कबीर
बोले - धर्मदास, सदगुरू
सर्वोपरि हैं अतः शिष्य को चाहिये कि गुरू से अधिक किसी को न माने, और गुरू के सिखाये हुये को सत्य करके जाने । एक समय ऐसा भी आयेगा,
जब तुम्हारा बिंद वंश उल्टा काम करेगा । वह बिना गुरू के भवसागर से
पार होना चाहेगा ।
जो
निगुरा होकर जगत को समझाता है अर्थात ज्ञान बताता है । वह खुद तो डूबेगा ही तथा
संसार के जीवों को भी डुबायेगा, बिना गुरू के कल्याण
नहीं होता । जो गुरू के शरणागत होता है, वह संसार सागर से
पार हो जाता है । यह काल-निरंजन अनेक प्रकार से जीवों को धोखे में डालता है अतः
बिना गुरू के जीवों को अहंकार वश ज्ञान कहते देखकर काल बहुत खुश होता है ।
धर्मदास
बोले - साहिब, आप कृपा करके ‘नाद-बिंद’ ज्ञान को समझाने की
कृपा करें ।
कबीर
बोले - बिंद एक, और नाद
बहुत से होते हैं । जो बिंद की भांति मिले, वह बिंद कहाता है
। वचन वंश सत्यपुरुष का अंश है, उसके ज्ञान से जीव संसार से
छूट जाता है । नाद और बिंद वंश एक साथ होंगे, तब उनसे काल
मुँह छुपाकर रहेगा । जैसे मैंने तुम्हें बताया, वैसे नाद-बिंद योग (योग का एक तरीका, प्रकार)
एक करना । क्योंकि बिना नाद तो बिंद का भी विस्तार नहीं होता, और बिना बिंद नाद नहीं उबरेगा ।
इस
कलियुग में काल बहुत प्रबल है, जो अहंकार रूप धर सबको
खाता है । नाद अहंकार त्याग कर होगा, और बिंद का अहंकार बिंद
सजायेगा । इसी से सत्यपुरुष ने इन दोनों को अनुशासित करने के लिये मर्यादा (नियम) में बाँधा, और नाद बिंद
दो रूप बनाये ।
जो
अहंकार छोङकर सत्य-स्वरूप परमात्मा को भजेगा, उसका ध्यान, सुमरन करेगा । वह हंस-स्वरूप हो जायेगा । नाद-बिंद दोनों कोई हों अहंकार
सबके लिये हानिकारक ही है । इसलिये यह निश्चित है, जो अहंकार
करेगा, वह भवसागर में डूबेगा ।
धर्मदास
बोले - साहिब, आपने नाद-बिंद के बारे में बताया । अब मेरे मन में एक बात आ रही है, आपके विरोधी, मेरे पुत्र नारायण दास का क्या होगा? वह संसार के नाते मेरा पुत्र है, इसलिये चिंता होती
है । सत्यनाम को ग्रहण करने वाले जीव सत्यलोक को जायेंगे, और
नारायण दास काल के मुँह में जायेगा, यह तो अच्छी बात न होगी
।
कबीर
साहब बोले - धर्मदास, मैंने तुमको
बारबार समझाया पर तुम्हारी समझ में नहीं आया । अगर चौदह यमदूत ही मुक्त होकर सत्यलोक
चले जायेंगे, तो फ़िर जीवों को फ़ँसाने के लिये फ़ंदा कौन लगायेगा?
