रविवार, जुलाई 15, 2018

आदिरमैनी



आदिरमैनी (गरीबदास)

आदिरमैनी अदली सारा, जा दिन होते धुंधकारा।
सतपुरुष कीन्हा प्रकाशा, हम होते तखत कबीर खवासा।

मनमोहिनी सिरजी माया, सतपुरुष एक ख्याल बनाया।
धर्मराय सिरजे दरबानी, चौसठ जुग तप सेवा ठानी।

पुरुष प्रथ्वी जाकू दीनी, राज करो देवा आधीनी।
इकीस ब्रह्माण्ड राज तुम दीन्हा, मन की इच्छा सब जुग लीन्हा।

मायामूल रूप एक छाजा, मोहि लिये जिनहू धर्मराजा।
धर्म का मन चंचलचित धारा, मन माया का रूप विचारा।

चंचल चेरी चपल चिरागा, या के परसे सरबस जागा।
धर्मराय किया मन का भागी, विषय वासना संग से जागी।

आदिपुरुष अदली अनरागी, धर्मराय दिया दिल से त्यागी।
पुरुष लोक से दिया ढहाही, अगम दीप चल आये भाई।

सहजदास जिस दीप रहंता, कारण कौन कौन कुल पंथा।
धर्मराय बोले दरबानी, सुनो सहज दास ब्रह्मज्ञानी।

चौंसठ जुग हम सेवा कीन्ही, पुरुष प्रथ्वी हम कू दीन्ही।
चंचलरूप भया मन बौरा, मनमोहिनी ठगिया भौंरा।

सतपुरुष के ना मन भाये, पुरुष लोक से हम चलि आये।
अगरदीप सुनत बङभागी, सहजदास मेटो मन पागी।

बोले सहजदास दिल दानी, हम तो चाकर सत सहदानी।
सतपुरुष से अरज गुजारूँ, जब तुम्हार बिवाण उतारूँ।

सहजदास को कीया पयाना, सत्यलोक को लिया परवाना।
सतपुरुष साहिब सरबंगी, अविगत अदली अचल अभंगी।

धर्मराय तुम्हरा दरबानी, अगरदीप चलि गये प्रानी।
कौन हुकुम करी अरज अवाजा, कहाँ पठावो उस धर्मराजा।

भई अवाज अदली एक सांचा, विषयलोक जा तीन्यू बाचा।
सहज विमान चले अधिकाई, छिन मा अगरदीप चलि आई।

हम तो अरज करी अनरागी, तुम विषयलोक जावो बङभागी ।
धर्मराय के चले विमाना, मानसरोवर आये प्राना।

मानसरोवर रहन न पाये, दरै कबीर थाना लाये।
बंकनाल की विषमी बाटी, तहाँ कबीरा रोकी घाटी।

इन पाँचों मिल जगत बँधाना, लख चौरासी जीव संताना।
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर माया, धर्मराय का राज पठाया।

योह खोखापुर झूठी बाजी, भिसति बैकुण्ठ दगा सी साजी।
क्रतिम जीव भुलाने भाई, निजघर की तो खबर न पाई।

सवा लाख उपजें नित हँसा, एक लाख बिनसे नित अंशा।
उत्पति खपति प्रलय फ़ेरी, हर्ष शोक जोरा जम जेरी।

पाँचों तत्व है प्रलय माहीं, सतगुण रजगुण तमगुण झांई।
आठों अंग मिली है माया, पिण्ड ब्रह्माण्ड सकल भरमाया।

या में सुरत शब्द की डोरी, पिण्ड ब्रह्माण्ड लगी है खोरी।
स्वांसा पारस गहि मन राखो, खोल कपाट अमीरस चाखो।

सुनाऊँ हँस शब्द सुन दासा, अगम दीप है अंग है वासा।
भवसागर जम दण्ड जमाना, धर्मराय का है तलबाना।

