शुक्रवार, जुलाई 13, 2018

कबीर और रानी इन्द्रमती


त्रेता-युग समाप्त हुआ और द्वापर-युग आ गया ।

तब फ़िर काल-निरंजन का प्रभाव हुआ, और फ़िर सत्यपुरुष ने ज्ञानीजी को बुलाकर कहा - ज्ञानी, तुम शीघ्र संसार में जाओ, और काल-निरंजन के बँधनों से जीवों का उद्धार करो । काल-निरंजन जीवों को बहुत पीङा दे रहा है, जाकर उसकी फ़ाँस काटो ।

तब मैंने सत्यपुरुष की बात सुनकर उनसे कहा - आप प्रमाणित स्पष्ट शब्दों में आज्ञा करो तो मैं काल-निरंजन को मारकर सब जीवों को सत्यलोक ले आता हूँ । बारबार ऐसा करने संसार में क्या जाऊँ ।

सत्यपुरुष बोले - हे योग संतायन, सुनो, सारशब्द का उपदेश सुनाकर जीव को मुक्त कराओ । जो अब जाकर काल-निरंजन को मारोगे, तो हे सुत, तुम मेरा वचन ही भंग करोगे । अब तो अज्ञानी जीव काल के जाल में फ़ँसे पङे हैं, और उसमें ही उन्हें मोहवश सुख भास रहा है । लेकिन जब तुम उन्हें जाग्रत करोगे, तब उन्हें आनन्द का अहसास होगा ।

जब तुम काल-निरंजन का असली चरित्र बताओगे तो सब जीव तुम्हारे चरण पकङेंगे ।
हे ज्ञानी, जीवों का भाव, स्वभाव तो देखो कि ये ज्ञान, अज्ञान को पहचानते समझते नहीं हैं । तुम संसार में सहज भावसे जाकर प्रकट होओ, और जीवों को चेताओ ।

तब मैं फ़िर से संसार की तरफ़ चला । इधर आते ही चालाक और प्रपंची काल-निरंजन ने मेरे चरणों में सिर झुका दिया ।

तब वह काल-निरंजन कातर भाव से बोला - अब किस कारण से संसार में आये हो?
मैं आपसे विनती करता हूँ कि सारे संसार के जीवों को समझाओ ऐसा मत करना ।
आप मेरे बङे भाई हो, मैं आपसे विनती करता हूँ, सभी जीवों को मेरा रहस्य न बताना ।

तब मैंने कहा - निरंजन सुन, कोई कोई जीव ही मुझे पहचान पाता है, और मेरी बात समझता है । क्योंकि तुमने जीवों को अपने जाल में बहुत मजबूती से फ़ँसाकर ठगा हुआ है ।

धर्मदास, ऐसा कहकर मैंने सत्यलोक और सत्यलोक का शरीर छोङ दिया, और मनुष्य शरीर धारण कर मृत्युलोक में आया उस युग में मेरा नाम करुणामय स्वामी था । तब मैं गिरनार गढ़ आया, जहाँ राजा चन्द्रविजय राज्य करते थे । उस राजा की स्त्री बहुत बुद्धिमान थी, और उसका नाम इन्द्रमती था । वह सन्त समागम करती थी, और ज्ञानी सन्तों की पूजा करती थी ।

रानी इन्द्रमती अपने स्वभाव के अनुसार महल की ऊँची अटारी पर चढ़ कर रास्ता देखा करती थी । यदि रास्ते में उसे कोई साधु जाता नजर आता तो तुरन्त उसको बुलवा लेती थी । इस प्रकार सन्तों के दर्शन हेतु वह अपने शरीर को कष्ट देती थी ।

वह किसी सच्चे सन्त की तलाश में थी । उसके ऐसे भाव से प्रसन्न हम उसी रास्ते पर पहुँच गये । जब रानी की दृष्टि हम पर पङी तो उसने तुरन्त दासी को आदरपूर्वक बुलाने भेजा । दासी ने रानी का विनम्र संदेश मुझे सुनाया ।

