रमैनी 40
आदम आदि सुद्धि नहिं पाई, मामा हउवा कहाँ ते आई?
तब नहिं होते तुरुक न हिंदू, माय के रुधिर पिता कै बिन्दू
।
तब नहिं होते गाय कसाई, तब बिसमिल्ला किन फरमाई ।
तब नहिं होते कुल औ जाती, दोजख भिस्त कौन उत्पाती ।
मन मसले का खबरि न जानी, मति भुलान दुइ दीन बखानी
।
संयोगे का गुण रबे, बिन जोगे गुण जाय ।
जिभ्या स्वाद के कारणे, कीन्हें बहुत उपाय ।
रमैनी 41
अंबुक रासि समुद्र कि खाई, रवि ससि कोटि तैंतिसो भाई
।
भंवर जाल में आसन माडा, चाहत सुख दुख संग न छाडा
।
दुख को मर्म न काहु पाया, बहुत भांति कै जग भरमाया?
आपुहि बाउर आपु सयाना, हृदय बसत राम नहिं जाना ।
तेही हरि तेहि ठाकुरा, तेही हरि के दास ।
ना यम भया न यामिनी, भामिन चली निरास ।
रमैनी 42
जब हम रहल रहल नहिं कोई, हमरे माहि रहल सब कोई ।
कहहू राम कौन तोरि सेवा, सो समुझाय कहहु मोहि देवा
।
फुर फुर कहौं मारु सब कोई, झूठहि झूठा संगति होई ।
आँधर कहे सभै हम देखा, तहँ दिठियार बैठ मुख पेखा
।
यहि बिधि कहों मानु जो कोई, जस मुख तस जौं हृदया होई
।
कहहिं कबीर हंस मुसकाई, हमरे कहल दुष्ट बहु भाई ।
रमैनी 43
जिन्ह जीव कीन्ह आपु बिस्वासा, नर्क गये तेहि नर्कहि वासा
।
आवत जात न लागे बारा, काल अहेरी सांझ सकारा ।
चौदह विद्या पढि समुझावै, अपने मरन की खबर न पावै ।
जाने जीव को परा अंदेसा, झूठहि आय कहाँ संदेसा ।
संगति छाडि करै असरारा, उबहै मोट नर्क के भारा ।
गुरुद्रोही औ मनमुखी, नारी पुरुष विचार ।
ते नर चौरासी भ्रमै, जब लो ससि दिनकार
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