पाँचों ऊपर पद की नगरी, बाट विहंगम बंकी डगरी।
हमरा धर्मराय सों दावा, भवसागर में जीव भरमावा।

हम तो कहें अगम की वानी, जहाँ अविगत अदली आप बिनानी।
बन्दीछोङ हमारा नाम, अजर अमर है स्थीर ठांम।

जुगन जुगन हम कहते आये, जमजौरा से हँस छुटाये।
जो कोई माने शब्द हमारा, भवसागर नहीं भरमे धारा।

या में सुरत शब्द का लेखा, तन अन्दर मन कहो कीन्ही देखा।
दास गरीब अगम की वानी, खोजा हँसा शब्द सहदानी।

माया आदि निरंजन भाई, आपै जाये आपै खाई।
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर चेला, ओऽहम सोऽहं का है खेला।

शिखर सुन्न में धर्म अन्यायी, जिन शक्ति डायन महल पठाई।
लाख ग्रास नित उठ दूती, माया आदि तखत की कूती।

सवा लाख घङिये नित भांडे, हँसा उतपति प्रलय डांडे।
ये तीनों चेला बटपारी, सिरजे पुरुषा सिरजी नारी।

खोखापुर में जीव भुलाये, स्वपना बहिस्त बैकुण्ठ बनाये।
यो हरहट का कुआ लोई, या गल बँधया है सब कोई।

कीङी कुंजर और अवतारा, हरहट डोरी बँधे कई बारा।
अरब अलील इन्द्र हैं भाई, हरहट डोरी बँधे सब आई।

शेष महेश गणेश्वर ताही, हरहट डोरी बँधे सब आहीं।
शुक्रादिक ब्रह्मादिक देवा, हरहट डोरी बँधे सब खेवा।

कोटिक कर्ता फ़िरता देखा, हरहट डोरी कहूँ सुन लेखा।  हरहट - रहट
चतुर्भुजी भगवान कहावे, हरहट डोरी बँधे सब आवे।

यो है खोखापुर को कुआ, या में पङा सो निश्चय मुआ।

माया काली नागिनी, अपने जाये खात।
कुण्डली में छोङे नहीं, सौ बातों की बात।

अनन्त कोटि अवतार हैं, माया के गोविन्द।
कर्ता हो हो अवतरे, बहुर पङे जग फ़ँद।

ब्रह्मा विष्णु महेश्वर माया, और धर्मराय कहिये।
इन पाँचों मिल प्रपंच बनाया, वाणी हमरी लहिये।

इन पाँचों मिल जीव अटकाये, जुगन जुगन हम आन छुटाये।
बन्दीछोङ हमारा नाम, अजर अमर स्थीर है ठाम।

पीर पैगम्बर कुतुब औलिया, सुर नर मुनिजन ज्ञानी।
ये ताको राह न पाया, जम के बँधे प्रानी।

धर्मराय की धूमा धामी, जम पर जंग चलाऊँ।
जोरा को तो जान न दूँगा, बाँध अदल घर लाऊँ।

काल अकाल दोऊ को मोसूँ, महाकाल सिर मूँङूँ।
मैं तो तखत हजूरी हुकुमी, चोर खोज के ढूँङूँ।

मूलमाया मग में बैठी, हँसा चुन चुन खाई।
ज्योतिस्वरूपी भया निरंजन, मैं ही कर्ता भाई।

सहस अठासी दीप मुनीश्वर, बँधे मुला डोरी।
एत्या में जम का तलबाना, चलिये पुरुष की शोरी।

मूला का तो माथा दागूँ, सत की मोहर करूँगा।
पुरुष दीप को हँस चलाऊँ, दरा न रोकन दूँगा।

हम तो बन्दी छोङ कहावा, धर्मराय है चकवे।
सतलोक की सकल सुनावा, वाणी हमरी अखवे।

नौ लख पट्टन ऊपर खेलूँ, साहदरे कू रोकूँ।
द्वादश कोटि कटक सब काटूँ, हँस पठाऊँ मोखूँ।

