शुक्रवार, दिसंबर 24, 2010

अक्षर खण्ड रमैनी 7

भासे जीव रूप सो एक, तेही भास के रूप अनेक ।
कोई मगन रूप लौ लीन, कोइ अरूप ईश्वर मन दीन ।
कोई कहै कर्म रूप है सोय, शब्द निरूपन करे पुनि कोइ ।
समय रूप कोई भगवान, कर्ता न्यारा कोई अनुमान ।
कोई कहै ईश्वर ज्योतिहि जान, आतम को कोई स्वतः बखान ।
कई कहि सब पुनि सब तै न्यारा, आपै राम विश्व विस्तारा ।
शब्द भाव कोई अनुमान, अद्वै रूप भई पहिचान ।
दुगदुग रही को बोले बात, बोलत ही सब तत्व नसात ।
बोल अबोल लखे पुनि कोय, भास जीव नहि परखै सोय ।

निज अध्यास झांई अहै, सो संधिक भौ भास ।
प्रथम अनुहारी कल्पना, सदा करे परकास । 27

लख चौरासी योनी जेते, देही बुद्धि जानिये तेते ।
जहँ जेहि भास सोई सोइ रूप, निश्चै किया परा भवकूप ।
नाना भांति विषय रस लीन, अरुझि अरुझि जिव मिथ्या दीन ।
दावा विषय जरै सब लोय, बांचा चहै गहै पुनि सोय ।
दृढ़ विश्वास भरोसा राम, कबहू तो वे आवैं काम ।
विषय विकार मांझ संग्राम, राम खटोला किया अराम ।
घायल बिना तीर तरवार, सोइ अभरण जेहि रीझै भरतार ।
कामिनी पहिर पिया सो राची, कहैं कबीर भव बूढ़त बांची । 28

भव बूढ़त बेङा भगवान, चढ़े धाय लागी लौ ज्ञान ।
थाह न पावे कहे अथाह, डोलत करत तराहि तराह ।
सूझ परे नहि वार न पार, कहै अपार रहै मझधार ।
मांझधार में किया विवेक, कहाँ के दूजा कहाँ के एक?
बेरा आपु आपु भवधार, आपै उतरन चाहे पार ।

बिन जाने जाने है और, आपे राम रमै सब ठौर ।
वार पार ना जाने जोर, कहै कबीर पार है ठौर । 29

अक्षर खानी अक्षर वानी, अक्षर ते अक्षर उतपानी ।
अक्षर करता आदि प्रकास, ताते अक्षर जगत विलास ।
अक्षर ब्रह्मा विष्णु महेश, अक्षर सत रज तम उपदेश ।
छिति जल पावक मरुत अकास, ये सब अक्षर मो परकास ।
दश औतार सो अक्षर माया, अक्षर निर्गुण ब्रह्म निकाया ।
अक्षर काल संधि अरु झांई, अक्षर दहिने अक्षर बांई ।
अक्षर आगे करे पुकार, अटके नर नहि उतरे पार ।
गुरुकृपा निज उदय विचार, जानि परी तब गुरु मतसार ।

जहाँ ओस को लेस नही, बूङे सकल  जहान ।
गुरुकृपा निज परख बल, तब ताको पहिचान । 30

अक्षर काया अक्षर माया, अक्षर सतगुरु भेद बताया ।
अक्षर यन्त्र मन्त्र अरु पूजा, अक्षर ध्यान धरावत दूजा ।
अक्षर पढ़ि पढ़ि जगत भुलान, अक्षर बिनु नहि पावै ज्ञान ।
बिन अक्षर नहि पावै गती, अक्षर बिन नहि पावै रती ।
अक्षर भये अनेक उपाय, अक्षर सुनि सुनि शून्य समाय ।
अक्षर से भव आवै जाय, अक्षर काल सबन को खाय ।
अक्षर सबका भाखे लेखा, अक्षर उत्पति प्रलय विशेखा ।
अक्षर की पावै सहिदानी, कहैं कबीर तब उतरे प्रानी ।

परखावै गुरु कृपा करि, अक्षर की सहिदानि ।
निज बल उदथ विचारते, तब होवे भ्रम हानि । 31

