त्रेता-युग
समाप्त हुआ और द्वापर-युग आ गया ।
तब
फ़िर काल-निरंजन का प्रभाव हुआ, और फ़िर सत्यपुरुष ने
ज्ञानीजी को बुलाकर कहा - ज्ञानी, तुम
शीघ्र संसार में जाओ, और काल-निरंजन के बँधनों से जीवों का
उद्धार करो । काल-निरंजन जीवों को बहुत पीङा दे रहा है, जाकर
उसकी फ़ाँस काटो ।
तब
मैंने सत्यपुरुष की बात सुनकर उनसे कहा - आप
प्रमाणित स्पष्ट शब्दों में आज्ञा करो तो मैं काल-निरंजन को मारकर सब जीवों को
सत्यलोक ले आता हूँ । बारबार ऐसा करने संसार में क्या जाऊँ ।
सत्यपुरुष
बोले - हे योग संतायन, सुनो,
सारशब्द का उपदेश सुनाकर जीव को मुक्त कराओ । जो अब जाकर काल-निरंजन
को मारोगे, तो हे सुत, तुम मेरा वचन ही
भंग करोगे । अब तो अज्ञानी जीव काल के जाल में फ़ँसे पङे हैं, और उसमें ही उन्हें मोहवश सुख भास रहा है । लेकिन जब तुम उन्हें जाग्रत
करोगे, तब उन्हें आनन्द का अहसास होगा ।
जब तुम
काल-निरंजन का असली चरित्र बताओगे तो सब जीव तुम्हारे चरण पकङेंगे ।
हे ज्ञानी, जीवों का भाव, स्वभाव तो देखो कि ये ज्ञान, अज्ञान को पहचानते समझते नहीं हैं । तुम संसार में ‘सहज भाव’ से जाकर प्रकट होओ, और जीवों को चेताओ ।
हे ज्ञानी, जीवों का भाव, स्वभाव तो देखो कि ये ज्ञान, अज्ञान को पहचानते समझते नहीं हैं । तुम संसार में ‘सहज भाव’ से जाकर प्रकट होओ, और जीवों को चेताओ ।
तब मैं
फ़िर से संसार की तरफ़ चला । इधर आते ही चालाक और प्रपंची काल-निरंजन ने मेरे
चरणों में सिर झुका दिया ।
तब वह
काल-निरंजन कातर भाव से बोला - अब किस कारण से संसार
में आये हो?
मैं
आपसे विनती करता हूँ कि सारे संसार के जीवों को समझाओ ऐसा मत करना ।
आप
मेरे बङे भाई हो, मैं आपसे विनती करता हूँ, सभी जीवों को मेरा रहस्य न बताना ।
तब
मैंने कहा - निरंजन सुन, कोई कोई जीव
ही मुझे पहचान पाता है, और मेरी बात समझता है । क्योंकि
तुमने जीवों को अपने जाल में बहुत मजबूती से फ़ँसाकर ठगा हुआ है ।
धर्मदास, ऐसा कहकर मैंने सत्यलोक और सत्यलोक का शरीर छोङ दिया, और मनुष्य शरीर धारण कर मृत्युलोक में आया उस युग में मेरा नाम करुणामय
स्वामी था । तब मैं गिरनार गढ़ आया, जहाँ राजा चन्द्रविजय
राज्य करते थे । उस राजा की स्त्री बहुत बुद्धिमान थी, और
उसका नाम इन्द्रमती था । वह सन्त समागम करती थी, और ज्ञानी
सन्तों की पूजा करती थी ।
रानी
इन्द्रमती अपने स्वभाव के अनुसार महल की ऊँची अटारी पर चढ़ कर रास्ता देखा करती थी
। यदि रास्ते में उसे कोई साधु जाता नजर आता तो तुरन्त उसको बुलवा लेती थी । इस
प्रकार सन्तों के दर्शन हेतु वह अपने शरीर को कष्ट देती थी ।
वह
किसी सच्चे सन्त की तलाश में थी । उसके ऐसे भाव से प्रसन्न हम उसी रास्ते पर पहुँच
गये । जब रानी की दृष्टि हम पर पङी तो उसने तुरन्त दासी को आदरपूर्वक बुलाने भेजा
। दासी ने रानी का विनम्र संदेश मुझे सुनाया ।