चौदह भुवन गमन है मेरा, जल थल में सरबंगी।
खालिक खलक खलक में खालिक, अविगत अचल अभंगी।

अगर अलील चक्र है मेरा, जित से हम चल आये।
पाँचों पर परवाना मेरा, बाँध छुटावन्न धाये।

जहँ ओऽम ओंऽकार निरंजन नाहीं, ब्रह्मा विष्णु वेद नहीं जाँहीं।
जहाँ करता नहीं जान भगवाना, काया माया पिण्ड न प्राणा।

पाँच तत्व तीनों गुण नाहीं, जोरा काल दीप नहिं जाही।
अमर करूँ सतलोक पठाऊँ, ताते बन्दीछोङ कहाऊँ।

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शिव ब्रह्मा का राज, इन्द्र गिनती कहाँ।
चार मुक्ति बैकुण्ठ, समझ येता लहया।

शंख जुगन की जूनी, उम्र बङ धारिया।
जा जननी कुर्बान सु, कागज पारिया।

येती उम्र बुलन्द, मरेगा अन्त रे।
सतगुरू लगे न कान, भेंटे न सन्त रे।

शनिवार, जुलाई 14, 2018

अनुराग सागर की कहानी



अनुराग सागर कबीर साहिब और धर्मदास के संवादों पर आधारित महान ग्रन्थ है। इसकी शुरूआत में बताया गया है कि सबसे पहले जब ये सृष्टि नहीं थी। प्रथ्वी, आसमान, सूरज, तारे आदि कुछ भी नहीं था तब केवल परमात्मा ही था।

सिर्फ़ परमात्मा ही शाश्वत है। इसलिये संतमत में और सच्चे जानकार संत परमात्मा के लिये “है” शब्द का प्रयोग करते हैं। उस (परमात्मा) ने कुछ सोचा। (सृष्टि की शुरूआत में उसमें स्वतः एक विचार उत्पन्न हुआ, इससे स्फ़ुरणा (संकुचन जैसा) हुयी)

तब एक शब्द “हुं” प्रकट हुआ।
(जैसे हम लोग आज भी विचारशील होने पर ‘हुं’ करते हैं)
तब उसने सोचा - मैं कौन हूँ?

इसीलिये हर इंसान आज तक इसी प्रश्न का उत्तर खोज रहा है कि मैं कौन हूँ?
(उस समय ये पूर्ण था)

तब उसने एक सुन्दर और आनंददायक दीप की रचना की, और उसमें विराजमान हो गया। फिर उसने एक एक करके एक ही नाल से सोलह अंश यानी सुत प्रकट किये। उनमें पाँचवें अंश कालपुरुष को छोड़कर सभी सुत आनंद को देने वाले थे, और वे सतपुरूष द्वारा बनाये गए हंसदीपों मैं आनंदपूर्वक रहते थे।

इनमें कालपुरूष सबसे भयंकर और विकराल था। वह अपने भाइयों की तरह हंसदीपों में न जाकर मानसरोवर दीप के निकट चला आया, और सत्पुरुष के प्रति घोर तपस्या करने लगा। लगभग चौंसठ युगों तक तपस्या हो जाने पर उसने सतपुरूष के प्रसन्न होने पर तीन लोक स्वर्ग, धरती और पाताल मांग लिए, और फिर से कई युगों तक तपस्या की।

इस पर सतपुरूष ने अष्टांगी कन्या (आदिशक्ति, भगवती आदि) को सृष्टि बीज के साथ कालपुरुष के पास भेजा। (इससे पहले सतपुरूष ने कूर्म नाम के सुत को भेजकर उसकी तपस्या करने की इच्छा की वजह पूछी) अष्टांगी कन्या बेहद सुन्दर और मनमोहक अंगों वाली थी वह कालपुरुष को देखकर भयभीत हो गयी।

कालपुरुष उस पर मोहित हो गया, और उससे रतिक्रिया का आग्रह किया। (यही प्रथम स्त्री पुरुष का काममिलन था) और दोनों रतिक्रिया में लीन हो गए। ये रतिक्रिया बहुत लम्बे समय तक चलती रही, और फ़िर इससे ब्रह्मा, विष्णु, और शंकर का जन्म हुआ।

अष्टांगी कन्या उनके साथ आनन्दपूर्वक रहने लगी पर कालपुरुष की इच्छा कुछ और ही थी? इनके जन्म के उपरांत कुछ समय बाद कालपुरूष अदृश्य हो गया, और भविष्य के लिए आदिशक्ति को निर्देश दे गया।

तब आदिशक्ति ने अपने अंश से तीन कन्यायें उत्पन्न की, और उन्हें समुद्र में छिपा दिया। फ़िर उसने अपने पुत्रों को समुद्र मंथन की आज्ञा दी, और समुद्र से मंथन के द्वारा प्राप्त हुयी तीनों कन्यायें अपने तीन पुत्रों को दे दी। ये कन्यायें सावित्री, लक्ष्मी, और पार्वती थीं। तीनों पुत्रों ने माँ के कहने पर उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार लिया।

तब आद्याशक्ति ने (कालपुरुष के कहे अनुसार, यह बात कालपुरुष दोबारा कहने आया था, क्योंकि पहले अष्टांगी ने जब पुत्रों को इससे पहले सृष्टि रचना के लिये कहा, तो उन्होंने अनसुना कर दिया) अपने तीनो पुत्रों के साथ सृष्टि की रचना की।

आद्याशक्ति ने खुद अंडज यानी अंडे से पैदा होने वाले जीवों को रचा। ब्रह्मा ने पिंडज यानी पिंड से शरीर से पैदा होने वाले जीवों की रचना की। विष्णु ने ऊष्मज यानी पानी गर्मी से पैदा होने वाले जीव कीट, पतंगे, जूं आदि की रचना की। शंकर ने स्थावर यानी पेङ, पौधे, पहाड़, पर्वत आदि जीवों की रचना की, और फिर इन सब जीवों को चार खानों वाली चौरासी लाख योनियों में डाल दिया। इनमें मनुष्य शरीर की रचना सर्वोत्तम थी।

इधर ब्रह्मा, विष्णु, शंकर ने अपने पिता कालपुरुष के बारे में जानने की बहुत कोशिश की पर वे सफल न हो सके। क्योंकि वो अदृश्य था, और उसने आद्याशक्ति से कह रखा था कि वो किसी को उसका पता न बताये। फिर वो सब जीवों के अन्दर ‘मन’ के रूप मैं बैठ गया, और जीवों को तरह तरह की वासनाओं में फ़ंसाने लगा, और समस्त जीव बेहद दुख भोगने लगे।

क्योंकि सतपुरूष ने उसकी क्रूरता देखकर शाप दिया था कि वह एक लाख जीवों को नित्य खायेगा, और सवा लाख को उत्पन्न करेगा। समस्त जीव उसके क्रूर व्यवहार से हाहाकार करने लगे, और अपने बनाने वाले को पुकारने लगे। सतपुरूष को ये जानकर बहुत गुस्सा आया कि काल समस्त जीवों पर बेहद अत्याचार कर रहा है।

(दरअसल काल जीवों को तप्तशिला पर रखकर पटकता और खाता था)

तब सतपुरूष ने ज्ञानीजी (कबीर साहब जो सतपुरूष के सोलह अंश में से एक हैं) को उसके पास भेजा। कालपुरुष और ज्ञानीजी के बीच काफ़ी झङप हुयी, और कालपुरुष हार गया। तप्तशिला पर तङपते जीवों ने ज्ञानीजी से प्रार्थना की कि वो उसे इसके अत्याचार से बचायें।

ज्ञानीजी ने उन जीवों को सतपुरूष का नाम (ढाई अक्षर का महामन्त्र) ध्यान करने को कहा। इस नाम के ध्यान करते ही जीव मुक्त होकर ऊपर (सतलोक) जाने लगे। यह देखकर काल घबरा गया। तब उसने ज्ञानीजी से एक समझौता किया कि जो जीव इस परम नाम (वाणी से परे) को सतगुरू से प्राप्त कर लेगा, वह यहाँ से मुक्त हो जायेगा।

ज्ञानीजी ने कहा - मैं स्वयं आकर सभी जीवों को यह नाम दूंगा। नाम के प्रभाव से वे यहाँ से मुक्त होकर आनन्दधाम को चले जायेंगे।

तब काल ने कहा - मैं और माया (उसकी पत्नी) जीवों को तरह तरह की भोगवासना में फ़ंसा देंगे। जिससे जीव भक्ति भूल जायेगा, और यहीं फ़ंसा रहेगा ।

ज्ञानीजी ने कहा - लेकिन उस सतनाम के अंदर जाते ही जीव में ज्ञान का प्रकाश हो जायेगा, और जीव तुम्हारे सभी चाल समझ जायेगा।

अब काल को चिंता हुयी।

तब उसने बेहद चालाकी से कहा - मैं जीवों को मुक्ति और उद्धार के नाम पर तरह तरह के जाति, धर्म, पूजा, पाठ, तीर्थ, व्रत आदि में ऐसा उलझाऊंगा कि वह कभी अपनी असलियत नहीं जान पायेगा। साथ ही मैं तुम्हारे चलाये गये पंथ में भी अपना जाल फ़ैला दूंगा? इस तरह अल्पबुद्धि जीव यही नहीं सोच पायेगा कि सच्चाई आखिर है क्या? मैं तुम्हारे असली नाम में भी अपने नाम मिला दूंगा आदि।

अब क्योंकि समझौता हो गया था। ज्ञानीजी वापस लौट गये।

वास्तव में मनरूप में यह काल ही है, जो हमें तरह तरह के कर्मजाल मैं फंसाता है, और फिर नरक आदि भोगवाता है। लेकिन वास्तव में यह आत्मा सतपुरूष का अंश होने से बहुत शक्तिशाली है। पर भोग वासनाओं में पड़कर इसकी ये दुर्गति हो गई है। इससे छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय सतगुरू की शरण और महामंत्र का ध्यान करना ही है।

शुक्रवार, जुलाई 13, 2018

विदेहस्वरूप सारशब्द


कबीर साहब बोले - धर्मदास, मोक्ष प्रदान करने वाला सारशब्द विदेहस्वरूप वाला है और उसका वह अनुपम रूप निःअक्षर है । पाँच तत्व और पच्चीस प्रकृति को मिलाकर सभी शरीर बने हैं परन्तु सारशब्द इन सबसे भी परे विदेहस्वरूप वाला है ।

कहने सुनने के लिये तो भक्त संतों के पास वैसे लोकवेद आदि के कर्मकांड, उपासना कांड, ज्ञानकांड, योग, मंत्र आदि से सम्बन्धित सभी तरह के शब्द हैं । लेकिन सत्य यही है कि सारशब्द से ही जीव का उद्धार होता है । परमात्मा का अपना सत्यनाम ही मोक्ष का प्रमाण है, और सत्यपुरुष का सुमिरन ही सार है ।

बाह्य जगत से ध्यान हटाकर अंतर्मुखी होकर शांत चित्त से जो साधक इस नाम के अजपा जाप में लीन होता है, उससे काल भी मुरझा जाता है । सारशब्द का सुमरन सूक्ष्म और मोक्ष का पूरा मार्ग है । इस सहज मार्ग पर शूरवीर होकर साधक को मोक्ष यात्रा करनी चाहिये ।

