शब्द 24
अवधू सो योगी गुरु मेरा, जो यह पद का करै निबेरा ।
तरुवर एक मूल बिनु ठाढा, बिनु फूले फल लागा ।
साषा पत्र कछू नहिं वाके, अष्ट गँगन मुष जागा ।
पौ बिनु पत्र करह बिनु तुम्बा, बिनु जिभ्या गुन गावै ।
गावनहार के रूप न रेषा, सतगुरु होय लषायै ।
पंछी षोज मीन को मारग, कहँहिं कबिर दोउ भारी ।
अपरमपार पार पुरुषोतम, मूरत की बलिहारी ।
शब्द 25
अवधू ओतत रावल राता, नाचै बाजन बाजु बराता ।
भौर के माथे दुलहा दीन्हा, अकथा जोरि कहाता ।
मंडये के चारन समधी दीन्हा, पुत्र विवाहल माता ।
दुलहिन लीपि चौक बैठारे, निरभय पद परमाता ।
माँ तै उलटि बरातै षायो, भली बनी कुसलाता ।
पानी ग्रहन भयो भव मंडन, सुषमुनि सुरति समानी ।
कहैं कबीर सुनो हो संतो, बूझो पंडित ग्यानी ।
शब्द 26
कोई बिरले दोस्त हमारे, बहुत भाइ क्या कहिये ।
गाठन भजन संवारन आपै, राम रषे त्यों रहिये ।
आसन पवन योग श्रुति स्मृति, ज्योतिस पढि बैलाना ।
छौ दरसन पाषंड छानवे, एकल काहु न जाना ।
आलम दुनी सकल फिरि आयो, एकल उहै न आना ।
तजि करिगह सब जगत उचाये, मन मो मन न समाना ।
कहैं कबीर योगि औ जंगम, फीकी उनकी आसा ।
रामहि नाम रटै ज्यों चातृक, निस्चय भक्ति निवासा ।
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