शब्द 15
रामुरा चली बिनाबन माँ, हो घर छोडे जात जुलाहो ।
गज नौ गज दस गज उन, इसकी पुरिया एक तनाई ।
सात सूत नौ गाढ बहत्तर, पाट लागु अधिकाई ।
ता पट तूलन गज न अमाई, पैसन सेर अढाई ।
तामें घटै बढै रतियो नहिं, करकच करै घरहाई ।
नित उठि बाढि षसम सो बरबस, तापर लागु तिहाई ।
भींगी पुरिया काम न आवै, जोलहा चला रिसाई ।
कहै कबीर सुनो हो संतो, जिन यह सृष्टि बनाई ।
छाँड पसार राम भजु बौरे, भव सागर कठिनाई ।
शब्द 16
रामुरा झिन झिन जंतर बाजे, कर चरन बिहूना नाचै ।
कर बिनु बाजै सुनै स्रवन बिनु, स्रवने स्रोता साई ।
पाटन सुजन सभा बिनु अवसर, बूझहु मुनि जन लाई ।
इन्द्री बिनु भोग स्वाद जिभ्या बिनु, अक्षय पिंड बहूना ।
जागत चोर मंदिर तहँ मूसै, षसम अछत घर सूना ।
बीज बिनु अंकुर पेड बिनु तरवर, बिनु फूले फल फरिया ।
बांझ के कोष पुत्र अवतरिया, बिनु पग तरुवर चढिया ।
मसी बिनु द्वात कलम बिनु कागद, बिनु अक्षर सुधि होई । दवात
सुधि बिनु सहज ग्यान बिनु ग्याता, कहै कबीर जन सोई ।
शब्द 17
रामहिं गावै औरहि समुझावै, हरि जानै बिनु विकल फिरै ।
जेहि मुष बेद गायत्री उचरै, ताके बचन संसार तरै ।
जाके पांव जगत उठि लागे, सो ब्राह्मन जीव बध करै ।
अपने ऊंच नीच घर भोजन, धीन कर्म करि उदर भरै ।
ग्रहन अमावस ढुकि ढुकि माँगै, कर दीपक लिये कूप परै ।
एकादसी बरत नहिं जानै, भूत प्रेम हठि हृदय धरै ।
तजि कपूर गांठि बिष बांधै, ग्यान गवाय के मुग्ध फिरै ।
छीजै साह चोर प्रतिपालै, संत जना की कूटि करै ।
कहैं कबीर जिभ्या के लंपट, यहि बिधि प्रानी नरक परै ।
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