शब्द 5
संतो अचरज एक भौ भारी, कहों तो को पतियाई ।
एकै पुरुष एकै है नारी, ताकर करहु बिचारा ।
एकै अंड सकल चौरासी, भर्म भुला संसारा ।
एकै नारी जाल पसारा, जग में भया अंदेसा ।
षोजत काहु अंत न पाया, ब्रह्मा विष्णु महेसा ।
नाग फांस लियें षट भीतर, मूसिन सब जग झारी ।
ग्यान षडग बिनु सब जग जूझै, पकरि न काहू पाई ।
आपै मूल फूल फुलवारी, आपुहि चुनि चुनि षाई ।
कहै कबीर तेई जन उबरे, जेहि गुर लीन्ह जगाई ।
शब्द 6
संतो अचरज एक भो भारी, पुत्र धरल महतारी ।
पिता के संगहि भई बावरी, कन्या रहलि कुंवारी ।
षसमहि छोडि संग गौनी, सो किन लेहु बिचारी ।
भाई के संग सासुर गौनी, सासुहि सावत दीन्हा ।
ननद भौज परपंच रच्यो है, मोर नाम कहि लीन्हा ।
समधी के संग नाहीं आई, सहज भई घरबारी ।
कहैं कबीर सुनो हो संतो, पुरुष जन्म भौ नारी ।
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