अथ हिंडोला
भर्म हिंडोलना झूलै सब जग आय ।
जहँ पाप पुण्य के खंभ दोऊ मेरु माया नाय
॥
तहँ कर्म पटुली बैठि कै को को न झूलै आय
।
यह लोभ मरुवा विषय भमरा काम कीला ठानि ॥
दोऊ शुभौ अशुभ बनाय डांङी गह्यो दूनौ
पानि ।
झूले सो गण गंधर्व मुनि नर झुले सुर गण
इन्द्र ॥
झूलत सु नारद शारदा हो झुलत व्यास
फ़णिन्द्र ।
झूलत विरंचि महेश मुनि हो झुलत सुरज
इन्दु ॥
औ आप निरगुण सगुण ह्वै कै झूलिया गोविंदु
।
छः चारि चौदह सात यकइस तीन लोक बनाय ॥
चौ खानि बानी खोजि देखौ थिर न कोइ रहाय ।
शशि सूर निशिदिन संधि औ तहँ तत्व पांचौ
नाहिं ॥
कालहु अकालहु प्रलय नहिं तहँ संत बिरले
जाहिं ।
खण्डहु ब्रह्माण्डहु खोज षट दरशन ये छूटे
नाहिं ॥
यह साधु संग विचारि देखौ जीउ निसतरि जाहि
।
तहँ के बिछुरि बहु कल्प बीते परे भूमि
भुलाय ॥
अब साधु संगति शोचि देखौ बहुरि उलट समाय
।
तेहि झूलिबे की भय नाहिं जो सन्त होहिं
सुजान ।
कह कबीर सत सुकृत मिलै तौ फ़िरि न झूलै आन
॥
अथ दूसरा हिंडोला
बहुविधि के चित्र बनाइ कै हरि रच्यो
क्रीडा रास ।
ज्यहि नाहिं इच्छा झूलबे अस बुद्धि केहि
के पास ॥
झूलत झूलत बहु कल्प बीते मन न छोङै आस ।
यह रच्यो रहस हिंडोलना निशि चार युग चौ
मास ॥
कबहूंक ऊंच नीचे कबहूं स्वर्ग भूलौ जाय ।
अति भ्रमत भ्रमहिं हिंडोलना सो नेकु नहिं
ठहराय ॥
डरपत रहौ यहि झूलिबे कौ राखु यादवराय ।
कह कबिर सुनु गोपाल विनती शरण हौं तुव
पाय ॥
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