शब्द 108
अब हम भयल बहुरि जल मीना पूर्व जन्म तप का मद कबपना ।
तब मैं अछलों मन बैरागी तजलों कुटुंब राम रट लागी ।
तजलों कासी मति भै भोरी प्रान नाथ कहु क्या गति मोरी ।
हमहि कुसेवक तुमहि अयाना दुइमा दोष काहि भगवाना ।
हम चलि अइल तुम्हारे सरना कतहुं न देषों हरि के चरना ।
हम चलि अइल तुम्हारे पासा दास कबीर भल कीन्ह निरासा ।
शब्द 109
लोग बोलै दुरि गये कबीरा यह मत कोइ कोइ जानै धीरा ।
दसरथ सुत तिहुँ लोकहि जाना राम राम का मर्महि आना ।
जेहि जिय जानि परा जस लेषा रज को कहे उरग सम पेषा ।
जद्रयपि फल उत्तम गुन जाना हरि छोड मन मुक्ति अनुमाना ।
हरि अधार जस मीनहि नीरा और जतन कछु कहे कबीरा ।
शब्द 110
आपन कर्म न मेटो जाई ।
कर्म का लिषा मिटै धौ कैसे, जुग कोटि सिराई ।
गुरु वसिष्ट मिलि लगन सोधाई, सूर्य मंत्र एक दीन्हा ।
जो सीता रघुनाथ विवाही, पल एक संच न कीन्हा ।
तीन लोक के कर्त कहिये, बालि बधे बरियाई ।
एक समय ऐसी बनि आई, जनहूँ औसर पाई ।
नारद मुनि को बदन छिपायो, कीन्हो कपि को रूपा ।
सिसुपाल की भुजा उपारिन, आप भये हरि ठूंठा ।
पारबती को बांझ न कहिये, ईसन कहिये भिषारी ।
कहैं कबीर कर्ता की बातैं, कर्म की बात निनारी ।
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