मैंने दासी से कहा - दासी, हम राजा के घर नहीं जायेंगे । क्योंकि राज्य के कार्य में झूठी मान, बङाई होती है, और साधु का मान बङाई से कोई सम्बन्ध नहीं होता अतः मैं नहीं जाऊँगा ।

दासी ने रानी से जाकर ऐसा ही कहा ।

तब रानी स्वयं दौङी दौङी आयी, और मेरे चरणों में अपना शीश रख दिया ।

फ़िर वह बोली - साहिब, हम पर दया कीजिये, और अपने पवित्र श्रीचरणों से हमारा घर धन्य कीजिये । आपके दर्शन पाकर मैं सुखी हो गयी ।

उसका ऐसा प्रेम भाव देखकर हम उसके घर चले गये । तब रानी भोजन के लिये मुझसे निवेदन करती हुयी बोली - हे प्रभु, भोजन तैयार करने की आज्ञा देकर मेरा सौभाग्य बढ़ायें । आपकी जूठन मेरे घर में पङे और बचा भोजन शेष प्रसाद के रूप में मैं खाऊँ ।

मैंने कहा - रानी सुनो, पाँच तत्व (का शरीर) जिस भोजन को पाता है, उसकी भूख मुझे नहीं होती । मेरा भोजन अमृत है, मैं तुम्हें इसको समझाता हूँ । मेरा शरीर प्रकृति के पाँच तत्व और तीन गुण वाला नहीं है, बल्कि अलग है । पाँच तत्व, तीन गुण, पच्चीस प्रकृति से तो काल-निरंजन ने मनुष्य शरीर की रचना की है ।

स्थान और क्रिया के भेद से काल-निरंजन ने वायु के पचासी भागकिये, इसलिये पिचासी पवन कहा जाता है । इसी वायु तथा चार अन्य तत्व प्रथ्वी, जल, आकाश, अग्नि से ये मनुष्य शरीर बना है परन्तु मैं इनसे एकदम अलग हूँ ।

इस पाँच तत्व की स्थूल देह में एक आदिपवनहै । आदि का मतलब यहाँ जन्म-मरण से रहित, नित्य, अविनाशी और शाश्वत है, वह चैतन्य जीव है, उसे सोऽहंगबोला जाता है । यह जीव सत्यपुरुष का अंश है ।

काल-निरंजन ने इसी जीव को भ्रम में डालकर सत्यलोक जाने से रोक रखा है । यह काल-निरंजन ऐसा करने के लिये नाना प्रकार के मायाजाल रचता है, और सांसारिक विषयों का लोभ लालच देकर जीवों को उसमें फ़ँसाता है, और फ़िर खा जाता है । मैं उन्ही जीवों को काल-निरंजन से उद्धार कराने आया हूँ ।

काल ने पानी, पवन, प्रथ्वी आदि तत्वों से जीव की बनावटी देह की रचना की, और इस देह में वह जीवों को बहुत दुख देता है । मेरा शरीर काल-निरंजन ने नहीं बनाया ।
मेरा शरीर शब्द स्वरूपहै, जो खुद मेरी इच्छा से बना है ।

यह सब सुनकर रानी इन्द्रमती को बहुत आश्चर्य हुआ, और वह बोली - हे प्रभु, जैसा आपने कहा, ऐसा कहने वाला दूसरा कोई नहीं मिला । दयानिधि, आप मुझे और भी ज्ञान बताओ, मैंने सुना है कि विष्णु के समान दूसरा कोई ब्रह्मा, शंकर, मुनि आदि भी नहीं है ।

पाँच तत्वों के मिलने से यह शरीर बना है, और उन तत्वों के गुण भूख, प्यास, नींद के वश में सभी जीव हैं । प्रभु, आप अगम अपार हो, आप मुझे बताओ कि ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर से भी अलग आप कहाँ से उत्पन्न हुये हो? ऐसा बताकर मेरी जिज्ञासा शान्त करो ।