मैंने
दासी से कहा - दासी, हम राजा के घर
नहीं जायेंगे । क्योंकि राज्य के कार्य में झूठी मान, बङाई
होती है, और साधु का मान बङाई से कोई सम्बन्ध नहीं होता अतः
मैं नहीं जाऊँगा ।
दासी
ने रानी से जाकर ऐसा ही कहा ।
तब
रानी स्वयं दौङी दौङी आयी, और मेरे चरणों में अपना शीश रख दिया ।
फ़िर वह
बोली - साहिब, हम पर दया कीजिये, और अपने पवित्र श्रीचरणों से हमारा घर धन्य कीजिये । आपके दर्शन पाकर मैं
सुखी हो गयी ।
उसका
ऐसा प्रेम भाव देखकर हम उसके घर चले गये । तब रानी भोजन के लिये मुझसे निवेदन करती
हुयी बोली - हे प्रभु, भोजन तैयार
करने की आज्ञा देकर मेरा सौभाग्य बढ़ायें । आपकी जूठन मेरे घर में पङे और बचा भोजन
शेष प्रसाद के रूप में मैं खाऊँ ।
मैंने
कहा - रानी सुनो, पाँच तत्व (का शरीर) जिस भोजन को पाता है,
उसकी भूख मुझे नहीं होती । मेरा भोजन अमृत है, मैं तुम्हें
इसको समझाता हूँ । मेरा शरीर प्रकृति के पाँच तत्व और तीन गुण वाला नहीं है, बल्कि अलग है । पाँच तत्व, तीन गुण, पच्चीस प्रकृति से तो काल-निरंजन ने मनुष्य शरीर की रचना की है ।
स्थान
और क्रिया के भेद से काल-निरंजन ने वायु के ‘पचासी भाग’
किये, इसलिये पिचासी पवन कहा जाता है । इसी
वायु तथा चार अन्य तत्व प्रथ्वी, जल, आकाश,
अग्नि से ये मनुष्य शरीर बना है परन्तु मैं इनसे एकदम अलग हूँ ।
इस पाँच तत्व की स्थूल देह में एक ‘आदिपवन’ है
। आदि का मतलब यहाँ जन्म-मरण से रहित, नित्य,
अविनाशी और शाश्वत है, वह चैतन्य जीव है, उसे ‘सोऽहंग’ बोला जाता है । यह
जीव सत्यपुरुष का अंश है ।
काल-निरंजन
ने इसी जीव को भ्रम में डालकर सत्यलोक जाने से रोक रखा है । यह काल-निरंजन ऐसा
करने के लिये नाना प्रकार के मायाजाल रचता है, और
सांसारिक विषयों का लोभ लालच देकर जीवों को उसमें फ़ँसाता है, और फ़िर खा जाता है । मैं उन्ही जीवों को काल-निरंजन से उद्धार कराने आया
हूँ ।
काल ने
पानी, पवन, प्रथ्वी आदि तत्वों
से जीव की बनावटी देह की रचना की, और इस देह में वह जीवों को
बहुत दुख देता है । मेरा शरीर काल-निरंजन ने नहीं बनाया ।
मेरा शरीर ‘शब्द स्वरूप’ है, जो खुद मेरी इच्छा से बना है ।
यह सब
सुनकर रानी इन्द्रमती को बहुत आश्चर्य हुआ, और वह
बोली - हे प्रभु, जैसा आपने कहा, ऐसा कहने वाला दूसरा कोई नहीं मिला । दयानिधि, आप
मुझे और भी ज्ञान बताओ, मैंने सुना है कि विष्णु के समान
दूसरा कोई ब्रह्मा, शंकर, मुनि आदि भी
नहीं है ।
पाँच
तत्वों के मिलने से यह शरीर बना है, और उन
तत्वों के गुण भूख, प्यास, नींद के वश
में सभी जीव हैं । प्रभु, आप अगम अपार हो, आप मुझे बताओ कि ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर से भी
अलग आप कहाँ से उत्पन्न हुये हो? ऐसा बताकर मेरी जिज्ञासा
शान्त करो ।
मैंने
कहा - इन्द्रमती, मेरा देश
नागलोक (पाताल) मृत्युलोक (प्रथ्वी) और देवलोक (स्वर्ग)
