शब्द 85
भूला लोग कहे घर मेरा ।
जो घरवा में भूला डोलै सो घर नाहि तुम्हारा ।
हाथी घोडा बैल बहानू संग्रह कियो घनेरा ।
बस्ती में से दिया षदेरा जंगल कियो बसेरा ।
गांठि बांधि षर्च नहिं पठवो बहुरि न कियो फेरा ।
बीबी बाहर हरम महल में बीच मियां का डेरा ।
नौ मन सूत अरुझै नहिं सरुझै जन्म जन्म अरुझेरा ।
कहैं कबीर सुनो हो संतो, यह पद करहु निबेरा ।
शब्द 86
कबीरा तेरो घर कंदला में, यह जग रहत भुलाना ।
गुरु की कही करत नहिं कोई, अमहल महल दिवाना ।
सकल ब्रह्म में हंस कबीरा, कागा चोंच पसारा ।
मनमथ कर्म धरै सब देही, नाद बिंदु बिस्तारा ।
सकल कबीरा बोलै बीरा, पानी में घर छाया ।
अनंत लूट होत घट भीतर, घट का मर्म न पाया?
कामिनी रूपी सकल कबीरा, मृगा चरिदा होई ।
बड बड ग्यानी मुनिवर थाके, पकडि सकै नहिं कोई ।
ब्रह्मा बरुन कुबेर पुरन्दर, पीपा औ प्रहलादा ।
हिरनाकुस नष उदर बिदारा, तिनहुं को काल न राषा ।
गोरष ऐसे दत्त दिगम्बर, नामदेव जयदेव दासा ।
तिनकी षबर कहत नहिं कोई, कहाँ कियो है बासा ।
चौपर षेल होत घट भीतर, जन्म का पासा डारा?
दम दम की कोइ षबर न जानै, करि न सकै निरुआरा ।
चारि दिग महि मंडल रचोहै, रूप सूम बिच डिल्ली ।
तेहि ऊपर कुछ अजब तमासा, मारो है जम किल्ली ।
सकल अवतार जासु महि मंडल, अनंत षडो कर जोरे ।
अदभुत अगम औगाह रची है, ई सभ सोभा तेरे ।
सकल कबीर बोलै बीरा, अजहूं हो हुसियारा ।
कहैं कबीर गुरु सिकली दर्पन, हरदम करहु पुकारा ।
शब्द 87
कबीरा तेरो बन कंदला में मानु अहेरा षेलै ।
बफुआरी आनंद मीरगा रुचि रुचि सर मेलै ।
चेतत रावल पावन षेडा सहजै मूलहि बांधै ।
ध्यान धनुष धरि ग्यानवान बन जोग सार सर साधै ।
षट चक्र बधि कमल बेधो जब जाय उजियारी कीन्हा ।
काम क्रोध मद लोभ मोह को हांकि के सावज दीन्हा ।
गगन मध्य रोकिन सो द्वारा जहाँ दिवस नहिं राती ।
दास कबीरा जाय पहूंचे बिछुरे संग के साथी ।
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