बाबन के बहु बने तरंग, ताते भासत नाना रंग ।
उपजे औ पाले अनुसरै, बाबन अक्षर आखिर करे ।
राम कृष्ण दोऊ लहर अपार, जेहि पद गहि नर उतरे पार ।
महादेव लोमश नहि बांचे, अक्षर त्रास सबै मुनि नाचे ।
ब्रह्मा विष्णु नाचे अधिकाई, जाको धर्म जगत सब गाई ।
नांचै गण गंधर्व मुनि देवा, नाचे सनकादिक बहु भेवा ।
अक्षर त्रास सबन को होई, साधक सिद्ध बचे नही कोई ।
अक्षर त्रास लखे नही कोई, आदि भूल बंछे सब लोई ।
अक्षर सागर अक्षर नाव, करणधार अक्षर समुदाव ।
अक्षर सबका भेद बखान, बिन अक्षर अक्षर नहि जान ।
अक्षर आस ते फ़ंदा परे, अक्षर लखे ते फ़ंदा टरे ।
गुरु सिष अक्षर लखे लखावे, चौरासी फ़ंदा मुक्तावै ।
बिनु गुरु अक्षर कौन छुङावै, अक्षर जाल ते कौन बचावै ।
संचित क्रिया उदय जब होय, मानुष जन्म पावे तब सोय ।

गुरु पारख बल उदय विचार, परख लेहु जगत गुरु मुख सार ।
अस्ति हंस प्रकास अपार, गुरुमुख सुख निज अति दातार । 32


अक्षर है तिहु भर्म का, बिनु अक्षर नहिं जान ।
गुरु कृपा निज बुद्धि बल, तब होवै पहिचान । 33

जहंवा से सब प्रगटे, सो हम समझत नाहिं ।
यह अज्ञान है मानुषा, सो गुरु ब्रह्म कहि ताहि । 34

ब्रह्म विचारे ब्रह्म को, पारख गुरु परसाद ।
रहित रहै पद परखि कै, जिव से होय अवाद । 35

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गुरुवार, दिसंबर 23, 2010

अक्षर खण्ड रमैनी 6



सदा अस्ति भासे निज भास, सोई कहिये परम प्रकाश ।
परम प्रकाश ले झांईं होय, महद अकाश होय बरते सोय ।
बरते बर्त मान परचंड, भासक तुरीयातीत अखंड ।
काल संधि होये उश्वास, आगे पीछे अनवनि भास ।
विविध भावना कल्पित रूप, परकाशी सो साक्षि अनूप ।
शून्य अज्ञान सुषुप्ति होय, अकुलाहट ते नादै सोय ।
(शून्य ज्ञान सुषुप्ति होय, अकुलाहट ते नादी सोय)
नाद वेद अकर्षण जान, तेज नीर प्रगटे तेहि आन ।
पानी पवन गांठि परि जाय, देही देह धरे जग आय ।
सो कौआर शब्द परचंड, बहु व्यवहार खंड ब्रह्मंड ।

जतन भये निज अर्थ को, जेहि छूटे दुख भूरि ।
धूरि परी जब आँख में, सूझे किमि निज मूर । 23

पांजी परख जबै फ़रि आवै, तुरतहि सबै विकार नसावै ।
शब्द सुधार के रहे अकरम, स्वाति भक्ति के खोटे भरम ।
काल जाल जो लखि नहि आवै, तौलौ निज पद नहीं पावै ।
झाईं सन्धि काल पहिचान, सार शब्द बिन गुरु नहि जान ।
परखे रूप अवस्था जाए, आन विचार न ताहि समाए ।
झांईं सन्धि शब्द ले परखे जोय, संशय वाके रहि न कोय ।

धन्य धन्य तरण तरण, जिन परखा संसार ।
बन्दीछोर कबीर सों, परगट गुरु विचार । 24

शब्द सन्धि ले ज्ञानी मूढ़, देह करम जगत आरूढ़ ।
नाद संधि लै सपना होय, झांई शून्य सुषोपित सोय ।
ज्ञान प्रकाशक साक्षी संधि, तुरीयातीत अभास अवंधि ।
झांई ले वरते वर्तमान, सो जो तहाँ परे पहिचान ।
काल अस्थिति के भास नसाए, परख प्रकाश लक्ष बिलगाए ।
बिलगै लक्ष अपन पौ जान, आपु अपन पौ भेद न आन ।

आप अपुन पौ भेद बिनु, उलटि पलटि अरुझाय ।
गुरु बिन मिटे न दुगदुगी, अनवनि यतन नसाय । 25

निज प्रकाश झांई जो जान, महा संधि माकाश बखान ।
सोई पांजी ल बुद्धि विशेष, प्रकाशक तुरीयातीत अरु शेष ।
विविध भावना बुद्धि अनुरूप, विद्या माया सोई स्वरूप ।
सो संकल्प बसे जिव आप, फ़ुरी अविद्या बहु संताप ।
त्रीगुण पाँच तत्व विस्तार, तीन लोक तेहि के मंझार ।
अदबुद कला बरनि नहि जाई, उपजे खपे तेहि माहि समाई ।
निज झांई जो जानी जाए, सोच मोह सन्देह नसाए ।
अनजाने को ऐही रीत, नाना भांति करे परतीत ।
सकल जगत जाल अरुझान, बिरला और कियो अनुमान ।
कर्ता ब्रह्म भजे दुख जाये, कोई आपै आप कहाये ।
पूरण सम्भव दूसर नाहि, बंधन मोक्ष न एको आहि ।
फ़ल आश्रित स्वर्गहि के भोग, कर्म सुकर्म लहै संयोग ।
करम हीन वाना भगवान, सूत कुसूत लियो पहिचान ।
भांतिन भांतिन पहिरे चीर, युग युग नाचे दास कबीर । 26

मंगलवार, अगस्त 17, 2010

अक्षर खण्ड रमैनी 5

नव दरवाजा भरम विलास, भरमहि बाबन बहे बतास ।
कनउज बाबन भूत समान, कहं लगि गनो सो प्रथम उङान ।
माया ब्रह्म जीव अनुमान, मानत ही मालिक बौरान ।
अकबक भूत बके परचंड, व्यापि रहा सकलो ब्रह्मंड ।
ई भर्म भूत की अकथ कहानी, गोत्यो जीव जहाँ नहि पानी ।
तनक तनक पर दौरै बौरा, जहाँ जाये तहाँ पावे न ठौरा ।

योगी राम भक्त बाबरा, ज्ञानी फ़िरे निखट्टू ।
संसारी को चैन नही है, ज्यों सराय को टट्टू । 17

इत उत दौरै सब संसार, छुटे न भरम किया उपचार ।
जरै जीव को बहुरि जरावै, काटे ऊपर लोन लगावै ।
योगी ऐसे हाल बनाई, उल्टी बत्ती नाक चलाई ।
कोई विभूति मृगछाला डारे, अगम पन्थ की राह निहारे ।
काहू को जल मांझ सुतावै, कहंरत हीं सब रैन गवांवै ।
भगती नारी कीन श्रंगार, बिन प्रिया परचै सबै अंगार ।
एक गर्भ ज्ञान अनुमान, नारि पुरुष का भेद न जान ।
संसारी कहूँ कल नहि पावै, कहरत जग में जीव गंवावै ।
चारि दिशा में मन्त्री झारे, लिये पलीता मुलना हारे ।
जरै न भूत बङो बरियारा, काजी पण्डित पढ़ि पढ़ि हारा ।
इन दोनों पर एकै भूत, झारेंगे क्या मां की चूत ।

भूत न उतरे भूत सों, सन्तों करो विचार ।
कहैं कबीर पुकार के, बिनु गुरु नहि निस्तार । 18

परम प्रकाश भास जो, होत प्रोढ़ विशेष ।
तद प्रकाश संभव भई, महाकाश सो शेष । 19

झांई संभव बुद्धि ले, करी कल्पना अनेक ।
सो परकाशक जानिये, ईश्वर साक्षी एक । 20

विषम भई संकल्प जब, तदाकार सो रूप ।
महा अंधेरी काल सो, परे अविद्या कूप । 21

महा तत्व त्रीगुण पाँच तत्व, समिष्ठि व्यष्ठि परमान ।
दोय प्रकार होय प्रगटे, खंड अखंड सो जान । 22

बुधवार, अगस्त 11, 2010

अक्षर खण्ड रमैनी 4


भरम जीव परमातम माया, भरम देह औ भरम निकाया ।
अनहद नाद औ ज्योति प्रकास, आदि अन्त लौ भरम हि भास ।
इत उत करे भरम निरमान, भरम मान औ भरम अमान ।
कोहं जगत कहाँ से भया, ई सब भरम अती निरमया ।
प्रलय चारि भ्रम पुण्य औ पाप, मन्त्र जाप पूजा भ्रम थाप ।
बाट बाट सब भरम है, माया रची बनाय ।
(बाप पूत दोऊ भरम है, माया रची बनाय)
भेद बिना भरमे सकल, गुरु बिन कहाँ लखाय । 12

बाप पूत दोऊ भरम, आध कोश नव पांच ।
बिन गुरु भरम न छूटे, कैसे आवे सांच । 13

कलमा बांग निमाज गुजारै, भरम भई अल्लाह पुकारे ।
अजब भरम यक भई तमासा, ला मुकाम बेचून निवासा ।
बेनमून वह सबके पारा, आखिर ताको करौ दीदारा ।
रगरै महजिद नाक अचेत, निंदे बुत परस्त तेहि हेत ।
बाबन तीस बरन निरमाना, हिन्दू तुरक दोऊ भरमाना । 

