शब्द 36
हरि ठग जगत ठगौरी लाई, हरि के वियोग कस जियेहु रे भाई ।
को काको
पुरुष कवन काको नारी, अकथ कथा यम दृष्टि पसारी ।
को काको पुत्र कवन काको बापा, को रे मरै को सहै संतापा ।
ठगि ठगि मूल सबन को लीन्हा, राम ठगौरी काहु न चीन्हा ।
कहैं कबीर ठग सो मन माना, गइ ठगौरी जब ठग पहिचाना ।
शब्द 37
हरि ठग ठगत सकल जग डोलै । गवन करत मोसे मुषहु न बोले ।
बालापन के मीत हमारे । हम कहँ तजि कहँ चलेहु सकारे ।
तुमहिं पुरुष मैं नारि तुम्हारी । तुम्हरि चाल पाहनहूँ ते भारी
।
माटी की देह पवन का सरीरा । हरि ठग ठग सो डरे कबीरा?
शब्द 38
हरि बिनु भरम बिगुर बिनु गन्दा ।
जहँ जहँ गयेउ अपमपौ षोयेउ । तेहि फंदे बहु फंदा ।
योगी कहै योग है नीका । दुतिया और न भाई ।
चुंडित मुंडित मौन जटाधारी । तिनिहुँ कहाँ सिधि पाई ।
ग्यानी गुनी सूर कबि दाता । ई जो कहैं बड हमहीं ।
जहाँ से उपजे तहाँ समाने । छूटि गयल सब तबहीं?
बाँये दाहिने तेजु बिकारा । निजुकै हरि पद गहिया ।
कहैं कबीर गूंगे गुर षइया । पूछे सो क्या कहिआ ।
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