इन सबसे अलग है, वहाँ काल-निरंजन को घुसने के
अनुमति नहीं है । इस प्रथ्वी पर चन्द्रमा, सूर्य है, पर सत्यलोक में सत्यपुरुष के एक रोम का प्रकाश करोङों चन्द्रमा के समान
है ।
(वहाँ का उजाला चमकीला एकदम सफ़ेद होने से चन्द्रमा के जैसा कहा है । सूर्य
के प्रकाश में पीला रंग होता है)
तथा
वहाँ के हंस जीव (मुक्त होकर गयी आत्मायें) का प्रकाश सोलह सूर्य के बराबर है । उन हंस जीवों में अगर (चन्दन) के समान सुगन्ध आती है,
और वहाँ कभी रात नहीं होती ।
तब
रानी इन्द्रमती घबरा कर बोली - प्रभु, आप मुझे इस यम कालनिरंजन से छुङा लो, मैं अपना समस्त राजपाट आप पर न्योछावर करती हूँ
। मैं अपना सब धन संपत्ति का त्याग करती हूँ, हे बन्दीछोङ, मुझे अपनी शरण में लो ।
मैंने
कहा - हे रानी, मैं तुम्हें
अवश्य यम काल-निरंजन से छुङाऊँगा । मैं तुम्हें सत्यनाम का सुमरन दूँगा पर मुझको
तुम्हारी धन, संपत्ति तथा राजपाट से कोई प्रयोजन नहीं है ।
जो धन
संपत्ति तुम्हारे पास है, उससे पुण्य कार्य करो । सच्चे साधु सन्तों का
आदर सत्कार करो ।
सत्यपुरुष
के ही सभी जीव हैं, ऐसा जानकर उनसे व्यवहार करो । परन्तु वे मोहवश
अज्ञान के अंधकार में पङे हुये हैं । सब शरीरों में सत्यपुरुष के अंश जीवात्मा का
ही वास है, पर वह कहीं प्रकट, और कहीं
गुप्त है ।
हे
रानी, ये समस्त जीव सत्यपुरुष के हैं परन्तु वे मोह
के भ्रमजाल में फ़ँसे काल-निरंजन के पक्ष में हो रहे हैं । यह सब चरित्र
काल-निरंजन का ही है कि सब जीव सत्यपुरुष को भुलाकर उसके फ़ैलाये खानी वाणी के जाल
में फ़ँसे हुये हैं । और उसने यह जाल इतनी सूझबूझ से फ़ैलाया है कि मुझ जैसे
उद्धारक से भी जीव कालवश होकर उसका पक्ष लेकर लङते हैं, और
मुझे भी नहीं पहचानते ।
इस
प्रकार ये भ्रमित जीव सत्यपुरुष रूपी अमृत को छोङकर विषरूपी काल-निरंजन से प्रेम
करते हैं । असंख्य जीवों में से कोई कोई ही इस कपटी काल-निरंजन की चालाकी को समझ
पाता है, और सत्यनाम का उपदेश लेता है ।
इन्द्रमती
बोली - हे प्रभु, अब मैंने सब
कुछ समझ लिया है । अब आप वही करो जिससे
मेरा उद्धार हो ।
कबीर
साहब बोले - धर्मदास, तब मैंने रानी
को सत्यनाम उपदेश किया यानी दीक्षा दी ।
तब
रानी ने ऐसी (दीक्षा के समय होने वाली) अनुभूति से प्रभावित होकर अपने पति से कहा - स्वामी, यदि आप सुखदायी मोक्ष चाहते हो तो करुणामय स्वामी की शरण में आओ । मेरी
इतनी बात मानो ।
राजा
बोला - रानी, तुम मेरी
अर्धांगिनी हो, इसलिये मैं तुम्हारी भक्ति में आधे का
भागीदार हूँ । इसलिये हम तुम दोनों भक्त नहीं होंगे, मैं
सिर्फ़ तुम्हारी भक्ति का प्रभाव देखूँगा कि किस प्रकार तुम मुझे मुक्त कराओगी । मैं
तुम्हारी भक्ति का प्रताप देखूँगा ।
जिससे
सब दुख कष्ट मिट जायेंगे, और हम सत्यलोक जायेंगे ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें