धर्मदास
बोले - प्रभु अब आप मुझ पर कृपा करो । जिससे संसार
में वचन वंश प्रकट हो, और आगे पंथ चले ।
कबीर
बोले - धर्मदास, दस महीने में
तुम्हारे जीव रूप में वंश प्रकट होगा, और अवतारी होकर जीवों
के उद्धार के लिये ही संसार में आयेगा । ये तुम्हारा पुत्र ही मेरा अंश होगा ।
धर्मदास
ने कहा - साहिब, मैंने तो अपनी
कामेंद्री को वश में कर लिया है फ़िर कैसे पुरुष के अंश ‘नौतम
सुरति’ चूङामणि संसार में जन्म लेंगे ।
कबीर
साहब बोले - तुम दोनों स्त्री-पुरुष
काम-विषय की आसक्ति से दूर रहकर सिर्फ़ मन से रति करो । सत्यपुरुष
का नाम पारस है, उसे पान पर लिखकर अपनी पत्नी आमिन को दो
जिससे सत्यपुरुष का अंश नौतम जन्म लेगा ।
तब
धर्मदास की यह शंका दूर हो गयी कि बिना मैथुन के यह कैसे संभव होगा । फ़िर कबीर
साहब के बताये अनुसार दोनों पति पत्नी ने मन से रति की और पान दिया । जब दस मास
पूरे हुये, तब मुक्तामणि का जन्म हुआ । इस पर धर्मदास ने
बहुत दान किया । कबीर साहिब को पता चला कि मुक्तामणि का जन्म हो गया है, तो वे तुरन्त धर्मदास के घर पहुँचे ।
और
मुक्तामणि को देखकर बोले - यह मुक्तामणि
मुक्ति का स्वरूप है । यह काल-निरंजन से जीवों को मुक्त करायेगा ।
फ़िर कबीर
साहिब मुक्तामणि की दीक्षा करते हुये बोले - मैंने
तुमको वंश बयालीस का राज्य दिया । तुमसे बयालीस वंश होंगे,
जो श्रद्धालु जीवों को तारेंगे । तुम्हारे उन वंश बयालीस से साठ शाखायें होंगी, और फ़िर उन शाखाओं से प्रशाखायें होंगी । तुम्हारी दस हजार तक प्रशाखायें
होंगी । वंशों के साथ मिलकर उनका गुजारा होगा । लेकिन यदि तुम्हारे वंश उनसे
संसारी सम्बन्ध मानकर नाता मानेंगे, तो उनको सत्यलोक प्राप्त
नहीं होगा । इसलिये तुम्हारे वंश को मोह माया से दूर रहना चाहिये ।
धर्मदास, पहले मैंने तुमको जो ज्ञान वाणी का भंडार सौंपा था,
वह सब चूङामणि को बता दो । तब बुद्धिमान चूङामणि ज्ञान से पूर्ण होंगे, जिसे देखकर काल भी चकनाचूर हो जायेगा ।
धर्मदास
ने कबीर साहब की आज्ञा का पालन किया, और दोनों
ने कबीर के चरण स्पर्श किये । यह सब देखकर काल-निरंजन भय से काँपने लगा ।
प्रसन्न
होकर कबीर साहब बोले - धर्मदास, जो सत्यपुरुष के इस नाम उपदेश को ग्रहण करेगा । उसका सत्यलोक जाने का रास्ता
काल-निरंजन नहीं रोक सकता चाहे वह अठासी करोङ घाट ढ़ूंढ़ें ।
कोई
मुख से करोङों ज्ञान की बातें कहता हो, और दिखावे
के लिये बिना विधान के (कायदे से दीक्षा आदि के) कबीर कबीर का नाम जपता हो । व्यर्थ में कितना ही असार कथन कहता हो । परन्तु
सत्यनाम को जाने बिना सब बेकार ही है ।
जो
स्वयं को ज्ञानी समझकर ज्ञान के नाम पर बकवास करता हो, उसके ज्ञान-रूपी व्यंजन के स्वाद को पूछो । करोङों
यत्न से भी यदि भोजन तैयार हो परन्तु नमक बिना सब फ़ीका ही रहता है । जैसे भोजन की
बात है, वैसे ही ज्ञान की बात है । हमारा ज्ञान का विस्तार चौदह
करोङ है । फ़िर भी सारशब्द (असली नाम) इनसे
अलग और श्रेष्ठ है ।
धर्मदास, जिस तरह आकाश में नौ लाख तारागण निकलते हैं, जिन्हें
देखकर सब प्रसन्न होते हैं । परन्तु एक सूर्य के निकलते ही सब तारों की चमक खत्म
हो जाती है, और वे दिखायी नहीं देते । इसी तरह नौ लाख तारागण
संसार के करोङों ज्ञान को समझो, और एक सूर्य आत्मज्ञानी सन्त
को जानो ।
जैसे
विशाल समुद्र को पार कराने वाला जहाज होता है । उसी
प्रकार अथाह भवसागर को पार करवाने वाला एकमात्र ‘सारशब्द’
ही है । मेरे सारशब्द को समझ कर जो जीव कौवे की चाल (विषय वासना में रुचि) छोङ देंगे तो वह सार
शब्दग्राही हंस हो जायेंगे ।
धर्मदास
