अथ आठवां बसन्त
कर पल्लव के बल खेलै नारि, पण्डित जो होय सो लेय
विचार ।
कपरा नहि पहिरै रह उघारि, निरजीवै सो धन अति
पियारि ॥
उलटी पलटी बाजै सो तार, काहुहि मारै काहुहि उबार
।
कह कबीर दासन के दास, काहुहि सुख दे काहुहि
उदास ॥
अथ नवां बसन्त
ऐसो दुर्लभ जात शरीर, राम नाम भजु लागै तीर ।
गये वेणु बलि गेहै कंस, दुर्योधन गये बूढ़े वंश ॥
पृत्थु गयै प्रथ्वी के राव, विक्रम गये रहे नहिं काव
।
छौ चकवे मंडली के झार, अजहूं हो नर देखु विचार
॥
हनुमत कश्यप जन कौ वार, ई सब रोंके यम के धार ।
गोपिचन्द भल कीन्हो योग, रावण मरिगो करतै भोग ॥
जातु देख अस सबके जाम, कह कबीर भजु राम नाम ।
अथ दशवां बसन्त
सब ही मदमाते कोई न जाग, सो संगहि चोर घर मुसन
लाग ।
योगी मदमाते योग ध्यान, पंडित मदमाते पढ़ि पुरान
॥
तपसी मदमाते तप के भेव, संन्यासी माते करहि मेव
।
मोलना मदमाते पढ़ि मुसाफ़, काजी मदमाते कै निसाफ़ ॥
शुकदेव मते ऊधो अकूर, हनुमत मदमाते लिये लंगूर
।
संसार मत्यो माया के धार, राजा मदमाते करि हंकार ॥
शिव माति रहे हरि चरण सेव, कलि माते नामदेव जयदेव ।
वह सत्य सत्य कहि सुमृति वेद, जस रावण मारे घर के भेद
॥
यह चंचल मन के अधम काम, सो कह कबीर भजु राम नाम
।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें