गुरुवार, जुलाई 12, 2018

त्रिदेव द्वारा प्रथम समुद्र-मंथन


तब निरंजन ने गुप्त ध्यान से अष्टांगी को याद करते हुये समझाया ।
और कहा - बताओ समुद्र मथने में किसलिये देर हो रही है? ब्रह्मा, विष्णु और महेश हमारे तीनों पुत्रों को समुद्र मथने के लिये शीघ्र ही भेजो । मेरे वचन दृढ़ता से मानो, और अष्टांगी इसके बाद तुम स्वयं समुद्र में समा जाना ।

तब अष्टांगी ने समुद्र मंथन हेतु विचार किया, और तीनों बालकों को अच्छी तरह समझा बुझाकर समुद्र मथने के लिये भेजा ।

उन्हें भेजते समय अष्टांगी ने कहा - समुद्र से तुम्हें अनमोल वस्तुयें प्राप्त होंगी इसलिये तुम जल्दी ही जाओ ।

यह सुनकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों बालक चल पङे, और जाकर समुद्र के पास खङे हो गये, तथा उसे मथने का उपाय सोचने लगे ।

फ़िर तीनों ने समुद्र मंथन किया । तीनों को समुद्र से तीन वस्तुयें प्राप्त हुयीं । ब्रह्मा को वेद, विष्णु को तेज, और शंकर को हलाहल विष की प्राप्ति हुयी । ये तीनों वस्तुयें लेकर वे अपनी माता अष्टांगी के पास आये, और खुशी खुशी तीनों वस्तुयें दिखायीं ।

अष्टांगी ने उन्हें अपनी अपनी वस्तु अपने पास रखने की आज्ञा दी ।

अष्टांगी ने कहा - अब फ़िर से जाकर समुद्र मथो, और जिसको जो प्राप्त हो, वह ले लो ।

उसी समय आदिभवानी ने एक चरित्र किया । उसने तीन कन्यायें उत्पन्न की, और अपनी उन अंश को समुद्र में प्रवेश करा दिया । जब इन तीनों कन्याओं को समुद्र में प्रवेश कराने के लिये भेजा, इस रहस्य को अष्टांगी के तीनों पुत्र नहीं जान सके । अतः उन्होंने जब समुद्र मंथन किया तो समुद्र से तीन कन्यायें निकलीं । उन्होंने खुशी से तीनों कन्याओं को ले लिया, और अष्टांगी के पास आये ।

अष्टांगी ने कहा - पुत्रो, तुम्हारे सब कार्य पूरे हो गये ।

अष्टांगी ने उन तीन कन्याओं को तीनों पुत्रों को बाँट दिया । ब्रह्मा को सावित्री, विष्णु को लक्ष्मी और शंकर को पार्वती दी । तीनों भाई कामिनी स्त्री को पाकर बहुत आनन्दित हुये, और उन कामिनियों के साथ काम के वशीभूत होकर उन्होंने देव और दैत्य दोनों प्रकार की संतानें उत्पन्न की ।

कबीर साहब बोले - धर्मदास, तुम यह बात समझो कि जो माता थी, वह अब स्त्री हो गयी ।

अष्टांगी ने फ़िर से अपने पुत्रों को समुद्र मथने की आज्ञा दी इस बार समुद्र में से चौदह रत्न निकले । उन्होंने रत्न की खान निकाली, और रत्न लेकर माता के पास पहुँचे ।

तब अष्टांगी ने कहा - पुत्रो, अब तुम सृष्टि रचना करो ।

अण्डज खान की उत्पत्ति स्वयं अष्टांगी ने की । पिण्डज खान को ब्रह्मा ने बनाया । ऊष्मज खान को विष्णु तथा स्थावर खान को शंकर ने बनाया । उन्होंने चौरासी लाख योनियों की रचना की, और उनके अनुसार आधा जल, आधा थल बनाया ।

स्थावर खान को एक-तत्व का समझो, और ऊष्मज खान को दो-तत्व ।
तीन-तत्वों से अण्डज, और चार-तत्वों से पिण्डज का निर्माण हुआ ।
पाँच तत्वों से मनुष्य को बनाया, और तीन गुणों से सजाया संवारा ।

इसके बाद ब्रह्मा वेद पढ़ने लगे । वेद पढ़ते हुये ब्रह्मा को निराकार के प्रति अनुराग हुआ । क्योंकि वेद कहता है पुरुष एक है, और वह निराकार है, और उसका कोई रूप नहीं है । वह शून्य में ज्योति दिखाता है, परन्तु देखते समय उसकी देह दृष्टि में नहीं आती ।
उस निराकार का सिर स्वर्ग है, और पैर पाताल है ।

इस वेदमत से ब्रह्मा मतवाला हो गया ।

ब्रह्मा ने विष्णु से कहा - वेद ने मुझे आदिपुरुष को दिखा दिया है ।

फ़िर ऐसा ही उन्होंने शंकर से भी कहा - वेद पढ़ने से पता चलता है कि पुरुष एक है, और सबका स्वामी केवल एक निराकार पुरुष है । यह तो वेद ने बताया परन्तु उसने ऐसा भी कहा कि मैंने उसका भेद नहीं पाया ।

ब्रह्मा अष्टांगी के पास आये, और बोले - माता, मुझे वेद ने दिखाया और बताया कि सृष्टि की रचना करने वाला, हम सबका स्वामी कोई और ही है? अतः हमें बताओ कि तुम्हारा पति कौन है, और हमारा पिता कहाँ है?

अष्टांगी बोली - ब्रह्मा सुनो, मेरे अतिरिक्त तुम्हारा अन्य कोई पिता नहीं है । मुझसे ही सब उत्पत्ति हुयी है, और मैंने ही सबको संभारा है ।

ब्रह्मा ने कहा - माता वेद निर्णय करके कहता है कि पुरुष केवल एक है, और वह गुप्त है ।

अष्टांगी बोली - पुत्र मुझसे न्यारा सृष्टि रचियता और कोई नहीं है । मैंने ही स्वर्गलोक, प्रथ्वीलोक और पाताललोक बनाये हैं, और सात समुद्रों का निर्माण भी मैंने ही किया है ।

ब्रह्मा ने कहा - मैंने तुम्हारी बात मानी कि तुमने ही सब कुछ किया है । परन्तु पहले से ही पुरुष को गुप्त कैसे रख लिया? जबकि वेद कहता है कि पुरुष एक है, और वह अलख निरंजन है ।
माता तुम कर्ता बनो, आप बनो । परन्तु पहले वेद की रचना करते समय यह विचार क्यों नहीं किया, और उसमें पुरुष को निरंजन क्यों बताया? अतः अब तुम मेरे से छल न करो, और सच सच बात बताओ ।

कबीर साहब बोले - धर्मदास, जब इस तरह ब्रह्मा ने जिद पकङ ली तो अष्टांगी ने अपने मन में विचार किया कि ब्रह्मा को किस प्रकार समझाऊँ, जो यह मेरी महिमा को, बङाई को नहीं मानता । जो यह बात निरंजन से कहूँ, तो यह किस प्रकार ठीक से समझेगा? निरंजन राव ने मुझसे पहले ही कहा था कि मेरा दर्शन कोई नहीं पायेगा ।
अब जो ब्रह्मा को अलख निरंजन के बारे में कुछ नहीं बताया, तो किस प्रकार उसे दिखाया जाये ।

ऐसा विचार कर अष्टांगी ने कहा - अलख निरंजन अपना दर्शन नहीं दिखाता ।

ब्रह्मा बोले - माता, तुम मुझे सही सही स्थान बताओ आगे पीछे की उल्टी सीधी बातें करके मुझे न बहलाओ । मैं ये बातें नहीं मानता, और न ही मुझे अच्छी लगती हैं ।
पहले तुमने मुझे बहकाया कि मैं ही सृष्टिकर्ता हूँ, और मुझसे अलग कुछ भी नहीं है ।

और अब तुम कहती हो कि अलख-निरंजनतो है, पर वह अपना दर्शन नहीं दिखाता । क्या उसका दर्शन पुत्र भी नहीं पायेगा ऐसी पैदा न होने वाली बात क्यों कहती हो ।
इसलिये मुझे तुम्हारे कहने पर भरोसा नहीं है अतः इसी समय उस कर्ता का दर्शन करा दीजिये, और मेरे संशय को दूर कीजिये । इसमें जरा भी देर न करो ।

अष्टांगी बोली - ब्रह्मा, मैं तुमसे सत्य ही कहती हूँ कि उस अलख निरंजन के सात स्वर्ग ही माथा है, और सात पाताल चरण हैं । यदि तुम्हें उसके दर्शन की इच्छा हो, तो हाथ में फ़ूल ले जाकर उसे अर्पित करते हुये प्रणाम करो ।

यह सुनकर ब्रह्मा बहुत प्रसन्न हुये ।

अष्टांगी ने अपने मन में विचार किया - ब्रह्मा मेरा कहा मानता नहीं है । ये कहता है कि वेद ने मुझे उपदेश किया है कि एक पुरुष निरंजन है परन्तु कोई उसके दर्शन नहीं पाता है ।

अतः वह बोली - अरे बालक सुन, अलख निरंजन तुम्हारा पिता है, पर तुम उसका दर्शन नहीं पा सकते । यह मैं तुमसे सत्य वचन कहती हूँ ।

यह सुनकर ब्रह्मा ने व्याकुल होकर माँ के चरणों में सिर रख दिया, और बोले - मैं पिता का शीश स्पर्श व दर्शन करके तुम्हारे पास आता हूँ ।

यह कहकर ब्रह्मा उत्तर दिशाको चले गये ।
अपनी माता से आज्ञा मांगकर विष्णु भी अपने पिता के दर्शनों हेतु पाताल चले गये ।
केवल शंकर का मन इधर उधर नहीं भटका, और वह माता की सेवा करते हुये कुछ नहीं बोले ।


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Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।