शब्द 57
ना हरि भजसि न आदति छूटी ।
सब्दहि समुझि सुधारत नाहीं, आँधर भये हियेहु की फूटी ।
पानी महँ पषान को रेषा, ठोंकत उठै भभूका ।
सहस्र घडा नित उठि जल ढारै, फिर सूषे का सूषा ।
सेतहि सेत सेत अंग भौ, सेन बाढी अधिकाई ।
जो सनिपात रोगिया माटै, सो साधन सिध पाई ।
अनहद कहत जग बिनसे, अनहद सृस्टि समानी ।
निकट पयाना जमपुर धावै, बोलै एकै बानी ।
सतगुरु मिलै बहुत सुष लहिये, सतगुरु सब्द सुधारै ।
कहैं कबीर ते सदा सुषी हैं, जो यह पदहि बिचारै ।
शब्द 58
नरहरि लागी दव बिनु ईंधन, मिलै न बुझावनहारा ।
मैं जानो तोही से ब्यापै, जरत सकल संसारा ।
पानी माहिँ अग्नि को अंकुर, जरत बुझावै पानी ।
एक न जरै जरै नव नारी, जुक्ति न काहू जानी ।
सहर जरै पहरु सुष सोवै, कहे कुसल घर मेरा ।
पुरिया जरे वस्तु निज उबरे, बिकल राम रंग तेरा ।
कुबजा पुरुष गले एक लागा, पूजि न मन के सरधा ।
करत बिचार जन्म जन्म गौ षीसै, ई तन रहत असाधा ।
जानि बूझि जो कपट करत है, तेहि अस मंद न कोई ।
कहैं कबीर तेहि मूढ को, भला कवन बिधि होई ।
शब्द 59
माया महाठगिनि हम जानी ।
तिर्गुन फाँस लिये कर डोले बोलै मधुरी बानी ।
केसव के कमला हो बैठी सिव के भवन भवानी ।
पंडा के मूरति हो बैठी तीरथहू में पानी ।
योगी के योगिन हो बैठी राजा के घर रानी ।
काहू के हीरा हो बैठी काहु के कौडी कानी ।
भक्तों के भक्तिनि हो बैठी ब्रह्मा के ब्रह्मानी ।
कहैं कबीर सुनो हो संतो ई सब अकथ कहानी ।
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