भरमि रहे सब भरम महँ, हिन्दू तुरक बखान ।
कहहिं ‘कबीर’ पुकार कै, बिनु गुरु को पहिचान । 14

भरमत भरमत सबै भरमाने, रामसनेही बिरला जाने ।
तिरदेवा सब खोजत हारे, सुर नर मुनि नहि पावत पारे ।
थकित भया तब कहा बेअन्ता, विरहनि नारि रही बिनु कन्ता ।
कोटिन तरक करें मन माही, दिल की दुविधा कतहुं न जाही ।
कोई नख शिख जटा बढ़ावैं, भरमि भरमि सब जहँ तहँ धावैं ।
बाट न सूझै भई अंधेरी, होय रही बानी की चेरी ।
नाना पन्थ बरनि नहि जाई, जाति वरण कुल नाम बङाई ।
(जाति कर्म गुन नाम बङाई)
रैन दिवस वे ठाढ़े रहही, वृक्ष पहार काहि नहीं तरहीं ।

खसम न चीन्हे बाबरी, पर पुरुष लौ लीन ।
कहंहिं कबीर पुकार के, परी न बानी चीन । 15

कन रस की मतवाली नारि, कुटनी से खोजे लगवारि ।
कुटनी आँखिन काजर दियऊ, लागि बतावन ऊपर पियऊ ।
काजर ले के ह्वै गयी अन्धी, समुझ न परी बात की संधी ।
बाजे कुटनी मारे भटकी, ई सब छिनरो ता महं अटकी ।
विरहिन होय के देह सुखावै, कोई शिर महं केश बढ़ावै ।
मानि मानि सब कीन्ह सिंगारा, बिन पिय परसै सब अंगारा ।

अटकी नारि छिनारि सब, हरदम कुटनी द्वार ।
खसम न चीन्है बाबरी, घर घर फ़िरत खुवार । 16

अक्षर खण्ड रमैनी 3


पहिले एक शब्द समुदाय, बाबन रूप धरे छितराय ।
इच्छा नारि धरे तेहि भेष, ताते ब्रह्मा विष्णु महेश ।
चारिउ उर पुरु बाबन जागे, पंच अठरह कंठहि लागे ।
तालू पंच शून्य सो आय, दश रसना के पूत कहाय ।
पांच अधर अधर ही मा रहै, शुन्ने कंठ समोधे वहै ।
ओठ कंठ ले प्रगटे ठौर, बोलन लागे और के और ।

एक शब्द समुदाय जो, जामे चार प्रकार ।
काल शब्द, संधि शब्द, झांई औ पुनि सार । 9

पांच तीनि नौ छौ औ चार, और अठारह करे पुकार ।
कर्म धर्म तीरथ के भाव, ई सब काल शब्द के दाव ।
सोऽहं आत्मा ब्रह्म लखाव, तत्वमसी मृत्युंजय भाव ।
पंचकोश नवकोश बखान, सत्य झूठ में करे अनुमान ।
ईश्वर साक्षी जाननिहार, ये सब संधिक कहै विचार ।
कारज कारण जहाँ न होय, मिथ्या को मिथ्या कहि सोय ।
बैन चैन नहि मौन रहाय, ई सब झांई दीन भुलाय ।
कोइ काहू का कहा न मान, जो जेहि भावे तहं अरुझान ।
परे जीव तेहि यम के धार, जौं लो पावे शब्द न सार ।
जीव दुसह दुख देखि दयाल, तब प्रेरी प्रभु परख रिसाल ।

परखाये प्रभु एक को, जामे चार प्रकार ।
काल संधि जांई लखी, लखी शब्द मत सार । 10

प्रथमे एक शब्द आरूढ़, तेहि तकि कर्म करे बहु मूढ़ ।
ब्रह्म भरम होय सब में पैठा, निरमल होय फ़िरे बहु ऐंठा ।
भरम सनातन गावे पांच, अटकि रहै नर भव की खांच ।
आगे पीछे दहिने बांयें, भरम रहा है चहुदिशि छाये ।
उठी भर्म नर फ़िरै उदास, घर को त्यागि कियो वनवास ।
भरम बढ़ी सिर केश बढ़ावे, तके गगन कोई बांह उठावे ।
द्वै तारी कर नासा गहै, भरमि क गुरु बतावे लहै ।
भरम बढ़ी अरु घूमन लागे, बिनु गुरु पारख कहु को जागे ।

कहैं कबीर पुकार के, गहहु शरण तजि मान ।
परखावे गुरु भरम को, वानि खानि सहिदानि । 11

WELCOME

मेरी फ़ोटो
Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।