बोले – साहिब, मेरे मन में एक संशय है, कृपया उसे सुने । मुझे
समर्थ सतपुरुष ने संसार में भेजा था परन्तु यहाँ आने पर काल-निरंजन
ने मुझे फ़ँसा लिया । आप कहते हो, मैं सत सुकृत का अंश हूँ, तब भी भयंकर काल-निरंजन ने मुझे डस लिया । ऐसा ही
आगे वंशों के साथ हुआ तो संसार के सभी जीव नष्ट हो जायेंगे । इसलिये साहिब ऐसी
कृपा करें कि काल-निरंजन वंशों को न छले ।
कबीर
बोले - धर्मदास, तुमने सत्य कहा, और ठीक सोचा, और तुम्हारा यह संशय होना भी सत्य है
। आगे धर्मराय निरंजन एक खेल तमाशा करेगा, उसे मैं तुमसे
छिपाऊँगा नहीं ।
काल-निरंजन
ने मुझसे सिर्फ़ बारह पंथ चलाने की बात कही थी, और अपने चार
पंथों को गुप्त रखा था । जब मैंने चार गुरूओं
का निर्माण किया तो उसने भी अपने चार अंश
प्रकट किये, और उन्हें जीवों को फ़ँसाने के लिये बहुत प्रकार
से समझाया ।
अब आगे
जैसा होगा, वह सुनो । जब तक तुम इस शरीर में रहोगे तब तक
काल-निरंजन प्रकट नहीं होगा । जब तुम शरीर छोङोगे तभी काल आकर प्रकट होगा ।
काल
आकर तुम्हारे वंश को छेदेगा, और धोखे में डालकर मोहित
करेगा । वंश के बहुत नाद संत, महंत, कर्णधार
होंगे । काल के प्रभाव से वे पारस वंश को विष के स्वाद जैसा करेंगे । बिंद मूल और
टकसार वंश के अन्दर मिश्रित होंगे । वंश में एक बहुत बङा धोखा होगा ।
काल-स्वरूप ‘हंग’ दूत उसकी देह में
समायेगा, वह आपस में झगङा करायेगा ।
बिंद
वंश के स्वभाव को हंग दूत नहीं छोङेगा । वह मन के द्वारा बिंद वंश को अपनी तरफ़
मोङेगा । मेरा अंश जो सत्य पंथ चलायेगा, उसे देखकर
वह झगङा करेगा ।
उसके
चिह्न अथवा चाल को वह नहीं देख सकेगा, और अपना
रास्ता वंश में देखेगा ।
वंश
अपने अनुभव ग्रन्थ कथ कर (कह कर) रखेगा परन्तु नाद
पुत्र की निंदा करेगा ।
तब उन अनुभव ग्रन्थों को वंश के कर्णधार संत, महंत पढ़ेंगे । जिससे उनको बहुत अहंकार होगा । वे स्वार्थ और अहंकार को समझ नहीं पायेंगे, और ज्ञान कल्याण के नाम पर जीवों को भटकायेंगे । इसी से मैं तुम्हें समझाकर कहता हूँ, अपने वंश को सावधान कर दो । नाद पुत्र जो प्रकट होगा, उससे सब प्रेम से मिलें ।
तब उन अनुभव ग्रन्थों को वंश के कर्णधार संत, महंत पढ़ेंगे । जिससे उनको बहुत अहंकार होगा । वे स्वार्थ और अहंकार को समझ नहीं पायेंगे, और ज्ञान कल्याण के नाम पर जीवों को भटकायेंगे । इसी से मैं तुम्हें समझाकर कहता हूँ, अपने वंश को सावधान कर दो । नाद पुत्र जो प्रकट होगा, उससे सब प्रेम से मिलें ।
धर्मदास, इसी मन से समझो । तुम सर्वथा विषय विकारों से रहित मेरे नाद पुत्र (शब्द से उत्पन्न हुआ) हो । कमाल पुत्र, जो मैंने मृतक से जीवित किया था, उसके घट (शरीर) के भीतर भी कालदूत समा गया । उसने मुझे पिता
जानकर अहंकार किया, तब मैंने अपना ज्ञान धन तुमको दिया ।
मैं तो
प्रेम-भाव का भूखा हूँ, हाथी,
घोङे, धन, दौलत की चाह
मुझे नहीं है । अनन्य प्रेम और भक्ति से जो मुझे अपनायेगा,
वह हंस भक्त ही मेरे ह्रदय समायेगा । यदि मैं अहंकार से ही प्रसन्न होने वाला होता
तो मैं सब ज्ञान, ध्यान, आध्यात्म,
पंडित-काजी को न सौंप देता । जब मैंने तुम्हें
प्रेम में लगन लगाये अपने अधीन देखा तो अपनी सब अलौकिक ज्ञान-संपदा ही सौंप दी । ऐसे ही धर्मदास आगे सुपात्र लोगों को तुम यह ज्ञान
देना ।
धर्मदास, अच्छी तरह जान लो, जहाँ अहंकार होता है, वहाँ मैं नहीं होता । जहाँ अहंकार होता है, वहाँ सब
कालस्वरूप ही होता है । अतः अहंकारी मुक्ति के अनोखे सत्यलोक को नहीं पा सकता ।
*मुक्तामणि और चूङामणि एक ही अंश के दो नाम हैं ।
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