धर्मदास, सारशब्द न तो वाणी से बोला जाने वाला शब्द है, और न ही उसका मुँह से बोलकर जाप किया जाता है । सारशब्द का सुमरने करने वाला काल के कठिन प्रभाव से हमेशा के लिये मुक्त हो जाता है । इसलिये इस गुप्त आदिशब्द की पहचान कराकर इन वास्तविक हंस जीवों को चेताने की जिम्मेवारी तुम्हें मैंने दी है ।

धर्मदास, इस मनुष्य शरीर के अन्दर, अनन्त पंखुङियों वाले कमल हैं, जो अजपा जाप की इसी डोरी से जुङे हुये हैं । तब उस बेहद सूक्ष्म द्वार द्वारा मन, बुद्धि से परे, इन्द्रियों से परे, सत्यपद का स्पर्श होता है, यानी उसे प्राप्त किया जाता है ।

शरीर के अन्दर स्थित, शून्य आकाश में अलौकिक प्रकाश हो रहा है, वहाँ ‘आदिपुरुष’ का वास है । उसको पहचानता हुआ कोई सदगुरू का हंस साधक वहाँ पहुँच जाता है, और आदिसुरति (मन, बुद्धि, चित्त, अहम का योग से एक होना) वहाँ पहुँचाती है । हंसजीव को सुरति जिस परमात्मा के पास ले जाती है । उसे सोऽहंगकहते हैं ।

अतः धर्मदास, इस कल्याणकारी सारशब्द को भलीभांति समझो । सारशब्द के अजपा जाप की यह सहज धुनि अंतरआकाश में स्वतः ही हो रही है अतः इसको अच्छी तरह से जान समझ कर सदगुरू से ही लेना चाहिये ।

मन तथा प्राण को स्थिर कर मन तथा इन्द्रिय के कर्मों को उनके विषय से हटाकर सारशब्द का स्वरूप देखा जाता है । वह सहज स्वाभाविक ‘ध्वनि’ बिना वाणी आदि के स्वतः ही हो रही है । इस नाम के जाप को करने के लिये, हाथ में माला लेकर जाप करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है । इस प्रकार विदेह स्थित में इस सारशब्द का सुमरन हंस साधक को सहज ही अमरलोक, सत्यलोक पहुँचा देता है ।

सत्यपुरुष की शोभा अगम, अपार, मन, बुद्धि की पहुँच से परे है । उनके एक-एक रोम में करोङों सूर्य चन्द्रमा के समान प्रकाश है । सत्यलोक पहुँचने वाले एक हंस-जीव का प्रकाश सोलह सूर्य के बराबर होता है ।
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बहुत दिनन तक थे हम भटके, सुनि सुनि बात बिरानी।
जब कछु बात उर में थिर भयी, सुरति निरति ठहरानी।
रमता के संग समता हुय गयी, परो भिन्न पै पानी।

हँसदीक्षा, परमहँस दीक्षा, समाधि दीक्षा, शक्ति दीक्षा, सारशब्द दीक्षा, निःअक्षर ज्ञान, विदेही ज्ञान, सहज योग, सुरति-शब्द योग, नाद-बिन्द योग, राजयोग और उर्जात्मक ‘सहज ध्यान’ पद्धति के वास्तविक और प्रयोगात्मक अनुभव सीखने, समझने, होने हेतु सम्पर्क करें ।

               (मुख्य आश्रम)
निःअक्षर ज्ञान दीक्षा केन्द्र ॥मुक्तमंडल॥
   चिन्ताहरण आश्रम, नगला भादों
         जि. फ़िरोजाबाद, उ.प्र.
                   भारत