अब
मैंने तुम्हारा ज्ञान समझा । तुम मेरी बातों की परवाह न करके मोह, माया द्वारा सत्यपुरुष की आज्ञा को मिटाने में लगे हुये हो । जब मनुष्य के
मन में मोह अंधकार छा जाता है, तब सारा ज्ञान भूलकर वह अपना
परमार्थ कर्म नष्ट करता है । बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती, और बिना भक्ति के कोई जीव भवसागर से नहीं तर सकता ।
फ़िर
से तुम्हें काल फ़ँदा लगा है । तुमने प्रत्यक्ष देखा कि नारायण दास कालदूत है
फ़िर
भी तुमने उसे पुत्र मानने का हठ किया । जब तुम्हें ही मेरे वचनों पर विश्वास नहीं
आता तो संसारी लोग गुरूओं पर क्या विश्वास करेंगे? जो अहंकार
को छोङकर गुरू की शरण में आता है, वही सदगति पाता है । जो
त्रिगुणी माया को पकङते हैं, उनमें मोह मद जाग जाता है, और वे अभागे भक्ति, ज्ञान सब त्याग देते हैं ।
जब तुम
ही गुरू का विश्वास त्याग दोगे । जो जीवों का उद्धार करने वाले हो तब सामान्य
जीवों का क्या ठिकाना । इस प्रकार भ्रमित करने की यही तो काल-निरंजन की सही पहचान है ।
धर्मदास, सुनो, जैसा तुम कह रहे हो,
वैसा ही तुम्हारा वंश भी प्रकाशित करेगा ।
मोह की
आग में वह सदा जलेगा, और इसी से तुम्हारे वंश में विरोध पङेगा ।
जिससे दुख होगा । पुत्र, धन, घर,
स्त्री, परिवार और कुल का अभिमान यह सब काल ही
का तो विस्तार है । वह इन्हीं को माध्यम बनाकर जीव को बँधन में डालता है ।
इनसे
तुम्हारा वंश भूल में पङ जायेगा, और सत्यनाम की राह नहीं
पायेगा । संसार के अन्य वंश की देखादेखी तुम्हारे वंश के लोग भी पुत्र, धन, घर, परिवार आदि के मोह में
पङ जायेंगे, और यह देखकर कालदूत बहुत प्रसन्न होंगे । तब
कालदूत प्रबल हो जायेंगे, और जीवों को नरक भेजेंगे ।
काल-निरंजन अपने जाल में जीव को जब फ़ँसाता है तो उसे काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह विषयों में भुला देता है । फ़िर उसे गुरू
के वचनों पर विश्वास नहीं रहता, तब सत्यनाम की बात
सुनते ही वह जीव चिढ़ने लगता है । गुरू पर विश्वास न करने का यही लक्षण है ।
धर्मदास, जिसके घट (शरीर) में सत्यनाम
समा गया है, उसकी पहचान कहता हूँ । ध्यान से सुनो । उस भक्त
को काल का वाण नहीं लगता, और उसे काम, क्रोध,
मद, लोभ नहीं सताते । वह झूठी मोह, तृष्णा तथा सांसारिक वस्तुओं की आशा त्याग कर सदगुरू के सत्य वचनों में मन
लगाता है ।
जैसे
सर्प मणि को धारण कर प्रकाशित होता है । ऐसे
ही शिष्य सदगुरू की आज्ञा को अपने ह्रदय में धारण करे तथा समस्त विषयों को भुलाकर
विवेकी हंस बनकर, अविनाशी निज मुक्त-स्वरूप
सत्यपद प्राप्त करे ।
सदगुरू
के वचन पर अटल और अभिमान रहित कोई बिरला ही शूरवीर संत प्राप्त करता है, और उसके लिये मुक्ति दूर नहीं होती । इस प्रकार जीवित ही मुक्ति स्थिति
का अनुभव और मुक्ति प्रदान कराना सदगुरू का ही प्रताप है । अतः सदगुरू के चरणों
में ही प्रेम करो, और सब पाप कर्म अज्ञान एवं सांसारिक विषय
विकारों को त्याग दो । अपने नाशवान शरीर को धूल के समान समझो ।
यह
सुनकर धर्मदास सकपका गये । वह कबीर साहब के चरणों में गिर पङे, और दुखी स्वर में बोले - प्रभु मैं अज्ञान से अचेत
हो गया था, मुझ पर कृपा करें, कृपा
करें । मेरी भूल-चूक क्षमा करें । जो नारायण दास के लिये
मैंने जिद की थी, वह अज्ञान में खुद को पिता जानकर की थी अतः
मेरी इस भूल को क्षमा करें ।
कबीर
बोले - धर्मदास, तुम सत्यपुरुष
के अंश हो, परन्तु वंश नारायण दास काल का दूत है । उसे त्याग
दो, और जीवों का कल्याण करने के लिये भवसागर में सत्यपंथ
चलाओ ।
यह
सुनकर धर्मदास कबीर साहब के पैरों पर गिर पङे, और बोले -
आज से मैंने अपने उस पुत्र रूप कालदूत को त्याग दिया । अब आपको
छोङकर किसी और की आशा करूँ तो मैं सत्य-संकल्प के साथ कहता
हूँ मेरा नरक में वास हो ।
कबीर
साहब प्रसन्नता से बोले - धर्मदास, तुम धन्य हो, जो मुझको पहचान लिया, और नारायण दास को त्याग दिया
। जब शिष्य के ह्रदयरूपी दर्पण में मैल नहीं होगा, गुरू का
स्वरूप तब ही दिखायी देगा ।
जब
शिष्य अपने पवित्र ह्रदय में सदगुरू के श्रीचरणों को रखता है, तो काल की सब शाखाओं के समस्त बंधनों को मिटाता है । परन्तु जब तक वह सात, पाँच (सात
स्वर्ग, काल तथा माया (के) तीनों पुत्र, ब्रह्मा, विष्णु,
महेश, ये पाँच) की आशा
लगी रहेगी ।
तब तक
वह शिष्य गुरू-पद की महिमा नहीं समझ पायेगा ।
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