शब्द 1
संतो भक्ति सतगुर आनी ।
नारी एक पुरुष दुइ जाये । बूझो पंडित ग्यानी ।
पाहन फोरि गंग एक निकरी । चहुँ दिसि पानी पानी ।
तेहि पानी दुइ पर्वत बूडे । दरिया लहर समानी ।
उडि माषी तरवर को लागी । बोलै एकै बानी ।
वहि माषी को माषा नाहीं । गर्भ रहा बिनु पानी ।
नारी सकल पुरुष वे षायो । ताते रहेउँ अकेला ।
कहंहि कबीर जो अबकी बूझै । सोई गुरु हम चेला ।
शब्द 2
संतो जागत नींद न कीजै ।
काल न षाय कल्प नहिं ब्यापै, देह जरा नहिं छीजै ।
उलटी गंग समुद्रहि सोषै, ससि औ सूरंहि ग्रासै ।
नव ग्रह मारि रोगिया बैठे, जल मां बिम्ब प्रकासै ।
बिनु चरनन को दुहुँ दिसि धावै, बिनु लोचन जग सूझै ।
संसव उलटि सिंह को ग्रासै, ई अचरज को बूझै ।
औंधे घडा नहीं जल बूडे, सीधे सो जल भरिया ।
जेहि कारन नर भिन्न भिन्न, करे गुरु प्रसाद ते तरिया ।
बैठि गुफा में सब जग देषा, बाहर कछू न सूझे ।
उलटा बान पारधी लागे, सूरा होय सो बूझे ।
गायन कह कबहूँ नहिं गावै, अनबोला नित गावै ।
नटवर बाजा पेषनी पेषै, अनहद हेत बढावै ।
कथनी बुंदनी निज कै जोहैं, ई सब अकथ कहानी ।
धरती उलटि अकासहि बेधो, ई पुरुष की बानी ।
बिना पियाला अमृत अँचवै, नदी नीर भरि राषे ।
कहैं कबीर सो जुग जुग जीवै, जो राम सुधारस चाषै ।
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