शब्द 18
राम गुन न्यारो न्यारो न्यारो ।
अबुझा लोग कहाँ लौ बूझै, बूझनहार बिचारो ।
केतेहि रामचन्द्र तपसी से, जिन्ह यह जग बिटमाया ।
केतेहि कान्ह भये मुरलीधर तिन्ह भी अन्त न पाया ।
मच्छ कच्छ औ ब्राह स्वरूपी बावन नाम धराया ।
केतेहि बौद्ध भये निकलंकी तिन्ह भी अन्त न पाया ।
केते सिध साधक संन्यासी जिन्ह बनवास बसाया ।
केते मुनिजन गोरष कहिए तिन भी अंत न पाया ।
जाकी गति ब्रह्मै नहिं जानी सिव सनकादिक हारे ।
ताके गुन नर कैसेक पैहो कहैं कबीर पुकारे ।
शब्द 19
ये ततु राम जपो हो प्रानी, तुम बूझहु अकथ कहानी ।
जाके भाव हरि ऊपर, जागत रैन बिहानी ।
डाइनि डारे सोनहा डोरै, सिंह रहत बन घेरे ।
पांच कुटुम मिलि जूझन लागैं, बाजन बाजु घनेरे ।
रोहू मृगा संसय बन हाँकै, पारथ बाना मेलै ।
सायर जरै सकल बन डाहै, मच्छ अहेरा षेलै ।
कहै कबीर सुनो हो संतो, जो यह पद अर्थाव ।
जो यह पद को गाय विचारै, आपु तरे औ तारे ।
शब्द 20
कोई राम रसिक रस पियहुगे, पियहुगे युग जियहुगे ।
फल अंकित बीज नहीं बोकला, सुष पंछी रस षायो ।
चुवै न बूंद अंग नहिं भीजै, दास भंवर संग लायो ।
नगम सिसाल चारि फल लागे, तामे तीन समाई ।
गक दूरि चाहै सभ कोई, जतन जतन कहु पाई ।
इ बसंत ग्रीसम ऋतु आई, बहुरि न तरवर आवै ।
कहैं कबीर स्वामी सुष सागर, राम मगन होय पावै ।
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