शब्द 39
ऐसो हरि सो जगत लडतु है । पांडुर कहीं गरुड धरतु है ।
मूस बिलाई कैसन हेतू । जंबुक करै केहरि सो षेतू ।
अचरज चक देषो संसारा । सोनहा षेत कुंजर असवारा ।
कहैं कबीर सुनो संतो भाई । इहै संधि काह बिरलै पाई?
शब्द 40
पंडित बाद बदै सो झूठा ।
राम कहे जगत गति पावै । षांड कहे मुष मीठा ।
पावक कहे पांव जो डाहै । जल कहे तृषा बुझाई ।
भोजन कहै भूष जो भाजै । तो दुनिया तर जाई ।
नर के संग सुवा हरि बोलै । हरि प्रताप नहिं जानै ।
जो कबहीं उडि जाय जंगल को । तौ हरि सुरति न आनै ।
बिनु देषे बिनु दरस परस बिनु । नाम लिये का होई ।
धन के कहे धनिक जो होवै । निर्धन रहै न कोई ।
सांची प्रीति विषय माया सो । हरि भक्तन को हांसी ।
कहैं कबीर एक राम भजे बिनु । बांधे जमपुर जासी ।
शब्द 41
पंडित देषहु मन में जानी ।
कहु धौं छूति कहाँ से उपजी, तबहिं छूति तुम मानी ।
नादे बिंदु रुधिर के संगै, घरही में घट सपचै ।
अस्ट कमल होय पुहुमी आया, छूति कहाँ से उपजै?
लष चौरासी बहुत बासना, सो सब सरि भौ माटी ।
एकहि पाट सकल बैठाये, छूति लेत धौ काटी ।
छूतिहि जेवन छूतहि अचवन, छूतिहि जग उपजाया ।
कहैं कबीर ते छूति विविर्जित, जाके संग न माया ।
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