी और महान क्रोधी है, यदि मैं उससे जाकर आपकी बात कहूँगा, तो वह उल्टा
मुझे ही मार डालेगा ।
तब
मैंने कहा - तुम मेरा वचन सत्य मानो । तुम्हारा बाल बांका
भी नहीं होगा अतः निर्भीक होकर रावण से ऐसा जाकर कहो, और
उसको शीघ्र बुलाकर लाओ ।
द्वारपाल
ने ऐसा ही किया ।
वह
रावण के पास जाकर बोला - हे महाराज, हमारे पास एक
सिद्ध (सन्त) आया है । उसने मुझसे कहा
है कि अपने राजा को लेकर आओ ।
यह
सुनकर रावण बेहद क्रोध से बोला - अरे द्वारपाल, तू निरा बुद्धिहीन ही है । यह तेरी बुद्धि को किसने हर लिया है, जो यह सुनते ही तू मुझे बुलाने दौङा दौङा चला आया । मेरा दर्शन शिव के
सुत, गण आदि भी नहीं पाते, और तूने
मुझे एक भिक्षुक को बुलाने पर जाने को कहा । द्वारपाल, मेरी
बात सुन, और उस सिद्ध का रूप वर्णन मुझे बता । वह कौन है,
कैसा है, क्या वेश है? यह
सब बात बता ।
द्वारपाल
बोला - हे राजन, उनका श्वेत
उज्जवल स्वरूप है । उनकी श्वेत ही माला तथा श्वेत तिलक अनुपम है, और श्वेत ही वस्त्र तथा श्वेत साज सामान है । चन्द्रमा के समान उसका
स्वरूप प्रकाशवान है ।
तब
मंदोदरी बोली - हे राजा रावण, जैसा
द्वारपाल ने बताया वह सिद्ध सन्त परमात्मा के समान सुशोभित है । आप शीघ्र जाकर
उनके चरणों में प्रणाम करो तो आपका राज्य अटल हो जायेगा । हे राजन, इस झूठी मान, बङाई के अहम को त्याग कर आप ऐसा ही
करें ।
मंदोदरी
की बात सुनते ही रावण इस तरह भङका, मानो जलती
हुयी आग में घी डाल दिया गया हो । रावण तुरन्त हाथ में शस्त्र लेकर चला कि जाकर उस
सिद्ध का माथा काटूँगा । जब उसका शीश गिर पङे । तब देखें, वह
भिक्षुक मेरा क्या कर लेगा?
ऐसा
सोचते हुये रावण बाहर मेरे पास आया, और उसने सत्तर
बार पूरी शक्ति से मुझ पर शस्त्र चलाया । मैंने उसके शस्त्र प्रहार को हर बार एक
तिनके की ओट पर रोका अर्थात रावण वह तिनका भी नहीं काट सका ।
मैंने
तिनके की ओट इस कारण की कि रावण बहुत अहंकारी है । इस कारण अपने शक्तिशाली
प्रहारों से जब रावण तिनका भी न काट पायेगा तो अत्यन्त लज्जित होगा और उसका अहंकार
नष्ट हो जायेगा ।
तब यह
तमाशा देखती हुयी (मेरा बल प्रताप जान कर) मंदोदरी
रावण से बोली - स्वामी, आप झूठा अहंकार
और लज्जा त्याग कर मुनीन्द्र स्वामी के चरण पकङ लो । जिससे आपका राज्य अटल हो
जायेगा ।
यह
सुनकर खिसियाया हुआ रावण बोला - मैं जाकर शिव की सेवा
पूजा करूँगा । जिन्होंने मुझे अटल राज्य दिया, मैं उनके ही
आगे घुटने टेकूँगा, और हर पल उन्हीं को दण्डवत करूँगा ।
तब
मैंने उसे पुकार कर कहा - रावण, तुम बहुत अहंकार
करने वाले हो । तुमने हमारा भेद नहीं समझा इसलिये आगे की पहचान के रूप में तुम्हें
एक भविष्यवाणी कहता हूँ । तुमको रामचन्द्र मारेंगे, और
तुम्हारा माँस कुत्ता भी नहीं खायेगा । तुम इतने नीच भाव वाले हो ।
कबीर
साहब बोले - धर्मदास, मुनीन्द्र
स्वामी के रूप में मैंने अहंकारी रावण को अपमानित किया, और
फ़िर अयोध्या नगरी की ओर प्रस्थान किया । तब रास्ते में मुझे मधुकर नाम का एक गरीब