मैंने कहा - इन्द्रमती, मेरा देश नागलोक (पाताल) मृत्युलोक (प्रथ्वी) और देवलोक (स्वर्ग) इन सबसे अलग है, वहाँ काल-निरंजन को घुसने के अनुमति नहीं है । इस प्रथ्वी पर चन्द्रमा, सूर्य है, पर सत्यलोक में सत्यपुरुष के एक रोम का प्रकाश करोङों चन्द्रमा के समान है ।
(वहाँ का उजाला चमकीला एकदम सफ़ेद होने से चन्द्रमा के जैसा कहा है । सूर्य के प्रकाश में पीला रंग होता है)
तथा वहाँ के हंस जीव (मुक्त होकर गयी आत्मायें) का प्रकाश सोलह सूर्य के बराबर है । उन हंस जीवों में अगर (चन्दन) के समान सुगन्ध आती है, और वहाँ कभी रात नहीं होती ।

तब रानी इन्द्रमती घबरा कर बोली - प्रभु, आप मुझे इस यम कालनिरंजन से छुङा लो,  मैं अपना समस्त राजपाट आप पर न्योछावर करती हूँ । मैं अपना सब धन संपत्ति का त्याग करती हूँ, हे बन्दीछोङ, मुझे अपनी शरण में लो ।

मैंने कहा - हे रानी, मैं तुम्हें अवश्य यम काल-निरंजन से छुङाऊँगा । मैं तुम्हें सत्यनाम का सुमरन दूँगा पर मुझको तुम्हारी धन, संपत्ति तथा राजपाट से कोई प्रयोजन नहीं है ।
जो धन संपत्ति तुम्हारे पास है, उससे पुण्य कार्य करो । सच्चे साधु सन्तों का आदर सत्कार करो ।

सत्यपुरुष के ही सभी जीव हैं, ऐसा जानकर उनसे व्यवहार करो । परन्तु वे मोहवश अज्ञान के अंधकार में पङे हुये हैं । सब शरीरों में सत्यपुरुष के अंश जीवात्मा का ही वास है, पर वह कहीं प्रकट, और कहीं गुप्त है ।

हे रानी, ये समस्त जीव सत्यपुरुष के हैं परन्तु वे मोह के भ्रमजाल में फ़ँसे काल-निरंजन के पक्ष में हो रहे हैं । यह सब चरित्र काल-निरंजन का ही है कि सब जीव सत्यपुरुष को भुलाकर उसके फ़ैलाये खानी वाणी के जाल में फ़ँसे हुये हैं । और उसने यह जाल इतनी सूझबूझ से फ़ैलाया है कि मुझ जैसे उद्धारक से भी जीव कालवश होकर उसका पक्ष लेकर लङते हैं, और मुझे भी नहीं पहचानते ।

इस प्रकार ये भ्रमित जीव सत्यपुरुष रूपी अमृत को छोङकर विषरूपी काल-निरंजन से प्रेम करते हैं । असंख्य जीवों में से कोई कोई ही इस कपटी काल-निरंजन की चालाकी को समझ पाता है, और सत्यनाम का उपदेश लेता है ।

इन्द्रमती बोली - हे प्रभु, अब मैंने सब कुछ समझ लिया है । अब आप वही करो  जिससे मेरा उद्धार हो ।

कबीर साहब बोले - धर्मदास, तब मैंने रानी को सत्यनाम उपदेश किया यानी दीक्षा दी ।

तब रानी ने ऐसी (दीक्षा के समय होने वाली) अनुभूति से प्रभावित होकर अपने पति से कहा - स्वामी, यदि आप सुखदायी मोक्ष चाहते हो तो करुणामय स्वामी की शरण में आओ । मेरी इतनी बात मानो ।

राजा बोला - रानी, तुम मेरी अर्धांगिनी हो, इसलिये मैं तुम्हारी भक्ति में आधे का भागीदार हूँ । इसलिये हम तुम दोनों भक्त नहीं होंगे, मैं सिर्फ़ तुम्हारी भक्ति का प्रभाव देखूँगा कि किस प्रकार तुम मुझे मुक्त कराओगी । मैं तुम्हारी भक्ति का प्रताप देखूँगा ।
जिससे सब दुख कष्ट मिट जायेंगे, और हम सत्यलोक जायेंगे ।

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Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।