आत्मस्वरूप परमात्मा का वास्तविक नाम ‘विदेह’ है


कबीर साहब बोले - धर्मदास, जब तक देह से परे, विदेह नाम का ध्यान होने में नहीं आता, तब तक जीव इस असार संसार में ही भटकता रहता है । विदेह ध्यान और विदेह नाम इन दोनों को अच्छी तरह से समझ लेता है तो उसके सभी संदेह मिट जाते हैं ।

जब लग ध्यान विदेह न आवे, तब लग जिव भव भटका खावे।
ध्यान विदेह और नाम विदेहा, दोउ लखि पावे मिटे संदेहा।

मनुष्य का पाँच तत्वों से बना यह शरीर जङ परिवर्तनशील तथा नाशवान है । यह अनित्य है । इस शरीर का एक नाम-रूप होता है परन्तु वह स्थायी नहीं रहता । राम, कृष्ण, ईसा, लक्ष्मी, दुर्गा, शंकर आदि जितने भी नाम इस संसार में बोले जाते हैं, ये सब शरीरी नाम हैं, वाणी के नाम हैं ।

लेकिन इसके विपरीत इस जङ और नाशवान देह से परे उस अविनाशी, चैतन्य, शाश्वत और निज आत्मस्वरूप, परमात्मा का वास्तविक नाम विदेह है, और ध्वनि रूप है ।
वही सत्य है, वही सर्वोपरि है अतः मन से सत्यनाम का सुमरन करो ।

वहाँ दिन रात की स्थिति तथा प्रथ्वी, अग्नि, वायु आदि पाँच तत्वों का स्थान नहीं है । वहाँ ध्यान लगाने से किसी भी योनि के जन्म-मरण का दुख जीव को प्राप्त नहीं होता ।
वहाँ के सुख (ध्यान में मिलने वाला) आनन्द का वर्णन नहीं किया जा सकता । जैसे गूँगे को सपना दिखता है, वैसे ही जीवित जन्म को देखो । जीते जी इसी जन्म में देखो ।

धर्मदास, ध्यान करते हुये जब साधक का ध्यान क्षण भर के लिये भी ‘विदेह’ परमात्मा में लीन हो जाता है तो उस क्षण की महिमा आनन्द का वर्णन करना असंभव ही है ।
भगवान आदि के शरीर के रूप तथा नामों को याद करके सब पुकारते हैं परन्तु उस विदेहस्वरूप के विदेहनाम को कोई बिरला ही जान पाता है ।

जो कोई चारो युगों सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग में पवित्र कही जाने वाली काशी नगरी में निवास करे । नैमिषारण्य, बद्रीनाथ आदि तीर्थों पर जाये और गया, द्वारका, प्रयाग में स्नान करे । परन्तु सारशब्द (निर्वाणी नाम) का रहस्य जाने बिना वह जन्म-मरण के दुख और बेहद कष्टदायी यमपुर में ही जायेगा, और वास करेगा ।

धर्मदास, चाहे कोई अड़सठ तीर्थों मथुरा, काशी, हरिद्वार, रामेश्वर, गंगासागर आदि में स्नान कर ले । चाहे सारी प्रथ्वी की परिकृमा कर ले परन्तु सारशब्द का ज्ञान जाने बिना उसका भ्रम, अज्ञान नहीं मिट सकता ।

धर्मदास, मैं कहाँ तक उस सारशब्द के नाम के प्रभाव का वर्णन करूँ, जो उसका हंसदीक्षा लेकर नियम से उसका सुमरन करेगा । उसका मृत्यु का भय सदा के लिये समाप्त हो जायेगा । सभी नामों से अदभुत सत्यपुरुष का सारनाम सिर्फ़ सदगुरू से ही प्राप्त होता है । उस सारनाम की डोर पकङकर ही भक्त साधक सत्यलोक को जाता है ।
उस सारनाम का ध्यान करने से सदगुरू का वह हंस भक्त पाँचतत्वों से परे परमतत्व में समा जाता है, अर्थात वैसा ही हो जाता है ।

WELCOME

मेरी फ़ोटो
Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।