शब्द 54
साँई के संग सासुर आई ।
संग न सूती स्वाद न मानी, गयो जोबन सपने की नाईं ।
जना चारि मिलि लगन सुधाये, जना पाँच मिलि माँडा छाये ।
सषी सहेली मंगल गावै, दुष सुष माथे हलदि चढावै ।
नाना रूप परी मन भाँवरि, गाँठि जोरि भाई पति आई ।
अर्धा दे ले चली सुआसनि, चौके राँड भई संग साईं ।
भयो बिवाह चली बिनु दुलहा, बाट जात समधी मुसुकाई ।
कहैं कबीर हम गौने जैबे, तरब कंत लै तूर बजैबे ।
शब्द 55
नर को ढाढस देषहु आई, कछु अकथ कथा है भाई ।
सिंह सार्दुल एक हर जोतिन, सीकस बोइन धाना ।
बन को भलुइया चाषुर फेरैं, छागर भये किसाना ।
छेरी बाघहि ब्याह होत है, मंगल गावै गाई ।
बन के रोझ धरि दाइज दीन्हो, गो लोकन्दे जाई ।
कागा कापड धोवन लागे, बकुला क्रीपहि दाँता ।
माषी मूड मुडावन लागी, हमहूं जाब बराता ।
कहैं कबीर सुनो हो संतो, जो यह पद अर्थावै ।
सोई पंडित सोई ग्याता, सोई भक्त कहावै ।
शब्द 56
नर को नहिं परतीत हमारी ।
झूठा बनिज कियो झूठे यो, पूंजो सबन मिलि हारी ।
षट दरसन मिलि पंथ चलायो, तिरदेवा अधिकारी ।
राजा देस बडो परपंची, रइत रहत उजारी ।
इतने उत उतते इत रहहीँ, जम की सांट सवारी ।
ज्यों कपि डोर बांध बाजीगर, अपनी षुसी परारी ।
इहै पेड उत्पित्त परलय का, विषया सबै बिकारी ।
जैसे स्वान अपावन राजी, त्यों लागी संसारी ।
कहैं कबीर यह अदूभुत ग्याना, को मानै बात हमारी ।
अजहूँ लेउँ छुडाय काल सों, जो करै सुरति सँभारी ।
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