ब्राह्मण मिला, वह मुझे प्रेमपूर्वक अपने घर ले गया, और मेरी बहुत प्रकार से सेवा की ।
गरीब
मधुकर ज्ञान भाव में स्थिर बुद्धि वाला था, उसका लोक
और वेद का ज्ञान बहुत अच्छा था । तब मैंने उसे सत्यपुरुष और सत्यनाम के बारे में
बताया, जिसे सुनकर उसका मन प्रसन्नता से भर गया ।
और वह
बोला - हे परम सन्त स्वरूप
स्वामी, मैं भी उस अमृतमय सत्यलोक को देखना चाहता हूँ ।
तब
उसके सेवा भाव से प्रसन्न होकर ‘अच्छा’ ऐसा कहते हुये मैं उसके शरीर को वहीं रहा छोङकर उसके जीवात्मा को सत्यलोक
ले गया । अमरलोक की अनुपम शोभा छटा देखकर वह बहुत प्रसन्न हुआ, और गदगद होकर मेरे चरणों में गिर पङा ।
और
बोला - स्वामी, आपने सत्यलोक
देखने की मेरी प्यास बुझा दी, अब आप मुझे संसार में ले चलो ।
जिससे मैं अन्य जीवों को यहाँ लाने के लिये उपदेश (गवाही)
करूँ, और जो जीव घर गृहस्थी के अंतर्गत आते
हैं । उन्हें भी सत्य बताऊँ ।
धर्मदास, जब मैं उसके जीवात्मा को लेकर संसार में आया, और
जैसे ही मधुकर के जीवात्मा ने देह में प्रवेश किया तो उसका शरीर जाग्रत हो गया । मधुकर
के घर परिवार में सोलह अन्य जीव थे ।
मधुकर
ने उनसे सब बात कही, और मुझसे बोला - साहिब, आप मेरी विनती सुनो ।
अब हम
सबको सत्यलोक में निवास दीजिये, क्योंकि यह प्रथ्वी तो
यम का देश है ।
इसमें
बहुत दुख है फ़िर भी माया से बँधा जीव अज्ञानवश अँधा हो रहा है । इस देश में
काल-निरंजन बहुत प्रबल है । वह सब जीवों को सताता है, और अनेक प्रकार के कष्ट देता हुआ जन्म मरण का नरक समान दुख देता है ।
काम, क्रोध, तृष्णा और माया बहुत बलवान है, जो इसी काल-निरंजन की रचना है ।
ये सब
महा शत्रु देवता, मुनि आदि सबको व्यापते हैं, और करोङों जीवों को कुचलकर मसल देते हैं । ये तीनों लोक यम निरंजन का देश
हैं, इसमें जीवों को क्षण भर के लिये वास्तविक सुख नहीं है ।
आप हमारा ये जन्म जन्म का कलेश मिटाओ, और अपने साथ ले चलो ।
तब
मैंने उन सबको सत्यपुरुष के नाम का उपदेश देकर हंसदीक्षा से गुरू (की) आत्मा बनाया, और उनकी आयु
पूरी हो जाने पर उनको सत्यलोक भेज दिया । उन सोलह जीवों को सत्यलोक जाते हुये
देखकर संसारी जीव के लिये विकराल भयंकर यमदूत उदास खङे देखते रहे । उन्हें ऊपर
जाते देखकर वे सब विवश और बेहद उदास हो गये ।
वे सब
जीव सत्यपुरुष के दरबार में पहुँच गये । जिन्हें देखकर सत्यपुरुष के अंश और अन्य
मुक्त हंस जीव बहुत प्रसन्न हुये । सत्यपुरुष ने उन सोलह हंस जीवों को अमर वस्त्र पहनाया । स्वर्ण के समान प्रकाशवान अपनी अमरदेह के स्वरूप को देखकर उन हंस जीवों
को बहुत सुख हुआ ।
सत्यलोक
में हरेक हंस जीव का दिव्य प्रकाश सोलह सूर्य के समान है । वहाँ उन्होंने अमृत (अमीरस) का भोजन किया, और अगर (चंदन) की सुगन्ध से उनका शरीर शीतल होकर महकने लगा ।
इस तरह
त्रेता युग में मेरे (मुनीन्द्र स्वामी के नाम से) द्वारा ज्ञान उपदेश का प्रचार प्रसार हुआ, और
सत्यपुरुष के नाम प्रभाव से हंस जीव मुक्त होकर सत्यलोक गये ।
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